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वर्ष ४१
श्रमण
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान
वाराणसी- ५
जनवरी- मार्च १६६०
अंक १-३
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सहसम्पादक
वर्ष ४१
प्रस्तुत अंक में
१. स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन
३. जैनधर्म में मानव
प्रधान सम्पादक
प्रो० सागरमल जैन
जनवरी-मार्च १९९०
२. धर्मघोषगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
४. साहित्य सत्कार
नोट - श्रमण वर्ष ४० अंक १२
वार्षिक शुल्क चालीस रुपये
- प्रो० सागरमल जैन
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- डा० शिवप्रसाद
डा० शिवप्रसाद
-डा० रज्जनकुमार - डा० सुनीता कुमारी
अंक १-३
३
अक्टूबर १९८९ तक पूर्ण हो गया । वर्ष ४१ के अंक १ से ३, जनवरी, फरवरी, मार्च संयुक्तांक के रूप में प्रस्तुत है ।
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यह आवश्यक नहीं कि लेखक के विचारों से सम्पादक अथवा संस्थान सहमत हो ।
एक प्रति दस रुपया
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स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन
स्याद्वाद का अर्थ-विश्लेषण :
स्याद्वाद शब्द स्यात् और वाद इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ हैं | अतः स्याद्वाद को समझने के लिए इन दोनों शब्दों का अर्थ विश्लेषण आवश्यक है । स्यात् शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में जितनी भ्रान्ति दार्शनिकों में रही है, सम्भवतः उतनी अन्य किसी शब्द के सम्बन्ध में नहीं । विद्वानों द्वारा हिन्दी भाषा में स्यात् का अर्थ "शायद ", " सम्भवतः”, "कदाचित् " और अंग्रेजी भाषा में probable, may be, perhaps, some how आदि किया गया है और इन्हीं अर्थों के आधार पर उसे संशयवाद, सम्भावनावाद या अनिश्चयवाद समझने की भूल की जाती रही है । यह सही है कि किन्हीं संदर्भों में स्यात् शब्द का अर्थ कदाचित्, शायद, सम्भव आदि भी होता है । किन्तु इस आधार पर स्याद्वाद को संशयवाद या अनिश्चयवाद मान लेना एक भ्रान्ति ही होगी । हमें यहाँ इस बात को भी स्पष्ट रूप से ध्यान में रखना चाहिए कि प्रथम तो एक ही शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं; दूसरे अनेक बार शब्दों का प्रयोग उनके प्रचलित अर्थ में न होकर विशिष्ट अर्थ में होता है, जैसे जैन परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग धर्म- द्रव्य के रूप में होता है । जैन आचार्यों ने स्यात् शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में ही किया है । यदि स्याद्वाद के आलोचक विद्वानों ने स्याद्वाद सम्बन्धी किसी भी मूलग्रन्थ को देखने की कोशिश की होती, तो उन्हें स्यात् शब्द का जैन परम्परा में क्या अर्थ है, यह स्पष्ट हो जाता । स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जो भ्रान्ति उत्पन्न होती है, उसका मूल कारण उसे तिङ्न्त पद मान लेना है, जबकि समन्तभद्र, विद्यानन्दि, अमृतचन्द्र, मल्लिषेण आदि सभी जैन आचार्यों ने इसे निपात या अव्यय माना है । समन्तभद्र स्यात् शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए आप्तमीमांसा में लिखते हैं कि स्यात् - यह निपात शब्द है, जो अर्थ के साथ संबंधित होने पर वाक्य में
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(
४
)
अनेकान्तता का द्योतक और विवक्षित अर्थ का एक विशेषण है।' इसी प्रकार पंचास्तिकाय की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र भी स्यात् शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि 'स्यात्' एकान्तता का निषेधक, अनेकान्तता का प्रतिपादक तथा कथंचित् अर्थ का द्योतक एक निपात शब्द है।
मल्लिषेण ने भी स्याद्वादमंजरी में स्यात् शब्द को अनेकान्तता का द्योतक एक अव्यय माना है। इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन विचारकों की दृष्टि में स्यात् शब्द संशयपरक न होकर अनेकान्तिक किन्तु निश्चयात्मक अर्थ का द्योतक है । मात्र इतना ही नहीं जैन दार्शनिक इस सम्बन्ध में भी सजग थे कि आलोचक या जनसाधारण द्वारा स्यात् शब्द का संशयपरक अर्थ ग्रहण किया जा सकता है, इसलिए उन्होंने स्यात् शब्द के साथ "एव" शब्द के प्रयोग की योजना भी की है, जैसे "स्यादस्त्येव घट:" अर्थात् किसी अपेक्षा से यह घड़ा ही है। यह स्पष्ट है कि "एव" शब्द निश्चयात्मकता का द्योतक है। “स्यात्" तथा "एव" शब्दों का एक साथ प्रयोग श्रोता की संशयात्मकता को समाप्त कर उसे सापेक्षिक किन्तु निश्चित ज्ञान प्रदान करता है। वस्तुतः इस प्रयोग में "एव" शब्द 'स्यात्' शब्द की अनिश्चितता को समाप्त कर देता है और "स्यात्" शब्द “एव" शब्द की निरपेक्षता एवं एकान्तता को समाप्त कर देता है और इस प्रकार वे दोनों मिलकर कथित वस्तु-धर्म की सीमा नियत करते हुए सापेक्ष किन्तु निश्चित ज्ञान प्रस्तुत करते हैं। अतः स्याद्वाद को संशयवाद या सम्भावनावाद नहीं कहा जा सकता है। "वाद" शब्द का अर्थ कथनविधि है। इसप्रकार स्याद्वाद सापेक्षिक कथन पद्धति या सापेक्षिक निर्णय पद्धति का सूचक है। वह एक ऐसा सिद्धान्त है, जो वस्तुतत्त्व का विविध पहलुओं या विविध आयामों से विश्लेषण करता है और अपने उन विश्लेषित विविध निर्णयों को इस
१. वाक्येष्वनेकांतद्योती गम्य प्रति विशेषक।
स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि ॥ -आप्तमीमांसा १०३ । २. सर्वथात्व निषेधकोऽनेकांतता द्योतकः कथंचिदर्थे स्यात् शब्दो निपातः ।
-पंचास्तिकाय टीका ३. स्यादित्यव्ययमतेकांतद्योतक। -स्याद्वादमंजरी
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प्रकार की भाषा में प्रस्तुत करता है कि वे अपने पक्ष की स्थापना करते हुए भी वस्तुतत्त्व में निहित अन्य "अनुक्त" अनेकानेक धर्मों एवं सम्भावनाओं ( पर्यायों) का निषेध न करें। वस्तुतः स्याद्वाद हमारे निर्णयों एवं तज्जनित कथनों को प्रस्तुत करने का एक निर्दोष एवं अहिंसक तरीका है, अविरोधपूर्वक कथन की एक शैली है। उसका प्रत्येक भंग अनेकान्तिक ढंग से एकान्तिक कथन करता है, जिसमें वक्ता अपनी बात इस ढंग से कहता है कि उसका वह कथन अपने प्रतिपक्षी कथनों का पूर्ण निषेधक न बने। संक्षेप में स्याद्वाद अपने समग्र रूप में अनेकान्त है और प्रत्येक भंग की दृष्टि से सम्यक् एकांत भी है। सप्तभंगी अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के संबंध में एक ऐसी कथन-पद्धति या वाक्ययोजना है, जो उसमें अनुक्त धर्मों को संभावना का निषेध करते हुए सापेक्षिक किन्तु निश्चयात्मक ढंग से वस्तुतत्त्व के पूर्ण स्वरूप को अपनी दृष्टि में रखते हुए उसके किसी एक धर्म का मुख्य रूप से प्रतिपादन या निषेध करती है। इसी प्रकार अनेकांतवाद भी वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में एकाधिक निर्णयों को स्वीकृत करता है। वह कहता है कि एक ही वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर अनेक निर्णय ( कथन ) दिये जा सकते हैं अर्थात् अनेकांत वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक निर्णयों या निष्कर्षों की सम्भाव्यता का सिद्धांत है। जैनाचार्यों ने अनेकांत को परिभाषित करते हुए लिखा है कि 'सर्वथैकान्त प्रतिक्षेप लक्षणोऽनेकांतः' अर्थात् अनेकांत मात्र एकांत का निषेध है और वस्तु में निहित परस्पर विरुद्ध धर्मों का प्रकाशक है।
स्थाद्वाद के आधार
सम्भवतः यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की क्या आवश्यकता है ? स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की आवश्यकता के भूलतः चार कारण हैं
१. वस्तुतत्त्व की अनन्त धर्मात्मकता, २. मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों की सीमितता, ३. मानवीय ज्ञान की अपूर्णता एवं सापेक्षता, तथा ४. भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की सीमितता एवं सापेक्षता ।
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(अ) वस्तुतत्त्व को अनन्तधर्मात्मकता
सर्वप्रथम स्याद्वाद के औचित्य स्थापन के लिए हमें वस्तुतत्त्व के उस स्वरूप को समझ लेना होगा, जिसके प्रतिपादन का हम प्रयास करते हैं । वस्तुतत्त्व मात्र सीमित लक्षणों का पुंज नहीं है, जैन दार्शनिकों ने उसे अनन्तधर्मात्मक कहा है। यदि हम वस्तुतत्त्व के भावात्मक गुणों पर ही विचार करें तो उनकी संख्या भी अनेक होगी। उदाहरणार्थ गुलाब का फूल गन्ध की दृष्टि से सुगन्धित है, तो वर्ण की दृष्टि से किसी एक या एकाधिक विशिष्ट रंगों से युक्त है, स्पर्श की दृष्टि से उसको पंखुड़ियाँ कोमल हैं, किन्तु डंठल तीक्ष्ण है, उसमें एक विशिष्ट स्वाद है, आदि आदि । यह तो हुई वस्तु के भावात्मक धर्मों की बात, किन्तु उसके अभावात्मक धर्मों की संख्या तो उसके भावात्मक धर्मों की अपेक्षा कई गुना अधिक होगी, जैसे गुलाब का फूल, चमेली का, मोगरे का या पलास का फूल नहीं है। वह अपने से इतर सभी वस्तुओं से भिन्न है और उसमें उन सभी वस्तुओं के अनेकानेक धर्मों का अभाव भी है । पुनः यदि हम वस्तुतत्त्व की भूत एवं भावी तथा व्यक्त और अव्यक्त पर्यायों ( सम्भावनाओं) पर विचार करें तो उसके गुण धर्मों की यह संख्या और भी अधिक बढ़कर निश्चित ही अनन्त तक पहुँच जावेगी । अतः यह कथन सत्य है कि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मों, अनन्त गुणों एवं अनन्त पर्यायों का पुंज है। मात्र इतना ही नहीं वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है, मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी गुण मान लेती है वे एक ही वस्तुतत्त्व में अपेक्षा भेद से एक साथ रहते हुए देखे जाते है ।'
अस्तित्व नास्तित्व पूर्वक है और नास्तित्व अस्तित्व पूर्वक है। एकता में अनेकता और अनेकता में एकता अनुस्यूत है, जो द्रव्य दृष्टि से नित्य है, वही पर्यायदृष्टि से अनित्य भी है। उत्पत्ति के बिना विनाश और विनाश के बिना उत्पत्ति संभव नहीं है। पुनः उत्पत्ति और विनाश के लिए ध्रौव्यत्व भी अपेक्षित है अन्यथा उत्पत्ति और विनाश किसका होगा ? क्योंकि विश्व में विनाश के अभाव से उत्पत्ति जैसी भी कोई स्थिति
१. कीदृशं वस्तु ? नाना धर्मयुक्तं विविधस्वभावैः सहितं, कथंचित् अस्तित्वनास्तित्लेकत्वानेकत्व नित्यत्वानित्यत्व-भिन्नत्व प्रमुखेराविष्टम् ।
-स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा-टीका शुभचन्द्र; २५३
