________________
( १११ )
का यही मत है कि सांसारिक जीवों का परम लक्ष्य मोक्ष, निर्वाण या कैवल्य की प्राप्ति है। जीव से यहाँ तात्पर्य मानव के साथ-साथ अन्य समस्त सांसारिक प्राणियों से भी समझा जा सकता है, परन्तु मुख्यतया यहाँ इसका अर्थ मानव मात्र के लिए ही आया है। जैन धर्म में इस परम लक्ष्य ( मोक्ष, निर्वाण ) की प्राप्ति मात्र मानवपर्याय द्वारा ही संभव मानी गयी है। अतः जैन धर्म में मानव पर्याय की क्या उपयोगिता है, यह बात इसी तथ्य से उजागर हो जाती है कि वह कैवल्य प्राप्ति का एकमात्र साधक है। ___जहाँ तक मानव व्यक्तित्व का प्रश्न है तो जैनधर्म आधुनिक मनोविज्ञान की तरह अंतर्मुखी, बहिर्मुखी और उभयमुखी व्यक्तित्व की कल्पना तो नहीं करता, परन्तु बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा के रूप में मानव व्यक्तित्व की कल्पना अवश्य करता है। जहाँ तक परमात्मा का प्रश्न है यह तो मानव व्यक्तित्व का उच्चतम आध्यात्मिक स्वरूप है। इस अवस्था में आने वाला व्यक्ति पूर्णतया सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है तथा इस अवस्था तक वह अपने प्रयत्नों से ही पहुँचता है ऐसा भी मानना चाहिए। इसका अर्थ मात्र इतना ही हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रयत्नों से, अपनी साधना की सहायता से इस स्तर तक पहुँच सकता है और सांसारिक आवागमन से मुक्त हो सकता है।
रिसर्च एसोसिएट भोगीलाल लेहरचंद इंस्टिट्यूट ऑफ इंडोलाजी, दिल्ली C/o पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org