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नहीं है । यद्यपि ध्रौव्यत्व और उत्पत्ति विनाश के धर्म परस्पर विरोधी हैं, किन्तु दोनों को सहवर्ती माने बिना विश्व की व्याख्या असम्भव है । यही कारण था कि भगवान् महावीर ने अपने युग में प्रचलित शाश्वत - वादी और उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी विचार धाराओं के मध्य में समन्वय करते हुए अनेकान्तिक दृष्टि से वस्तुतत्त्व को उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक कहकर परिभाषित किया ।" जिनोपदिष्ट यह त्रिपदी ही अनेकान्तवादी विचार - पद्धति का आधार है । स्याद्वाद और नयवाद सम्बन्धी विपुल साहित्य मात्र इसका विस्तार है । त्रिपदी ही जिन द्वारा वपित वह "बीज" है जिससे स्याद्वाद रूपी वट वृक्ष विकसित हुआ है । यह वस्तुतत्त्व के उस अनेकान्तिक स्वरूप की सूचक है जिसका स्पष्टीकरण भगवतीसूत्र में स्वयं भगवान् महावीर ने विविध प्रसंगों में किया है । उदाहरणार्थ जब महावीर से गौतम ने यह पूछा कि हे भगवन् ! जीव नित्य या अनित्य है ? हे गौतम! जीव अपेक्षाभेद से नित्य भी है और अनित्य भी । भगवन् ! यह कैसे ? हे गौतम ! द्रव्य दृष्टि से जीव नित्य है, पर्याय दृष्टि से अनित्य । इसी प्रकार एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सोमिल को कहा था कि हे सोमिल ! द्रव्य-दृष्टि से मैं एक हूँ, किन्तु परिवर्तनशील चेतनावस्थाओं ( पर्यायों) की अपेक्षा से मैं अनेक भी हूँ । वस्तुतत्त्व के इस अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप का यह प्रतिपादन उक्त आगम में बहुत ही विस्तार के साथ हुआ है किन्तु लेख की मर्यादा को दृष्टिगत रखते हुए उपरोक्त एक-दो उदाहरण ही पर्याप्त होंगे ।
२
वस्तुतत्त्व की यह अनन्तधर्मात्मकता तथा उसमें विरोधी धर्म-युगलों की एक साथ उपस्थिति अनुभव सिद्ध है । एक ही आम्रफल खट्टा और मधुर (खट्टा-मीठा ) दोनों ही हो सकता है। पितृत्व और पुत्रत्व के दो विरोधी गुण अपेक्षा भेदसे एक ही व्यक्तिमें एक ही समय में साथ-साथ सिद्ध हो सकते हैं । वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम विरोधी धर्म युगल मान लेते हैं, उनमें सर्वथा या निरपेक्ष रूप से विरोध नहीं है । अपेक्षा भेद से उनका एक ही वस्तुतत्त्व में एक ही समय में होना सम्भव है । भिन्न
१. उत्पादव्ययधीव्युक्तं सत्-तत्त्वार्थसूत्र ५ - २९
२. गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया - दव्वट् ट्ठयाए
सासया भावट्ट्याए असासया - भगवती सूत्र ७ ३ २७३ । ३. भगवती सूत्र - १ - ८-१० ।
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( ८ ) भिन्न अपेक्षाओं से एक हो व्यक्ति छोटा या बड़ा कहा जा सकता है अथवा एक हो वस्तु ठण्डी या गरम कही जा सकती है। जो संखिया जनसाधरण की दृष्टि में विष (प्राणापहारी) है, वही एक वैद्य की दृष्टि में औषधि (जीवन-संजीवनी) भी है। अतः यह एक अनुभवजन्य सत्य है कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म-युगलों की उपस्थिति देखी जाती है। यहाँ हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म युगलों को उपस्थिति तो होती है, किन्तु सभी विरोधी धर्म युगलों की उपस्थिति नहीं होती है । इस सम्बन्ध में धवला का निम्न कथन द्रष्टव्य है-"यदि (वस्तु में) सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य, अचैतन्य, भव्यत्व और अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जावेगा।' अतः यह मानना अधिक तर्कसंगत है कि वस्तु में केवल वे ही विरोधी धर्म युगल युगपत् रूप में रह सकते हैं, जिनका उस वस्तु में अत्यन्ताभाव नहीं है। किन्तु इस बात से वस्तुतत्त्व का अनन्तधर्मात्मक स्वरूप खण्डित नहीं होता है और वस्तुतत्त्व में नित्यताअनित्यता, एकत्व-अनेकत्व, अस्तित्व-नास्तित्व, भेदत्व-अभेदत्व आदि अनेक विरोधी धर्म युगलों की युगपत् उपस्थिति मानी जा सकती है। आचार्य अमृतचन्द्र ‘समयसार' की टीका में लिखते हैं कि अपेक्षा भेद से जो है, वही नहीं भी है, जो सत् है वह असत् भी है, जो एक है वह अनेक भी है, जो नित्य है वही अनित्य भी है। वस्तु एकान्तिक न होकर अनेकान्तिक है। आचार्य हेमचन्द्र अन्ययोग-व्यवच्छेदिका में लिखते हैं कि विश्व की समस्त वस्तुएँ स्याद्वाद की मुद्रा से युक्त हैं, कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता । यद्यपि वस्तुतत्त्व का यह अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप हमें असमंजस में अवश्य डाल देता है किन्तु यदि वस्तु स्वभाव ऐसा ही है, हम क्या करें ? बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के शब्दों में 'यदिदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते के वयं' ? पुनः हम जिस वस्तु या द्रव्य की विवेचना १. धवला खण्ड १, भाग १, सूत्र ११, पृ० १६७-उद्धृत तीर्थंकर महावीर
डॉ० भारिल्ल २. यदेव तत् तदेव अतत् यदेवेकं तदेवानेकं, यदेव सत् तदेवासत्, यदेवनित्यं
तदेवानित्यं-समयसार टीका (अमृतचन्द) ३. आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रा नतिमेदि वस्तु-अन्ययोगव्यवच्छे
दिका ५।
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करना चाहते हैं, वह है क्या ? जहाँ एक ओर द्रव्य को गुण और पर्यायों का आश्रय कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उसे गुणों का समूह भी कहा गया है। गुण और पर्यायों से पृथक् द्रव्य की कोई सत्ता ही नहीं है और द्रव्य से पृथक गुण और पर्यायों की कोई सत्ता नहीं है। यह है वस्तु की सापेक्षितता और यदि वस्तुतत्त्व सापेक्षिक, अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तिक है, तो फिर उसका ज्ञान एवं उसकी विवेचना निरपेक्ष एवं एकान्तिक दृष्टि से कैसे सम्भव है ? इसलिए जैन आचार्यों का कथन है कि (अनन्तधर्मात्मक) मिश्रित तत्त्व की विवेचना बिना अपेक्षा के सम्भव नहीं है।' (ब) मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों का स्वरूप :
यह तो हुई वस्तु स्वरूप की बातें, किन्तु जिस वस्तु स्वरूप का ज्ञान हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए हमारे पास साधन क्या है। हमें उन साधनों के स्वरूप एवं उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा। मनुष्य के पास अपनी सत्याभीप्सा और जिज्ञासा की सन्तुष्टि के लिए ज्ञान-प्राप्ति के दो साधन हैं :
१. इन्द्रियाँ और २. तर्कबुद्धि ।
मानव अपने इन्हीं सीमित साधनों द्वारा वस्तुतत्त्व को जानने का प्रयत्न करता है। जहाँ तक मानव के ऐन्द्रिक ज्ञान का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि ऐन्द्रिक ज्ञान न पूर्ण है और न निरपेक्ष । मानव इन्द्रियों की क्षमता सीमित है, अतः वे वस्तुतत्त्व का जो भी स्वरूप जान पाती हैं, वह पूर्ण नहीं हो सकता है। इन्द्रियाँ वस्तु को अपने पूर्ण स्वरूप में देख पाने के लिए सक्षम नहीं हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि हम वस्तुतत्त्व को जिस रूप में वह है वैसा नहीं जान कर उसे जिस रूप में इन्द्रियाँ हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं, उसी रूप में जानते हैं। हम इन्द्रिय संवेदनों को जान पाते हैं, वस्तुतत्त्व को नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा आनुभविक ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष है। मात्र इतना ही नहीं, वह इन्द्रिय सापेक्ष होने के साथ-साथ उन कोणों पर भी निर्भर रहता है जहाँ से वस्तु देखी जा रही है और यदि हम उस कोण (स्थिति) के विचार को अपने १. न विवेचयितुं शक्यं विनाऽपेक्षां हि मिश्रितम् । -अभिधानराजेन्द्र, खण्ड
४, पृ० १८५३
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( १० ) ज्ञान से अलग करते हैं, तो निश्चित ही हमारा ज्ञान भ्रान्त हो जायेगा। उदाहरणार्थ एक गोल सिक्का अपने अनेक कोणों से हमें वृत्ताकार न लग कर अण्डाकार दिखाई देता है। विभिन्न गुरुत्वाकर्षणों एवं विभिन्न शारीरिक स्थितियों से एक ही वस्तु हल्की या भारी प्रतीत होती है। हमारी पृथ्वी को जब हम उसके गुरुत्वाकर्षण की सीमा से ऊपर जाकर देखते हैं तो गतिशील दिखाई देती है, किन्तु यहाँ वह हमें स्थिर प्रतीत होती है। दूर से देखने पर वस्तु छोटी और पास से देखने पर बड़ी दिखाई देती है। एक टेबल के जब विविध कोणों से फोटो लिए जाते हैं तो वे परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं। इस प्रकार हमारा सारा आनुभविक ज्ञान सापेक्ष ही होता है, निरपेक्ष नहीं । इन्द्रिय सम्वेदनों को उन सब अपेक्षाओं (Conditions) से अलग हटकर नहीं समझा जा सकता है, जिनमें कि वे हुए हैं। अतः ऐन्द्रिकज्ञान दिक, काल और व्यक्ति सापेक्ष ही होता है ।
किन्तु मानव मन कभी भी इन्द्रियानुभूति या प्रतीति के ज्ञान को ही अन्तिम सत्य मानकर सन्तुष्ट नहीं होता, वह उस प्रतीति के पीछे भी झांकना चाहता है। इस हेतु वह अपनी तर्कबुद्धि का सहारा लेता है । किन्तु क्या ताकिक ज्ञान निरपेक्ष हो सकता है ? प्रथम तो तार्किक ज्ञान भी पूरी तरह से इन्द्रिय सम्वेदनों से निरपेक्ष नहीं होता है, दूसरे ताकिक ज्ञान वस्तुतः एक सम्बन्धात्मक ज्ञान है । बौद्धिक चिन्तन कारण-कार्य, एक-अनेक, अस्ति-नास्ति आदि विचार विधाओं से घिरा हुआ है और अपनी इन विचार विधाओं के आधार पर वह सापेक्ष ही होगा। तर्कबद्धि जब भी किसी वस्तु के स्वरूप का निश्चय कर कोई निर्णय प्रस्तुत करती है, तो वह हमें दो तथ्यों के बीच किसी सम्बन्ध या असम्बन्ध की ही सूचना प्रदान करतो है और ऐसा सम्बन्धात्मक ज्ञान सम्बन्ध सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं। क्योंकि सभी सम्बन्ध (Relations) सापेक्ष होते हैं। (स) मानवीय ज्ञान को सीमितता एवं सापेक्षता : ___वस्तुतः वस्तुतत्त्व का यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान सीमित क्षमता वाले मानव के लिए सदैव ही एक जटिल प्रश्न रहा है। अपूर्ण के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं जा पाये हैं और जब इस आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो वह .
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सत्य, सत्य न रह करके असत्य बन जाता है। वस्तुतत्त्व न केवल उतना ही है जितना कि हम इसे जान पा रहे हैं । मनुष्य की ऐन्द्रिक ज्ञान क्षमता एवं तर्क बुद्धि इतनी अपूर्ण है कि वह सम्पूर्ण सत्य को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती । साधारण मानव-बुद्धि पूर्ण सत्य को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती। अतः साधारण मानव पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं कर पाता है । जैन दृष्टि के अनुसार सत्य अज्ञेय तो नहीं है किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त किये उसे पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि "हम केवल सापेक्षिक सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई पूर्ण द्रष्टा ही जान सकेगा।' और ऐसी स्थिति में जबकि हमारा समस्त ज्ञान आंशिक, अपूर्ण तथा सापेक्षिक है, हमें यह दावा करने का कोई अधिकार नहीं है कि मेरी दृष्टि ही एकमात्र सत्य है और सत्य मेरे ही पास है। हमारा आंशिक, अपूर्ण और सापेक्षिक ज्ञान निरपेक्ष सत्यता का दावा नहीं कर सकता है। अतः ऐसे ज्ञान के लिए हमें ऐसी कथन पद्धति की योजना करनी होगी, जो कि दूसरों के अनुभूत सत्यों का निषेध नहीं करते हुए अपनी बात कह सके । हम अपने ज्ञान की सीमितता के कारण अन्य सम्भावनाओं (Possibilities) को निरस्त नहीं कर सकते हैं। क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष होता है ?
यद्यपि जैन दर्शन में यह माना गया है कि सर्वज्ञ या केवली सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष है। इस सन्दर्भ में जैन दार्शनिकों में भी मतभेद पाया जाता है। कुछ समकालीन जैन विचारक सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष मानते हैं जब कि दूसरे कुछ विचारकों के अनुसार सर्वज्ञ का ज्ञान भी सापेक्ष होता है। श्री दलसुखभाई मालवणिया ने ने “स्याद्वादमंजरी' की भूमिका में सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष सत्य बताया है। जबकि मुनि श्री नगराजजी ने "जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान" नामक पुस्तिका में यह माना है कि सर्वज्ञ का ज्ञान भी कहने भर को ही
1. “We can only know the relative truth, the real truth is known only to the Universal Observer."
-Quoted in Cosmology Old and New p. XII.
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( १२ ) निरपेक्ष है क्योंकि स्यादस्ति स्यान्नास्ति से परे वह भी नहीं है। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जहाँ तक सर्वज्ञ के वस्तु जगत के ज्ञान का प्रश्न है उसे निरपेक्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि उसके ज्ञान का विषय अनन्त धर्मात्मक वस्तु है । अतः सर्वज्ञ भी वस्तुतत्त्व के अनन्त गुणों को अनन्तअपेक्षाओं से ही जान सकता है। वस्तुगत ज्ञान या वैषयिक ज्ञान (Objective knowledge) कभी भी निरपेक्ष नहीं हो सकता, फिर चाहे वह सर्वज्ञ का ही क्यों न हो? इसीलिए जैन आचार्यों का कथन है कि दीप से लेकर व्योम तक वस्तु-मात्र स्याद्वाद की मुद्रा से अंकित हैं। किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि जहाँ तक सर्वज्ञ के आत्म-बोध का प्रश्न है वह निरपेक्ष हो सकता है क्योंकि वह विकल्प रहित होता है । सम्भवतः इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर आचार्य कुन्दकुन्द को यह कहना पड़ा था कि व्यवहार दृष्टि से सर्वज्ञ सभी द्रव्यों को जानता है किन्तु परमार्थतः तो वह आत्मा को ही जानता है। वस्तुस्थिति यह है कि सर्वज्ञ का आत्म-बोध तो निरपेक्ष होता है किन्तु उसका वस्तु-विषयक ज्ञान सापेक्ष होता है।
(व) भाषा की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य को सीमितता और सापेक्षता:
सर्वज्ञ या पूर्ण के लिए भी, जो सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, सत्य का निरपेक्ष कथन या अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। सम्पूर्ण सत्य को चाहे जाना जा सकता हो किन्तु कहा नहीं जा सकता। उसकी अभिव्यक्ति का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, तो वह सापेक्षिक बन जाता है । क्योंकि सर्वज्ञ को भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए उसी भाषा का सहारा लेना होता है, जो कि सीमित एवं अपूर्ण है। "है" और "नहीं है" की सीमा से घिरी हुई है। अतः भाषा पूर्ण सत्य को निरपेक्षतया अभिव्यक्त नहीं कर सकती है।
प्रथम तो वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है, जबकि मानवीय भाषा की शब्द संख्या सीमित है। जितने वस्तु-धर्म हैं, उतने शब्द नहीं हैं । अतः अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) रहेंगे ही। पुनः मानव की जितनी अनुभूतियाँ हैं, उन सबके लिए भी भाषा में पृथक-पृथक शब्द नहीं हैं । हम गुड़, शक्कर, आम आदि की मिठास को भाषा में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि सभी की मिठास के लिए अलग-अलग शब्द नहीं
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हैं। आचार्य नेमिचन्द्र 'गोम्मटसार' में लिखते हैं कि हमारे अनुभूत भावों का केवल अनन्तवाँ भाग ही कथनीय होता है और जितना कथनीय है, उसका भी एक अंश ही भाषा में निबद्ध करके लिखा जाता है (गोम्मटसार जीवकाण्ड ३३४)। चाहे निरपेक्ष ज्ञान को सम्भव भी मान लिया जाय, किन्तु निरपेक्ष कथन तो कदापि सम्भव नहीं है, क्योंकि जो कुछ भी कहा जाता है, वह किसी न किसी सन्दर्भ में (in a certain context) कहा जाता है और उस सन्दर्भ में ही उसे ठीक प्रकार से समझा जा सकता है अन्यथा भ्रान्ति होने की संभावना रहती है। इसीलिए जैन आचार्यों का कथन है कि जगत में जो कुछ भी कहा जा सकता है, वह सब किसी विवक्षा या नय से गभित होता है। जिन या सर्वज्ञ की वाणी भी अपेक्षा रहित नहीं होती है। वह सापेक्ष ही होती है। अतः वक्ता का कथन समझने के लिए भी अपेक्षा का विचार आवश्यक है। . .. पुनश्च जब वस्तुतत्व में अनेक विरुद्ध धर्म-युगल भी रहे हुए हैं, तो शब्दों द्वारा उनका एक साथ प्रतिपादन सम्भव नहीं है। उन्हें क्रमिक रूप में ही कहा जा सकता है। शब्द एक समय में एक ही धर्म को अभिव्यक्त कर सकता है। अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के समस्त धर्मों का एक साथ कथन भाषा की सीमा के बाहर है। अतः किसी भी कथन में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) ही रह जावेंगे और एक निरपेक्ष कथन अनुक्त धर्मों का निषेध करने के कारण असत्य हो जावेगा। हमारा कथन सत्य रहे और हमारे वचन व्यवहार से श्रोता को कोई भ्रान्ति न हो इसलिए सापेक्षिक कथन पद्धति ही समुचित हो सकती है। जैनाचार्यों ने स्यात् को सत्य का चिह्न' इसीलिए कहा है कि वह अपेक्षा पूर्वक कथन करके हमारे कथन को अविरोधी और सत्य बना देता है तथा श्रोता को कोई भ्रान्ति भी नहीं होने देता है। स्याद्वाद और अनेकान्त :
साधारणतया अनेकान्त और स्याद्वाद पर्यायवाची माने जाते हैं।' अनेक जैनाचार्यों ने इन्हें पर्यायवाची बताया भी है । किन्तु फिर भी दोनों में थोड़ा अन्तर है। अनेकान्त स्याद्वाद की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ का द्योतक है । जैनाचार्यों ने दोनों में व्यापक-व्याप्य भाव माना है । अनेकान्त १. स्याकारः सत्यलाञ्छनः । २. ततः स्याद्वाद अनेकांतवाद-स्याद्वादमंजरी ।
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व्यापक है और स्याद्वाद व्याप्य । अनेकान्त वाच्य है तो स्याद्वाद वाचक । अनेकान्त वस्तुस्वरूप है, तो स्याद्वाद उस अनेकान्तिक वस्तु स्वरूप के कथन की निर्दोष भाषा-पद्धति । अनेकान्त दर्शन है, तो स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का ढंग। विभज्जवाद और स्थाद्वाद : . विभज्जवाद स्याद्वाद का ही एक अन्य पर्यायवाची एवं पूर्ववर्ती है। सूत्रकृतांग में महावीर ने भिक्षुओं के लिए यह स्पष्ट निर्देश दिया कि वे विभज्जवाद की भाषा का प्रयोग करें।' इसी प्रकार भगवान बुद्ध ने भी मज्झिमनिकाय में स्पष्ट रूप से कहा था कि हे माणवक ! मैं विभज्जवादी हूँ, एकान्तवादी नहीं। विभज्जवाद वह सिद्धान्त है, जो प्रश्न को विभाजित करके उत्तर देता है । जब बुद्ध से यह पूछा गया कि गृहस्थ आराधक होता है या प्रवजित ? उन्होंने इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा कि गृहस्थ एवं त्यागी यदि मिथ्यावादी हैं तो आराधक नहीं हो सकते। किन्तु यदि दोनों ही सम्यक् आचरण करने वाले हैं तो दोनों ही आराधक हो सकते हैं। इसी प्रकार जब महावीर से जयंती ने यह पूछा कि सोना अच्छा है या जागना, तो उन्होंने कहा था कि कुछ जीवों को सोना अच्छा है और कुछ का जागना। पापी का सोना अच्छा है और धर्मात्माओं का जागना।' इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वक्ता को उसके प्रश्न का विश्लेषणपूर्वक उत्तर देना विभज्जवाद है। प्रश्नों के उत्तरों की यह विश्लेषणात्मक शैली विचारों को सुलझाने वाली तथा वस्तु के अनेक आयामों को स्पष्ट करने वाली है। इससे वक्ता का विश्लेषण एकांगी नहीं बनता है । बुद्ध और महावीर का यह विभज्जवाद ही आगे चलकर शून्यवाद और स्याद्वाद में विकसित हुआ है। शून्यवाद और स्याद्वाद:
भगवान् बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद इन दोनों को अस्वीकार १. भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा-सूत्रकृतांग-१।१।४।२२। २. मज्झिमनिकाय-सूत्र ९९ (उद्धृत, आगमयुग का जैन दर्शन, पृ० ५३) । ३. भगवतीसूत्र १२-२-४४३ । ४. देखिए-शून्यवाद और स्याद्वाद नामक लेख-पं० दलसुखभाई मालवणिया ।
--आचार्य आनन्द ऋषिजी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २६५
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किया और अपने मार्ग को मध्यम मार्ग कहा । जबकि भगवान महावीर ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद को अपेक्षाकृत रूप से स्वीकृत करके एक विधिमार्ग अपनाया। भगवान् बुद्ध की परम्परा में विकसित शून्यवाद और जैन परम्परा में विकसित स्याद्वाद दोनों का ही लक्ष्य एकान्तिक दार्शनिक विचारधाराओं की अस्वीकृति ही था। दोनों में फर्क इतना ही है कि जहां शून्यवाद एक निषेधप्रधान दृष्टि है वहीं स्याद्वाद में एक विधायक दृष्टि है। शून्यवाद जो बात संवृति सत्य और परमार्थ सत्य के रूप में कहता है, वही बात जैन दार्शनिक व्यवहार और निश्चय नय के आधार पर प्रतिपादित करता है। शून्यवाद और स्याद्वाद में मौलिक भेद अपने निष्कर्षों के सम्बन्ध में है। शून्यवाद अपने निष्कर्षों में निषेधात्मक है
और स्याद्वाद्व विधानात्मक है। शून्यवाद अपनी सम्पूर्ण तार्किक विवेचना में इस निष्कर्ष पर आता है कि वस्तुतत्त्व शाश्वत नहीं है, उच्छिन्न नहीं है, एक नहीं है, अनेक नहीं है, सत् नहीं है, असत् नहीं है। जबकि स्याद्वाद अपने निष्कर्षों को विधानात्मक रूप से प्रस्तुत करता है कि वस्तुशाश्वत भी है, अशाश्वत भी है, एक भी है, अनेक भी है, सत् भी है, असत् भी है । एकान्त में रहा हुआ दोष शून्यवादी और स्याद्वादी दोनों ही देखते हैं। इस एकान्त के दोष से बचने की तत्परता में शून्यवाद द्वारा प्रस्तुत शून्यता-शून्यता को धारणा और स्याद्वाद द्वारा प्रस्तुत अनेकान्त की अनेकान्तता की धारणा भी विशेष रूप से द्रष्टव्य है। किन्तु जहाँ शून्यवादी उस दोष के भय से एकान्त को अस्वीकार करता है, वहीं स्याद्वादी, उसके आगे स्यात् शब्द रखकर उस सदोष एकान्त को निर्दोष बना देता है । दोनों में यदि कोई मौलिक भेद है तो वह अपनी निषेधात्मक और विषेधात्मक दृष्टियों का ही है। शून्यवाद का वस्तुतत्त्व जहाँ चतुष्कोटिविनिर्मुक्त शून्य है, वहीं जैन दर्शन का वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। किन्तु शून्य और अनन्त का गणित तो एक ही है। इन दोनों की विभिन्नता तो उस दृष्टि का ही परिणाम है, जो कि वैचारिक आग्रहों से जनमानस को मुक्त करने के लिए बुद्ध और महावीर ने प्रस्तुत की थी। बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण का परिणाम शून्यवाद था तो महावीर के विधानात्मक दृष्टिकोण का परिणाम स्याद्वाद। इस सम्बन्ध में आदरणीय दलसुखभाई का लेख 'शून्यवाद और स्याद्वाद' विशेष रूप से द्रष्टव्य है।
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सप्तभंगी
सप्तभंगी स्याद्वाद की भाषायी अभिव्यक्ति के सामान्य विकल्पों को प्रस्तुत करती है। हमारी भाषा विधि-निषेध की सीमाओं से घिरी हुई है। "है" और "नहीं है" हमारे कथनों के दो प्रारूप हैं। किन्तु कभीकभी हम अपनी बात को स्पष्टतया "है" ( विधि ) और "नहीं है" ( निषेध ) की भाषा में प्रस्तुत करने में असमर्थ होते हैं । अर्थात् सीमित शब्दावली की यह भाषा हमारी अनुभूति को प्रगट करने में असमर्थ होती है। ऐसी स्थिति में हम एक तीसरे विकल्प "अवाच्य" या "अवक्तव्य" का सहारा लेते हैं, अर्थात् शब्दों के माध्यम से "है" और "नहीं है" की भाषायो सीमा में बाँध कर उसे कहा नहीं जा सकता है। इस प्रकार विधि, निषेध और अवक्तव्यता से जो सात प्रकार का वचन विन्यास बनता है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है।' सप्तभंगी में स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति और स्यात् अवक्तव्य ये तीन असंयोगी मौलिक भंग हैं। शेष चार भंग इन तीनों के संयोग से बनते हैं। उनमें स्यात् अस्ति-नास्ति, स्यात् अस्ति-अवक्तव्य और स्यात् नास्ति-अवक्तव्य ये तीन द्विसंयोगी और अन्तिम स्यात्-अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य, यह त्रिसंयोगी भंग है। निर्णयों की भाषायी अभिव्यक्ति विधि, निषेध और अवक्तव्य, इन तीन ही रूप में होती है। अतः उससे तीन ही मौलिक भंग बनते हैं और इन तीन मौलिक भंगों में से गणितशास्त्र के संयोग नियम (Law of Combination) के आधार पर सात भंग ही बनते हैं, न कम न अधिक । अष्टसहस्री टीका में आचार्य विद्यानन्दि ने इसीलिए यह कहा है कि जिज्ञासा और संशय और उनके समाधान सप्त प्रकार के ही हो सकते हैं । अतः जैन आचार्यों की सप्तभंगी की यह व्यवस्था निर्मूल नहीं है। वस्तुतत्त्व के अनन्त धर्मों में से प्रत्येक को लेकर एक-एक सप्तभंगी और इस प्रकार अनन्त सप्तभंगियाँ तो बनाई जा सकती हैं किन्तु अनन्तभंगी नहीं । श्वेताम्बर आगम भगवतीसूत्र में षट्प्रदेशी स्कन्ध के संबंध में जो २३ भंगों की
१. (अ) सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभंगीतीगीयते ।
-स्याद्वादमंज़री कारिका २३ की टीका । (ब) प्रश्नवशात् एकत्र वस्तुनि अविरोधेन विधि प्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी।
--राजवार्तिक १-६ ।
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( १७ ) योजना है, वह वचन भेद कृत संख्याओं के कारण है। उसमें भी मूल भंग सात ही हैं।' पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि प्राचीन दिगम्बर आगम ग्रन्थों में और शेष परवर्ती साहित्य में सप्तभंग ही मान्य रहे हैं। अतः विद्वानों को इन भ्रमों का निवारण कर लेना चाहिये कि ऐसे संयोगों से सप्तभंगी ही क्यों अनन्त भंगी भी हो सकती हैं अथवा आगमों में सात भंग नहीं हैं । सप्तभंगी भी एक परवर्ती विकास है।
सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक निर्णय प्रस्तुत करता है । सप्तभंगी में स्यात् अस्ति आदि जो सात भंग हैं, वे कथन के तार्किक आकार (Logical forms) मात्र हैं। उसमें स्यात् शब्द कथन की सापेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं नास्ति कथन के विधानात्मक (Affirmative) और निषेधात्मक (Negative) होने के सूचक हैं। कुछ जैन विद्वान अस्ति को सत्ता की भावात्मकता का और नास्ति को अभावात्मकता का सूचक मानते हैं किन्तु यह दृष्टिकोण जैन दर्शन को मान्य नहीं हो सकताउदाहरण के लिए जैन दर्शन में आत्मा भाव रूप है वह अभाव रूप नहीं हो सकता है। अतः हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति अपने आपमें कोई कथन नहीं है, अपितु कथन के तार्किक आकार हैं, वे कथन के प्रारूप हैं। उन प्रारूपों के लिए अपेक्षा तथा उद्देश्य और विधेय पदों का उल्लेख आवश्यक है। जैसे स्याद् अस्ति भंग का ठोस उदाहरण होगा-द्रव्य की अपेक्षा आत्मा नित्य है। यदि हम इसमें अपेक्षा (द्रव्यता) और विधेय (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्याद् आत्मा है, तो हमारा कथन भ्रम पूर्ण होगा। अपेक्षा और विधेय पद के उल्लेख के अभाव में सप्तभंगी के आधार पर किये गये कथन अनेक भ्रान्तियों को जन्म देते हैं, जिसका विशेष विवेचन हमने द्वितीय भंग की चर्चा के प्रसंग में किया है। आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक कथन है जिसे एक हेतुफलाश्रित वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। सप्तभंगी के प्रसंग में उत्पन्न भ्रान्तियों से बचने के लिए उसे निम्न सांकेतिक रूप में व्यक्त किया जा सकता है।
१. देखें-जैन दर्शन-डॉ. मोहनलाल मेहता पृ. ३००-३०७।
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( १८ ) सप्तभंगी के इस सांकेतिक प्रारूप के निर्माण में हमने चिह्नों का प्रयोग उनके सामने दर्शित अर्थों में किया है :चिह्न
अर्थ यदि-तो(हेतुफलाश्रित कथन) अपेक्षा (दृष्टिकोण) संयोजन (और) युगपत् (एकसाथ) अनन्तत्व व्याघातक उद्देश्य
विधेय भंगों के आगमिक रूप भंगों के सांकेतिक रूप ठोस उदाहरण स्यात् अस्ति अ', उवि है यदि द्रव्यकी अपेक्षासे विचार
करते हैं तो आल्मा नित्य है। स्यात् नास्ति अ' उवि नहीं है यदि पर्याय की अपेक्षा से
विचार करते हैं तो आत्मा
नित्य नहीं है।
(अउ वि है. यदि द्रव्य की अपेक्षा से स्यात् अस्ति नास्ति च )
अउ वि नहीं है विचार करते हैं तो आल्मा
नित्य है और यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते
हैं तो आत्मा नित्य नहीं है। ((अ' अ१)य उ
यदि द्रव्य और पर्याय दोनों स्यात् अवक्तव्य र अवक्तव्य है
ही अपेक्षा से एक साथ विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। (क्योंकि दो भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से दो अलग-अलग कथन हो सकते हैं किन्तु एक कथन नहीं हो सकता)।
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( १९ ) स्याद् अस्तिच (अउ वि है. अवक्तव्यच
(अ अ)य उ) -अवक्तव्य है
अथवा अ'- उ वि है. (अ)-उ
अवक्तव्य है स्याद् नास्तिच (अ उ वि नहीं है. अवक्तव्य च २(अ! अ2)य - उ
( अवक्तव्य है
यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है किन्तु यदि आत्मा की द्रव्य पर्याय दोनों या अनन्त अपेक्षाओं की दष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है।
यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है किन्तु यदि अनन्त अपेक्षा की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है।
अथवा (अ'-उ वि नहीं है.
(अ००)य- उ अवक्तव्य है
स्याद् अस्तिच, (अ उ वि है. यदि द्रव्य दृष्टि से विचार नास्ति च अउ वि नहीं है.
करते हैं तो आत्मा नित्य अवक्तव्यच ८(अ) उअवक्तव्य है
है और यदि पर्याय दृष्टि
से विचार करते हैं तो अथवा
आत्मा नित्य नहीं है किन्तु
यदि अपनी अनन्त अपे(अ'उ वि है. क्षाओं की दृष्टि से विचार
करते हैं तो आत्मा अवअउ वि नहीं है.
क्तव्य है।
(अ' 'अ)- उ अवक्तव्य है
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( २० ) सप्तभंगी के प्रस्तुत सांकेतिक रूप में हमने केवल दो अपेक्षाओं का उल्लेख किया है किन्तु जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव ऐसी चार अपेक्षाएँ मानी हैं, उसमें भी भाव-अपेक्षा व्यापक है उसमें वस्तु की अवस्थाओं (पर्यायों) एवं गुणों दोनों पर विचार किया जाता है। किन्तु यदि हम प्रत्येक अपेक्षा की संभावनाओं पर विचार करें तो ये अपेक्षाएँ भी अनन्त होंगी क्योंकि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। अपेक्षाओं की इन विविध सम्भावनाओं पर विस्तार से विचार किया जा सकता है किन्तु इस छोटे से लेख में यह सम्भव नहीं है।
इस सप्तभंगी का प्रथम भंग "स्यात् अस्ति" है। यह स्वचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक धर्म या धर्मों का विधान करता है। जैसे अपने द्रव्य की अपेक्षा से यह घड़ा मिट्टी का है, क्षेत्र की अपेक्षा से इन्दौर नगर में बना हुआ है, काल की अपेक्षा से शिशिर ऋतु का बना हुआ है, भाव अर्थात् वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का है या घटाकार है आदि। इस प्रकार वस्तु के स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से उसके भावात्मक गुणों का विधान करना यह प्रथम 'अस्ति' नामक भंग का कार्य है। दूसरा स्यात्, "नास्ति" नामक भंग वस्तुतत्त्व के अभावात्मक धर्म या धर्मों की अनुपस्थिति या नास्तित्व की सूचना देता है। वह यह बताता है कि वस्तु में स्व से भिन्न पर-चतुष्टय का अभाव है। जैसे यह घड़ा ताम्बे का नहीं है, भोपाल नगर से बना हुआ नहीं है, ग्रीष्म ऋतु का बना हुआ नहीं है, कृष्ण वर्ण का नहीं है आदि । मात्र इतना ही नहीं यह भंग इस बात को भी स्पष्ट करता है कि घड़ा, पुस्तक, टेबल, कलम, मनुष्य आदि नहीं है। जहाँ प्रथम भंग यह कहता है कि घड़ा घड़ा ही है, वहाँ दूसरा भंग यह बताता है कि घड़ा, घट इतर अन्य कुछ नहीं है। कहा गया है कि “सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च" अर्थात् सभी वस्तुओं की सत्ता स्वरूप से है पररूप से नहीं। यदि वस्तु में अन्य वस्तुओं के गुण धर्मों की सत्ता भी मान ली जायेगी तो फिर वस्तुओं का पारस्परिक भेद ही समाप्त हो जावेगा और वस्तु का स्व-स्वरूप ही नहीं रह जावेगा, अतः वस्तु में पर-चतुष्टय का निषेध करना द्वितीय भंग है। प्रथम भंग बताता है कि वस्तु क्या है, जबकि दूसरा भंग यह बताता है कि वस्तु क्या नहीं है। सामान्यतया इस द्वितीय भंग को "स्यात् नास्ति घटः" अर्थात् किसी अपेक्षा से घड़ा नहीं है, इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है,
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किन्तु इसके प्रस्तुतीकरण का यह ढंग थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है, स्थूल दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि प्रथम भंग में घट के अस्तित्व का जो विधान किया गया था, उसी का द्वितीय भंग में निषेध कर दिया गया है
और ऐसी स्थिति में स्याद्वाद को सन्देहवाद या आत्मा विरोधी कथन करने वाला सिद्धान्त समझ लेने की भ्रान्ति हो जाना स्वाभाविक है। शंकर प्रभृति विद्वानों ने स्याद्वाद की जो आलोचना की थी, उसका मुख्य आधार यही भ्रान्ति है। 'स्यात् अस्ति घट:' और 'स्यात् नास्ति घटः' में जब स्यात् शब्द को दृष्टि से ओझल कर या उसे सम्भावना के अर्थ में ग्रहण कर 'अस्ति' और 'नास्ति' पर बल दिया जाता है तो आत्म-विरोध का आभास होने लगता है। जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ स्याद्वाद का प्रतिपादन करने वाले किसी आचार्य की दृष्टि में द्वितीय भंग का कार्य प्रथम भंग में स्थापित किये गये गुणधर्म का उसी अपेक्षा से निषेध करना नहीं है, अपितु या तो प्रथम भंग में अस्ति रूप माने गये गुण धर्म से इतर गुण धर्मों का निषेध करना है अथवा फिर अपेक्षा को बदल कर उसी गुण धर्म का निषेध करना होता है और इस प्रकार द्वितीय भंग प्रथम भंग के कथन को पूष्ट करता है, खण्डित नहीं। यदि द्वितीय भंग के कथन को उसी अपेक्षा से प्रथम भंग का निषेधक या विरोधी मान लिया जावेगा तो निश्चय यह सिद्धान्त संशयवाद या आत्म विरोध के दोषों से ग्रसित हो जावेगा, किन्तु ऐसा नहीं है। यदि प्रथम भंग में 'स्यादस्त्येव घटः' का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा है और द्वितीय भंग में "स्यान्नास्त्येव घटः" का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा नहीं है ऐसा करेंगे तो आभासी रूप से ऐसा लगेगा कि दोनों कथन विरोधी हैं। क्योंकि इन कथनों के भाषायी स्वरूप से ऐसा आभास होता है कि इन कथनों में घट के अस्तित्व और नास्तित्व को ही सूचित किया गया है। जबकि जैन आचार्यों की दृष्टि में इन कथनों का बल उनमें प्रयुक्त “स्यात्" शब्द में ही है, वे यह नहीं मानते हैं कि द्वितीय भंग प्रथम भंग में स्थापित सत्य का प्रतिषेध करता है । दोनों भंगों में घट के सम्बन्ध में जिनका विधान या निषेध किया गया है वे अपेक्षाश्रित धर्म हैं न कि घट का स्वयं का अस्तित्व या नास्तित्व । पुनः दोनों भंगों के "अपेक्षाश्रित धर्म" एक नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम भंग में जिन अपेक्षाश्रित धर्मों का निषेध हुआ है, वे दूसरे अर्थात् पर-चतुष्टय के हैं। अतः प्रथम भंग के विधान और द्वितीय भंग के निषेध में कोई आत्म
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विरोध नहीं है । मेरी दृष्टि में इस भ्रान्ति का मूल कारण प्रस्तुत वाक्य में उस विधेय पद ( Predicate ) के स्पष्ट उल्लेख का अभाव है, जिसका कि विधान या निषेध किया जाता है । यदि "नास्ति" पद को विधेय स्थानीय माना जाता है तो पुनः यहाँ यह भी प्रश्न उठ सकता है कि जो घट अस्ति रूप है, वह नास्ति रूप कैसे हो सकता है ? यदि यह कहा जावे कि पर द्रव्यादि की अपेक्षा से घट नहीं है, किन्तु पर द्रव्यादि घट के अस्तित्व के निषेधक कैसे बन सकते हैं ?
यद्यपि यहाँ पूर्वाचार्यों का मन्तव्य स्पष्ट है कि वे घट का नहीं, अपितु घट में परद्रव्यादि का भी निषेध करना चाहते हैं । वे कहना यह चाहते हैं कि घट पट नहीं है या घट में पट आदि के धर्म नहीं हैं, किन्तु स्मरण रखना होगा कि इस कथन में प्रथम और द्वितीय भंग में अपेक्षा नहीं बदली है । यदि प्रथम भंग से यह कहा जावे कि घड़ा मिट्टी का है और दूसरे भंग में यह कहा जावे कि घड़ा पीतल का नहीं है तो दोनों में अपेक्षा एक ही है अर्थात् दोनों कथन द्रव्य की या उपादान की अपेक्षा से हैं । अब दूसरा उदाहरण लें । किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य है, किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य नहीं है, यहाँ दोनों भंगों में अपेक्षा बदल जाती है । यहाँ प्रथम भंग में द्रव्य की अपेक्षा से घड़े को नित्य कहा गया और दूसरे भंग में पर्याय की अपेक्षा से घड़े को नित्य नहीं कहा गया है । द्वितीय भंग के प्रतिपादन के ये दोनों रूप भिन्न-भिन्न हैं । दूसरे यह कहना कि परचतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं है या पट की अपेक्षा घट नहीं है, भाषा की दृष्टि से थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है क्योंकि परचतुष्टय वस्तु की सत्ताका निषेधक नहीं हो सकता है । वस्तु में परचतुष्टय अर्थात् स्व-भिन्न पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का अभाव तो होता है किन्तु उनकी अपेक्षा वस्तु का अभाव नहीं होता है । क्या यह कहना कि कुर्सी की अपेक्षा टेबल नहीं है या पीतल की अपेक्षा यह घड़ा नहीं है, भाषा के अभ्रान्त प्रयोग हैं ? इस कथन में जैनाचार्यों का आशय तो यही है कि टेबल कुर्सी नहीं है या घड़ा पीतल का नहीं है । अतः परचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु नहीं है, यह कहने की अपेक्षा यह कहना कि वस्तु में परचतुष्टय का अभाव है, भाषा का सम्यक् प्रयोग होगा । विद्वानों से मेरी विनती है कि वे सप्तभंगी के विशेष रूप से द्वितीय एवं तृतीय भंग के भाषा के स्वरूप पर और स्वयं उनके आकारिक स्वरूप पर पुनर्विचार करें और आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में
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( २३ )
उसे पुनर्गठित करें तो जैन न्याय के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि द्वितीय एवं तृतीय भंगों की कथन विधि के विविध रूप परिलक्षित होते हैं । अतः यहाँ द्वितीय भंग के विविध स्वरूपों पर थोड़ा विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा । मेरी दृष्टि में द्वितीय भंग के निम्न चार रूप हो सकते हैं :
सांकेतिक रूप
(1) प्रथम भंग - अ 1 द्वितीय भंग - अ ' -
(2) प्रथम भंग - अ' द्वितीय भंग - अ
כ
D
उवि है उ नहीं है
उवि है ऊ~वि है
(3) प्रथम भंग - अ ' - उवि है द्वितीय भंग - अ '
उ~वि नही
उदाहरण
(1) प्रथम भंग में जिस धर्मं ( विधेय) का विधान किया गया है। अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंगमें उसी धर्म ( विधेय ) का निषेध कर देना । जैसे : द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है । पर्यायदृष्टि से घड़ा नित्य नहीं है ।
(2) प्रथम भंग में जिस धर्म का विधान किया गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म का प्रतिपादन कर देना है । जैसे- द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है पर्यायदृष्टि से घड़ा अनित्य है ।
(3) प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म को पुष्ट करने हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध कर देना ।
है
जैसे - रंग की दृष्टि से यह कमीज नीली है ।
रंग की दृष्टि से यह कमीज पीली नहीं है ।
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अथवा अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में चेतन है। अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा अचेतन नहीं है। अथवा उपादान की दृष्टि से यह घड़ा मिट्टी का है। उपादान की दष्टि से यह
घड़ा स्वर्ण का नहीं है। (4) प्रथम भंग-अ उ है (4) जब प्रतिपादित कथन देश या द्वितीय भंग-अ उ नहीं है काल या दोनों के सम्बन्ध में हो
तब देश-काल आदि की अपेक्षा को बदलकर प्रथम भंग में प्रतिपादित कथन का निषेध कर देना। जैसे-27 नवम्बर को अपेक्षा से
मैं यहाँ पर हैं। 20 नवम्बर की अपेक्षा से
मैं यहाँ पर नहीं था। द्वितीय भंग के उपरोक्त चारों रूपों में प्रथम और द्वितीय रूप में बहुत अधिक मौलिक भेद नहीं है। अन्तर इतना ही है कि जहाँ प्रथम रूप में एक ही धर्म का प्रथम भंग में विधान और दसरे भंग में निषेध होता है, वहाँ दूसरे रूप में दोनों भंगों में अलग-अलग रूप में दो विरुद्ध धर्मों का विधान होता है। प्रथम रूप की आवश्यकता तब होती है जब वस्तु में एक ही गुण अपेक्षा भेद से कभी उपस्थित रहे और कभी उपस्थित नहीं रहे । इस रूप के लिए वस्तु में दो विरुद्ध धर्मों के युगल का होना जरूरी नहीं है, जबकि दूसरे रूप का प्रस्तुतीकरण केवल उसी स्थिति में सम्भव होता है, जबकि वस्तु में धर्म विरुद्ध युगल हो। तीसरा रूप तब बनता है, जबकि
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( २५ ) उस वस्तु में प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध धर्म की उपस्थिति हो न हो। चतुर्थ रूप की आवश्यकता तब होती है, जब कि हमारे प्रतिपादन में विधेय का स्पष्ट रूप से उल्लेख न हो । द्वितीय भंग के पूर्वोक्त रूपों में प्रथम रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्म (विधेय) वही रहता है और क्रिया पद निषेधात्मक होता है। द्वितीय रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध धर्म (विधेय का व्याघातक पद) होता है और क्रियापद विधानात्मक होता है। तृतीय रूप से अपेक्षा वही रहती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध या विपरीत पद रखा जाता है और क्रियापद निषेधात्मक होता है तथा अन्तिम चतुर्थ रूप में अपेक्षा बदलती है और प्रतिपादित कथन का निषेध कर दिया जाता है।
सप्तभंगी का तीसरा मौलिक भंग अवक्तव्य है अतः यह विचारणीय है कि इस भंग की योजना का उद्देश्य क्या है ? सामान्यतया यह माना जाता है कि वस्तु में एक ही समय में रहते हुए सत्-असत्, नित्य अनित्य आदि विरुद्ध धर्मों का युगपत् अर्थात् एक साथ प्रतिपादन करने वाला कोई शब्द नहीं है। अतः विरुद्ध धर्मों की एक साथ अभिव्यक्ति की शाब्दिक असमर्थता के कारण अवक्तव्य भंग की योजना की गई है, किन्तु अवक्तव्य का यह अर्थ उसका एकमात्र अर्थ नहीं है। यदि हम अवक्तव्य शब्द पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हैं तो उसके अर्थ में एक विकास देखा जाता है। डॉ० पद्मराजे ने अवक्तव्य के अर्थ के विकास की दृष्टि से चार अवस्थाओं का निर्देश किया है(१) पहला वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण, जिसमें विश्व कारण की
खोज करते हुए ऋषि उस कारण तत्त्व को न सत् और न असत् . कहकर विवेचित करता है, यहाँ दोनों पक्षों का निषेध है। (२) दूसरा औपनिषदिक विधानात्मक दृष्टिकोण, जिसमें सत्, असत् आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है। जैसे-“तदेजति तन्नेजति" अणोरणीयान् महतो महीयान आदि। यहाँ दोनों पक्षों की स्वीकृति
है।
(३) तीसरा दृष्टिकोण जिसमें तत्त्व को स्वरूपतः अव्यपदेश्य या
अनिर्वचनीय माना गया है, यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही मिलता है उसे “यतो वाचो निवर्तन्ते", यद्वाचानभ्युदितं, नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्योः आदि । बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद
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( २६ ) की चतुष्कोटि विनिर्मुक्त तत्त्व की धारणा में भी बहुत कुछ इसी
दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता है। (४) चौथा दृष्टिकोण जैन न्याय में सापेक्षिक अवक्तव्यता या सापेक्षिक
अनिर्वचनीयता के रूप में विकसित हुआ है। सामान्यतया अवक्तव्य के निम्न अर्थ हो सकते हैं(१) सत् व असत् दोनों का निषेध करना । (२) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना। (३) सत्, असत्, सत्-असत् (उभय) और न सत् न असत् (अनुभय) चारों
का निषेध करना। (४) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से ही अवक्तव्य मानना, अर्थात् यह कि वस्तु
तत्त्व अनुभव में तो आ सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता। (५) सत् और असत् दोनों को युगपत् रूप से स्वीकार करना, किन्तु उसके
कथन के लिए कोई शब्द न होने के कारण अवक्तव्य कहना । (६) वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या
अनन्त है किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए उसमें जितने धर्म हैं, उतने वाचक शब्द नहीं हैं। अतः वाचक शब्दों के अभाव के कारण उसे अंशतः वाच्य और अंशतः अवाच्य मानना ।
यहाँ यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है कि जैन विचार परम्परा में इस अवक्तव्यता के कौन से अर्थ मान्य रहे हैं। सामान्यतया जैन परम्परा में अवक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं रहे हैं। उसका मान्य अर्थ यही है कि सत् और असत् दोनों का युगपत् विवेचन नहीं किया जा सकता है इसलिए वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है; किन्तु यदि हम प्राचीन जैन आगमों को देखें तो अवक्तव्यता का यह अर्थ अन्तिम नहीं कहा जा सकता। आचारांगसूत्र में आत्मा के स्वरूप को जिस रूप में वचनागोचर कहा गया है वह विचारणीय है। वहाँ कहा गया है कि "आत्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का विषय नहीं है । वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। वहाँ वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं है, (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं
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समझाया जा सकता है क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है, अरूपी सत्तावान है । उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके ।" इसे देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी का माध्यम नहीं बनाया जा सकता है । पुनः वस्तुतत्त्व की अनन्त धर्मात्मकता और शब्दसंख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तुतत्त्व को अवक्तव्य माना गया है । आचार्य नेमीचन्द्र ने गोम्मटसार में अनभिलाप्य भाव का उल्लेख किया है । वे लिखते हैं कि अनुभव में आये अवक्तव्य भावों का अनन्तवाँ भाग ही कथन किया जाने योग्य है । अतः यह मान लेना उचित नहीं है कि जैन परम्परा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ मान्य है ।
इस प्रकार जैन दर्शन में अवक्तव्यता के चौथे, पाँचवें और छठें अर्थ मान्य रहे हैं । फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष अव्यक्तव्यता और निरपेक्ष अवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्यता को स्वीकार करती है, निरपेक्ष को नहीं । वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व पूर्णतया वक्तव्य तो नहीं है किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य भी नहीं है । यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवक्तव्य अर्थात् अनिर्वचनीय मान लेंगे तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान-प्रदान का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा । अतः जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह निर्वचनीय भी है । सत्ता अंशतः निर्वचनीय है और अंशतः अनिर्वचनीय | क्योंकि यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल है । इस प्रकार पूर्व निर्दिष्ट पाँच अर्थों में से पहले दो को छोड़कर अन्तिम तीनों को मानने में उसे कोई बाधा नहीं आती है । मेरी दृष्टि में अवक्तव्य भंग का भी एक ही रूप नहीं है, प्रथम तो "है" और "नही है" ऐसे विधि
१. सव्वे सरा नियति, तक्का जत्थ न विज्जइ
मई तत्थ न गहिया उवमा न विज्जई
अपयस्य पयं नत्थि । आचारांग १-५-१७१
२. पण्णवणिज्जा भावा अनंतभांगो दु अणमिलप्पानं ।
पण वणिज्जाणं पुण अनंतभागो सुदनिबद्धो || गोम्मटसार, जीव ३३४ ॥
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प्रतिषेध का युगपद् ( एक ही साथ ) प्रतिपादन सम्भव नहीं है, अतः अवक्तव्य भंग की योजना है। दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व का कथन सम्भव नहीं है, अतः वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है। तीसरे अपेक्षाएँ अनन्त हो सकती हैं किन्तु अनन्त अपेक्षाओं से युगपद् रूप में वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन संभव नहीं है इसलिए भी उसे अवक्तव्य मानना होगा। इसके निम्न तीन प्रारूप हैं
(1) (अ'. अ') - उ अवक्तव्य है, (2) ~अ उ अवक्तव्य है,
य (3) (अ) - उ अवक्तव्य है।
सप्तभंगी के शेष चारों भंग सायोगिक हैं। विचार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की दृष्टि से इनका महत्त्व तो अवश्य है किन्तु इनका अपना कोई स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं है, ये अपने संयोगी मूलभंगों की अपेक्षा को दृष्टिगत रखते हुए ही वस्तुस्वरूप का स्पष्टीकरण करते हैं। अतः इन पर यहाँ विस्तृत विचार अपेक्षित नहीं है।
सप्तभंगी और त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र :
वर्तमान युग में पाश्चात्य तर्कशास्त्र के विचारकों में ल्युसाइविक ने एक नयी दृष्टि दी है, उसके अनुसार तार्किक निर्णयों में केवल सत्य, असत्य ऐसे दो मूल्य ही नहीं होते, अपितु सत्य, असत्य और सम्भावित सत्य ऐसे तीन मूल्य होते हैं। इसी संदर्भ में डॉ० एस० एस० बारलिगे ने जैन न्याय को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयास जयपुर की एक गोष्ठी में किया था। यद्यपि जहाँ तक जैनन्याय या स्याद्वाद के सिद्धांत का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक माना जा सकता हैं क्योंकि जैन न्याय में प्रमाण, सुनय और दुर्नय ऐसे तीन क्षेत्र माने गये हैं, इसमें प्रमाण सुनिश्चित सत्य, सुनय सम्भावितसत्य और दुर्नय असत्यता के परिचायक हैं। पुनः जैन दार्शनिकों ने प्रमाणवाक्य और नयवाक्य ऐसे दो प्रकार के वाक्य मानकर प्रमाणवाक्य को सकलादेश ( सुनिश्चित सत्य या पूर्ण सत्य ) और नयवाक्य को विकलादेश (सम्भावित सत्य या आंशिक सत्य) कहा है। नयवाक्य को न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य । अतः सत्य
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और असत्य के मध्य एक तीसरी कोटि आंशिक सत्य या सम्भावित सत्य मानी जा सकती है । पुनः वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता एवं स्याद्वाद सिद्धांत भी सम्भावित सत्यता के समर्थक हैं क्योंकि वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता अन्य सम्भावनाओं को निरस्त नहीं करती है और स्याद्वाद उस कथित सत्यता के अतिरिक्त अन्य सम्भावित सत्यताओं को स्वीकार करता है ।
इस प्रकार जैन दर्शन की वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता तथा प्रमाण, नय और दुर्नय की धारणाओं के आधार पर स्याद्वाद सिद्धांत त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र ( Three valued logic) या बहुमूल्यात्मक तर्कशास्त्र (Many valued logic) का समर्थक माना जा सकता है किन्तु जहां तक सप्तभंगी का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें नास्ति नामक भंग एवं अवक्तव्य नामक भंग क्रमशः असत्य एवं अनियतता (Indeterminate) के सूचक नहीं हैं । सप्तभंगी का प्रत्येक भंग सत्य - मूल्य का सूचक है यद्यपि जैन विचारकों ने प्रमाण - सप्तभंगी और नय - सप्तभंगी के रूप में सप्तभंगी के जो दो रूप माने हैं, उसके आधार पर यहाँ कहा जा सकता है कि प्रमाण - सप्तभंगी के सभी भंग सुनिश्चित सत्यता और नय सप्तभंगी के सभी भंग सम्भावित या आंशिक सत्यता का प्रतिपादन करते हैं । असत्य का सूचक तो केवल दुर्नय ही है । अतः सप्तभंगी त्रिमूल्यात्मक नहीं है ।
किन्तु मेरे शिष्य डॉ भिखारी राम यादव ने अपने प्रस्तुत शोध निबन्ध में अत्यन्त श्रमपूर्वक सप्तभंगी को सप्तमूल्यात्मक सिद्ध किया है और अपने पक्ष के समर्थन में समकालीन पाश्चात्य तर्कशास्त्र से प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं। आशा है विद्वज्जन उनके इस प्रयास का सम्यक् मूल्यांकन करेंगे । आज मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि कि मेरे ही शिष्य ने चिन्तन के क्षेत्र में मुझसे एक कदम आगे रखा है । हम गुरु-शिष्य में कौन सत्य है या असत्य है यह विवाद हो सकता है यह निर्णय तो पाठकों को करना है; किन्तु अनेकान्त शैली में अपेक्षाभेद से दोनों भी सत्य हो सकते है । वैसे शास्त्रकारों ने कहा है कि शिष्य से पराजय गुरु के लिए परम आनन्द का विषय होता है क्योंकि वह उसके जीवन की सार्थकता का अवसर है ।
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- एक समन्वयात्मक दृष्टि का विकास :
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स्याद्वाद का लक्ष्य
(अ) दार्शनिक विचारों के समन्वय को आधार स्याद्वाद : भगवान् महावीर और बुद्ध के समय भारत में वैचारिक संघर्ष और दार्शनिक विवाद अपने चरम सीमा पर था । जैन आगमों के अनुसार उस समय ३६३ और बौद्ध आगमों के अनुसार ६२ दार्शनिक मत प्रचलित थे । वचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता थी, जो लोगों को आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए दिशा निर्देश दे सके । भगवान् बुद्ध ने इस आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए विवाद पराङ्मुखता को अपनाया । सुत्तनिपात में वे कहते है कि मैं विवाद के दो फल बताता हूँ । एक तो वह अपूर्ण व एकांगी होता है और दूसरे कलह एवं अशान्ति का कारण होता है । अतः निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न पड़े ।' बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित सभा पर विरोधी दार्शनिक दृष्टिकोणों को सदोष बताया और इस प्रकार अपने को किसी भी दार्शनिक मान्यता के साथ नहीं बाँधा । वे कहते है कि पंडित किसी दृष्टि या वाद में नहीं पड़ता । बुद्ध की दृष्टि में दार्शनिक वादविवाद निर्वाण मार्ग के साधक के कार्य नहीं हैं । अनासक्त मुक्त पुरुष के पास विवाद रूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। इसी प्रकार भगवान् महावीर ने भी आग्रह को साधना का सम्यक् पथ नहीं समझा। उन्होंने भी कहा कि आग्रह, मतान्धता या एकांगी दृष्टि उचित नहीं है जो व्यक्ति अपने मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करने में ही पांडित्य दिखाते हैं, वे संसार चक्र में घूमते रहते हैं । इस प्रकार भगवान् महावीर व बुद्ध दोनों ही उस युग की आग्रह वृत्ति एवं मतान्धता से जन मानस को मुक्त करना चाहते थे फिर भी बुद्ध और महावीर की दृष्टि में थोड़ा अन्तर था । जहाँ
१. सुत्तनिपात ५१-२१.
२. सुत्तनिपात ५१-३.
३. सुत्तनिपात्त ४६-८-९.
४.
सयं सयं पसंसंता गरहन्ता परं वयं ।
जे उतत्थ विउस्सयन्ति संसारेते विउस्सिया - सूत्रकृतांग १-१-२-२३ ।
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( ३१ )
बुद्ध इन विवादों से बचने की सलाह दे रहे थे, वहीं महावीर इनके समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत कर रहे थे, जिसका परिणाम स्याद्वाद है ।
स्याद्वाद विविध दार्शनिक एकान्तवादों में समन्वय करने का प्रयास करता है । उसकी दृष्टि में नित्यवाद, द्वैतवाद - अद्वैतवाद, भेदवाद - अभेदवाद आदि सभी वस्तु स्वरूप के आंशिक पक्षों को स्पष्ट करते हैं । इनमें से कोई भी असत्य तो नहीं है किन्तु पूर्ण सत्य भी नहीं है । यदि इनका कोई असत्य बनाता है तो वह आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लेने का उनका आग्रह ही है । स्याद्वाद अपेक्षा भेद में इन सभी के बीच समन्वय करने का प्रयास करता है और यह बताता है कि सत्य तभी असत्य बन जाता है, जबकि हम आग्रही दृष्टि से उसे देखते हैं । यदि हमारी दृष्टि अपने को आग्रह के ऊपर उठाकर देखे तो हमें सत्य का दर्शन हो सकता है । सत्य का सच्चा प्रकाश केवल अनाग्रही को ही मिल सकता है । महावीर के प्रथम शिष्य गौतम का जीवन स्वयं इसका एक प्रत्यक्ष साक्ष्य है । गौतम के केवल ज्ञान में आखिर कौन सा तत्त्व बाधक बन रहा था । महावीर ने स्वयं इसका समाधान करते हुए गौतम से कहा था- हे
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सत्य दर्शन ) सम्पूर्ण दर्शन
गौतम मेरा तेरे प्रति जो ममत्व है यही तेरे केवल ज्ञान का बाधक है । महावीर की स्पष्ट घोषणा थी कि सत्य का आग्रह के घेरे में रहकर नहीं किया सकता । आग्रह बुद्धि या दृष्टि राग सत्य को असत्य बना देता है । सत्य का प्रगटन आग्रह में नहीं, अनाग्रह में होता है, विरोध में नहीं, समन्वय में होता है । सत्य का साधक अनाग्रही और वीतराग होता है, उपाध्याय यशोविजयजी स्याद्वाद की इसी अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि को स्पष्ट करते हुए अध्यात्मसार में लिखते हैं
यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव, तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकेशुसवो । तेन स्याद्वाद्वमालव्य सर्वदर्शन तुल्यता । मोक्षोदेश विशेषणा यः पश्यति सः शास्त्रवित् ॥ मध्यस्थमेव शास्त्रार्थो ये तच्चारु सिद्धयति । स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिश वल्गनम् ॥
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( ३२ ) माध्यस्थ सहितं ह्येक पदज्ञानमपि प्रभा। शास्त्रकोटि वृथैवान्या तथा चौबल महात्मना ।
-अध्यात्मसार, ६९-७३ सच्चा अनेकान्तवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोण (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्र को, क्योंकि अनेकान्तवादी को न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती। सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी तो वही है, जो स्याद्वाद का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव रखता है। वास्तव में माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद माध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है। माध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के पद का ज्ञान भी सफल है अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है। क्योंकि जहाँ आग्रह बुद्धि होती है वहाँ विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन संभव नहीं होता। वस्तुतः शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, अभेदवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद, हेतुवाद, अहेतुवाद, नियतिवाद, पुरुषार्थवाद, आदि जितने भी दार्शनिक मत-मतान्तर हैं, वे सभी परम सत्ता के विभिन्न पहलुओं से लिये गये चित्र हैं और आपेक्षिक रूप से सत्य हैं द्रव्य दृष्टि और पर्याय दृष्टि के आधार पर इन विरोधी सिद्धान्तों में समन्वय किया जा सकता है। अतः एक सच्चा स्याद्वादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है, वह सभी दर्शनों का आराधक होता है । परमयोगी आनन्दघनजी लिखते हैं
षट् दरसण जिन अंग मणी जे, न्याय षडंग जो साधे रे। नमि जिनवरना चरण उपासक, षटदर्शन आराधे रे ।। १ ॥ जिन सुर पादप पाय बखाणुं, सांख्य जोग दोय भेदे रे । आतम सत्ता विवरण करता, लही दुय अंग असेदे रे ॥२ ।। भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनपर दोय कर भारी रे । लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुगमथी अवधारी रे ॥ ३ ॥ लोकायतिक सुख कूख जिनवरकी, अंश विचार जो कीजे । तत्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पीजे ॥ ४॥ जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे। अक्षर न्यास धरा आराधक, आराधे धरी संगे रे ॥ ५ ॥
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( ३३ )
(ब) राजनैतिक क्षेत्र में स्याद्वाद के सिद्धांत का उपयोग :
अनेकान्त का सिद्धान्त न केवल दार्शनिक अपितु राजनैतिक विवाद भी हल करता है। आज का राजनैतिक जगत भी वैचारिक संकुलता से परिपूर्ण है। पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, फासीवाद, नाजीवाद आज अनेक राजनैतिक विचारधाराएँ तथा राजतन्त्र, कुलतन्त्र, अधिनायक तन्त्र, आदि अनेकानेक शासन प्रणालियां वर्तमान में प्रचलित हैं। मात्र इतना ही नहीं उनमें से प्रत्येक एक दूसरे की समाप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं। विश्व के राष्ट्र खेमों में बंटे हुए हैं और प्रत्येक खेमे का अग्रणी राष्ट्र अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने हेतु दूसरे के विनाश में तत्पर है। मुख्य बात यह है कि आज का राजनैतिक संघर्ष आर्थिक हितों का संघर्ष न होकर वैचारिकता का संघर्ष है। आज अमेरिका और रूस अपनी वैचारिक प्रभुसत्ता के प्रभाव को बढ़ाने के लिये ही प्रतिस्पर्धा में लगे हुए हैं। एक दूसरे को नाम-शेष करने की उनको यह महत्वाकांक्षा कहीं मानव जाति को ही नाम शेष न कर दे।
आज के राजनैतिक जीवन में स्याद्वाद के दो व्यावहारिक फलित वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय अत्यन्त उपादेय हैं। मानव जाति ने राजनैतिक जगत में, राजतन्त्र से प्रजातन्त्र तक की जो लम्बी यात्रा तय की है उसकी सार्थकता स्याद्वाद दृष्टि को अपनाने में ही है। विरोधी पक्ष द्वारा को जाने वाली आलोचना के प्रति सहिष्णु होकर उसके द्वारा अपने दोषों को समझना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना, आज के राजनैतिक जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। विपक्ष की धारणाओं में भी सत्यता हो सकती है और सबल विरोधी दल की उपस्थिति से हमें अपने दोषों के निराकरण का अच्छा अवसर मिलता है, इस विचार-दृष्टि और सहिष्णु भावना में ही प्रजातन्त्र का भविष्य उज्जवल रह सकता है। राजनैतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र ( पार्लियामेन्टरी डेमोक्रेसी ) वस्तुतः राजनैतिक स्याद्वाद है। इस परम्परा में बहुमत दल द्वारा गठित सरकार अल्पमत दल को अपने विचार प्रस्तुत करने का अधिकार मान्य करती है और यथा सम्भव उससे लाभ भी उठाती है। दार्शनिक क्षेत्र में जहाँ भारत स्याद्वाद का सर्जक है, वहीं वह राजनैतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र का समर्थक भी है। अतः आज स्याद्वाद सिद्धान्त को व्यावहारिक
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( ३४ ) क्षेत्र में उपयोग करने का दायित्व भारतीय राजनीतिज्ञों पर है। इसी प्रकार हमें यह भी समझना है कि राज्य-व्यवस्था का मूल लक्ष्य जनकल्याण है। अतः जन कल्याण को दृष्टि में रखते हुए विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं के मध्य एक सांग संतुलन स्थापित करना है । आवश्यकता सैद्धांतिक विवादों की नहीं अपितु जनहित से संरक्षण एवं मानव की पाशविक वृत्तियों के नियन्त्रण की है। "
(स) अनेकांत धार्मिक सहिष्णुता के क्षेत्र में :
सभी धर्म साधना पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य राग, आसक्ति, अहं एवं तृष्णा की समाप्ति रहा है। जैन धर्म की साधना का लक्ष्य वीतरागता है, तो बौद्ध धर्म की साधना लक्ष्य वीततृष्ण होना माना गया है । वही वेदान्त में अहं और आसक्ति से ऊपर उठना ही मानव का साध्य बताया गया है। लेकिन क्या एकांत या आग्रह वैचारिक राग, वैचारिक आसक्ति, वैचारिक तृष्णा अथवा वैचारिक अहं के ही रूप नहीं हैं और जब तक वे उपस्थित हैं धार्मिक साधना के क्षेत्र में लक्ष्य की सिद्धि कैसे होगी? जिन साधना पद्धतियों में अहिंसा के आदर्श को स्वीकार किया गया उनके लिए आग्रह या एकान्त वैचारिक हिंसा का प्रतीक भी बन जाता है। एक ओर साधना के वयक्तिक पहलू की दृष्टि से मताग्रह वैचारिक आसक्ति या राग का ही रूप है तो दूसरी ओर साधना के सामाजिक पहलू की दृष्टि से वह वैचारिक हिंसा है। वैचारिक आसक्ति और वैचारिक हिंसा से मुक्ति के लिए धार्मिक क्षेत्र में अनाग्रह और अनेकान्त की साधना अपेक्षित है। वस्तुतः धर्म का अविभाव मानव जाति में शांति और सहयोग के विस्तार के लिए हुआ था। धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था लेकिन आज वही धर्म मनुष्य-मनुष्य में विभेद को दीवारें खींच रहा है धार्मिक मतान्धता में हिंसा संघर्ष, छल, छद्म, अन्याय, अत्याचार क्या नहीं हो रहा है ? क्या वस्तुतः इसका कारण धर्म हो सकता है ? इसका उत्तर निश्चित रूप से "हाँ" में नहीं दिया जा सकता। यथार्थ में "धर्म" नहीं किन्तु धर्म का आवरण डाल कर मानव को महत्वाकांक्षा, उसका अहंकार ही यह सब करवाता रहा है। यह धर्म नहीं, धर्म का नकाब डाले अधर्म है।
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मूल प्रश्न यह है कि क्या धर्म अनेक हैं या हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अनेकांतिक शैली से यह होगा कि धर्म एक भी है और अनेक भी। साध्यात्मक धर्म या धर्मों का साध्य एक है जबकि साधनात्मक धर्म अनेक हैं। साध्य रूप में धर्मों की एकता और साधन रूप से अनेकता को ही यथार्थ दृष्टिकोण कहा जा सकता है। सभी धर्मों का साध्य है, समत्व लाभ ( समाधि ) अर्थात् आन्तरिक तथा बाह्य शान्ति की स्थापना तथा उसके लिए विक्षोभ के जनक राग-द्वेष और अस्मिता (अहंकार ) का निराकरण । लेकिन राग-द्वेष और अस्मिता के निराकरण के उपाय क्या हों ? यहीं विचार भेद प्रारम्भ होता है, लेकिन यह विचार भेद विरोध का आधार नहीं बन सकता। एक ही साध्य की ओर उन्मुख होने से वे परस्पर विरोधी नहीं कहे जा सकते। एक ही केन्द्र से योजित होने वाली परिधि से खिंची हुई विभिन्न रेखाओं में पारस्परिक विरोध प्रतीत अवश्य होता है किन्तु वह यथार्थ में होता नहीं है। क्योंकि केन्द्र से संयुक्त प्रत्येक रेखा में एक दूसरे को काटने की क्षमता नहीं होती है किन्तु जैसे ही वह केन्द्र का परित्याग करती है वह दुसरी रेखाओं को अवश्य ही काटती है। साध्य सभी एकता में ही साधन रूप धर्मों की अनेकता स्थित है। अतः यदि धर्मों का साध्य एक है तो उनमें विरोध कैसा ? अनेकान्त, धर्मों की साध्यपरक मूलभूत एकता और साधन परक अनेकता को इंगित . करता है।
विश्व के विभिन्न धर्माचार्यों ने अपने युग की तात्कालिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने सिद्धांतों एवं साधनों के बाह्य नियमों का प्रतिपादन किया। देशकालगत परिस्थितियों और साधक के साधना की क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म साधना के बाह्य रूपों में भिन्नताओं का आ जाना स्वाभाविक ही था और ऐसा हुआ भी। किन्तु मनुष्य को अपने धर्माचार्य के प्रति ममता ( रागात्मकता) और उसके अपनेमन में व्याप्त आग्रह और अहंकार ने उसे अपने धर्म या साधना पद्धति को ही एक मात्र एवं अन्तिम सत्य मानने को बाध्य किया। फलस्वरूप विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों और उनके बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य का प्रारम्भ हुआ। मुनिश्री नेमीचन्द्रजी ने धर्म सम्प्रदायों के उद्भव की एक सजीव व्याख्या प्रस्तुत की हैं, वे लिखते हैं कि “मनुष्य स्वभाव बड़ा विचित्र है उसके अहं को जरा सी चोट लगते ही वह अपना अखाड़ा अलग बनाने
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( ३६ ) को तैयार हो जाता है। यद्यपि वैयक्तिक अहं धर्म-सम्प्रदायों के निर्माण का एक कारण अवश्य है लेकिन वही एक मात्र कारण नहीं है। बौद्धिक भिन्नता और देशकालगत तथ्य भी इसके कारण रहे हैं और इसके अतिरिक्त पूर्व प्रचलित परम्पराओं में आयी हुई विकृतियों के संशोधन के लिए भी सम्प्रदाय बने । उनके अनुसार सम्प्रदाय बनने के निम्न कारण हो सकते हैं :
(१) ईर्ष्या के कारण (२) किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि की विप्सा के कारण (३) किसी वैचारिक मतभेद (मताग्रह) के कारण (४) किसी आचार संबंधी नियमोपनियम में भेद के कारण (५) किसी व्यक्ति या पूर्व सम्प्रदाय द्वारा अपमान या खींचातान होने के कारण (६) किसी विशेष सत्य को प्राप्त करने की दृष्टि से (७) किसी साम्प्रदायिक परम्परा या क्रिया में द्रव्य, क्षेत्र एवं काल के अनुसार संशोधन या परिवर्तन करने की दृष्टि से। उपरोक्त कारणों में अंतिम दो को छोड़कर शेष सभी कारणों से उत्पन्न सम्प्रदाय आग्रह, धार्मिक असहिष्णुता और साम्प्रदायिक विद्वेष को जन्म देते हैं।
विश्व इतिहास का अध्येता इसे भलीभांति जानता है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये। आश्चर्य तो यह है कि इस दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्त प्लावन को धर्म का बाना पहनाया गया । शान्ति प्रदाता धर्म ही अशांति का कारण बना । आज के वैज्ञानिक यग में धार्मिक अनास्था का मुख्य कारण उपरोक्त भी है। यद्यपि विभिन्न मतों, पंथों और वादों में बाह्य भिन्नता परिलक्षित होती है किन्तु यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो उसमें भी एकता और समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकते हैं।
अनेकांत विचार दृष्टि विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति द्वारा एकता का प्रयास नहीं करती है क्योंकि वैयक्तिक रुचि भेद एवं क्षमता भेद तथा देश काल गत भिन्नताओं के होते हुए विभिन्न धर्म एवं विचार सम्प्रदायों की उपस्थिति अपरिहार्य है। एक धर्म या एक सम्प्रदाय का नारा असंगत एवं अव्यावहारिक नहीं अपितु अशांति और संघर्ष का कारण भी है । अनेकांत विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति का प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक पूर्णता में सुसंगत रूप से संयोजित करने का
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( ३७ ) प्रयास हो सकता है। लेकिन इसके लिए प्राथमिक आवश्यकता है धार्मिक सहिष्णुता और सर्व धर्म समभाव की।
अनेकांत के समर्थक जैनाचार्यों ने इसी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया है। आचार्य हरिभद्र को धार्मिक सहिष्णुता तो सर्व विदित ही है। अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय में उन्होंने बुद्ध के अनात्मवाद, न्याय दर्शन के ईश्वर कर्तृत्वाद और वेदान्त के सर्वात्मवाद (ब्रह्मवाद ) में भी संगति दिखाने का प्रयास किया। अपने ग्रन्थ लोकतत्त्वसंग्रह में आचार्य हरिभद्र लिखते हैं :
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्ति मद्वचनं यस्य, तस्य कार्य परिग्रहः ।। मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि मुनिगणों के प्रति द्वेष है । जो भी वचन तर्क संगत हो उसे ग्रहण करना चाहिए।
इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने शिव-प्रतिमा को प्रणाम करते समय सर्व देव समभाव का परिचय देते हुए कहा था :
भव वीजांकुर जनना, रागद्या क्षयमुपागता यस्य ।।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरौ, जिनो वा नमस्तस्मै । संसार परिभ्रमण के कारण रागादि जिसके क्षय हो चुके हैं उसे, मैं प्रणाम करता हूँ चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शिव हों या जिन हों। (द) पारिवारिक जीवन में स्याद्वाद दृष्टि का उपयोग
कौटुम्बिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर कुटुम्बों में और कुटुम्ब के सदस्यों में संघर्ष को टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण का निर्माण करेगा। सामान्यतया पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र होते हैंपिता-पुत्र तथा सास-बहू। इन दोनों विवादों में मूल कारण दोनों का दृष्टिभेद है। पिता जिस परिवेश में बड़ा हुआ, उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। जिस मान्यता को स्वयं मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है। पिता को दृष्टि अनुभव प्रधान होती है, जबकि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान । एक प्राचीन संस्कारों से ग्रसित होता है तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना चाहता है । यही स्थिति सास-बहू में होती है। सास यह अपेक्षा करती है कि बहू ऐसा
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( ३८ ) जीवन जिये जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में किया था, जब कि बहू अपने युग के अनुरूप और अपने मातृ पक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीना चाहती है। मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह भी होती है कि वह उतना ही स्वतन्त्र जीवन जिये, जैसा वह अपने माता-पिता के पास जीती थी। इसके विपरीत स्वसूर पक्ष उससे एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद के कारण बनते हैं। इसमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जाता, तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। वस्तुतः इसके मूल में जो दृष्टिभेद है, उसे अनेकान्त पद्धति से सम्यक् प्रकार जाना जा सकता है।
वास्तविकता यह है कि हम जब दूसरे के सम्बन्ध में कोई विचार करें, कोई निर्णय लें तो हमें स्वयं अपने को उस स्थिति में खड़ा कर सोचना सोचना चाहिए। दूसरे की भूमिका में स्वयं को खड़ा करके ही उसे सम्यक प्रकार से जाना जा सकता है। पिता-पुत्र से जिस बात की अपेक्षा करता है, उसके पहले अपने को पुत्र की भूमिका में खड़ा कर विचार कर ले कि अधिकारी कर्मचारी से किस ढंग से काम लेना चाहता है, उसके पहले स्वयं को उस स्थिति में खड़ा करे, फिर निर्णय ले। यही एक ऐसी दृष्टि है, जिसके अभाव में लोक व्यवहार असम्भव है और जिस आधार पर अनेकान्तवाद जगतगुरु होने का दावा करता है । कहा है
जेण विणा वि लोगस्स ववहारो सव्वहा न निव्वडई।
तस्स भुवणेक्क गुरुणो णमो अणेगतंवायस्स ॥ इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकांत एवं स्याद्वाद के सिद्धान्त दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं पारिवारिक जीवन के विरोधों के समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत करते हैं जिससे मानव जाति को संघर्षों के निराकरण में सहायता मिल सकती है। संक्षेप में अनेकान्त विचार-पद्धति के व्यावहारिक क्षेत्र में तीन प्रमुख योगदान हैं
(१) विवाद पराङ्मुखता या वैचारिक संघर्ष का निराकरण ।
(२) वैचारिक सहिष्णुता या वैचारिक अनाग्रह (विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन )।
(३) वैचारिक समन्वय और एक उदार एवं व्यापक दृष्टि का निर्माण ।
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( ३९ ) बौद्ध आचार-दर्शन में वेचारिक अनाग्रह
बौद्ध आचारदर्शन में मध्यम मार्ग की धारणा अनेकान्तवाद की विचारसरणी का ही एक रूप है। इसी मध्यम मार्ग से वैचारिक क्षेत्र में अनाग्रह की धारणा का विकास हुआ है। बौद्ध विचारकों ने भी सत्य को अनेक पहलुओं से युक्त देखा और यह माना कि सत्य को अनेक पहलुओं के साथ देखना ही विद्वता है। थेरगाथा में कहा गया है कि जो सत्य का एक ही पहलू देखता है, वह मूर्ख है।' पण्डित तो सत्य को सौ (अनेक) पहलुओं से देखता है। वैचारिक आग्रह और विवाद का जन्म एकांगी दृष्टिकोण से होता है, एकांगदर्शी ही आपस में झगड़ते हैं और विवाद में उलझते हैं। . बौद्ध विचारधारा के अनुसार आग्रह, पक्ष या एकांगी दृष्टि-राग में रत होता है। वह जगत में कलह और विवाद का सृजन करता है और स्वयं भी आसक्ति के कारण बन्धन में पड़ा रहता है। इसके विपरीत जो मनुष्य दृष्टि, पक्ष या आग्रह से ऊपर उठ जाता है, वह न तो विवाद में पड़ता है और न बन्धन में । बुद्ध के निम्न शब्द बड़े मर्मस्पर्शी हैं, "जो अपनी दृष्टि से दृढ़ाग्रही हो दूसरे को मूर्ख और अशुद्ध बतानेवाला वह स्वयं कलह का आह्वान करता है। किसी धारणा पर स्थित हो, उसके द्वारा वह संसार में विवाद उत्पन्न करता है जो सभी धारणाओं को त्याग देता है, वह मनुष्य संसार में कलह नहीं करता।
____ मैं विवाद के फल बताता हूँ। एक, यह अपूर्ण या एकांगी होता है; दूसरे, वह विग्रह या अशान्ति का कारण होता है । निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझनेवाले यह भी देखकर विवाद न करें। साधारण मनुष्यों की जो कुछ दृष्टियाँ हैं, पण्डित इन सब में नहीं पड़ता। दृष्टि और श्रुति को ग्रहण न करने वाला, आसक्तिरहित वह क्या ग्रहण करे। (लोग) अपने
१. थेरगाथा, १११.६. २. उदान, ६।४. ३. सुत्तनिपात, ५०१६-१७.
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( ४० ) धर्म को परिपूर्ण बताते हैं और दूसरे के धर्म को हीन बताते हैं। इस प्रकार भिन्न मत वाले ही विवाद करते हैं और अपनी धारणा को सत्य बताते हैं। यदि कोई दूसरे की अवज्ञा (निन्दा) करके हीन हो जाय तो धर्मों में श्रेष्ठ नहीं होता। जो किसी वाद में आसक्त है, वह शुद्धि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह किसी दृष्टि को मानता है। विवेकी ब्राह्मण तृष्णा-दृष्टि में नहीं पड़ता। वह तृष्णा-दृष्टि का अनुसरण नहीं करता। मुनि इस संसार में ग्रन्थियों को छोड़कर वादियों में पक्षपाती नहीं होता। अशान्तों में शान्त वह जिसे अन्य लोग ग्रहण करते हैं उसकी अपेक्षा करता है। बाद में अनासक्त, दृष्टियों से पूर्ण रूप से मुक्त वह धीर संसार में लिप्त नहीं होता। जो कुछ दृष्टि, श्रुति या विचार है, उन सब पर वह विजयी है। पूर्ण रूप से मुक्त, मार-त्यक्त वह संस्कार, उपरति तथा तृष्णारहित है।"
इतना ही नहीं, बुद्ध सदाचरण और आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में इस प्रकार के वाद-विवाद या वाग्विलास या आग्रह-वृत्ति को अनुपयुक्त समझते हैं। उनकी दृष्टि में यह पक्षाग्रह या वाद-विवाद निर्वाण-मार्ग के पथिक का कार्य नहीं है। यह तो मल्लविद्या है-राजभोजन से पृष्ट पहलवान की तरह (प्रतिवादो को) ललकारने वाले वादी को उस जैसे वादी के पास भेजना चाहिए, क्योंकि मुक्त पुरुषों के पास विवादरूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रहा। जो किसी दृष्टि को ग्रहण कर विवाद करते हैं और अपने मत को सत्य बताते हैं उनसे कहना चाहिए कि विवाद उत्पन्न होने पर तुम्हारे साथ बहस करने को यहाँ कोई नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध दर्शन वैचारिक अनाग्रह पर जैन दर्शन के समान ही जोर देता है, बुद्ध ने भी महावीर के समान ही दृष्टिराग को अनुपयुक्त माना है और बताया कि सत्य का सम्पूर्ण प्रकटन वहीं होता है, जहाँ सारी दृष्टियाँ शून्य हो जाती हैं। यह भी एक विचित्र संयोग है कि महावीर के अन्तेवासी इन्द्रभूति के समान ही बुद्ध के अन्तेवासी आनन्द को भी बुद्ध के जीवन काल में अर्हत् पद प्राप्त नहीं हो
१. सुत्तनिपान, ५११२, ३, १०, ११, १६.२०. २. वही, ४६।८-९.
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( ४१ ) सका । सम्भवतः यहाँ भी यही मानना होगा कि शास्ता के प्रति आनन्द का जो दृष्टिराग था, वही उसके अर्हत् होने में बाधा था। इस सम्बन्ध में दोनों धर्मों के निष्कर्ष समान प्रतीत होते है। गीता में अनाग्रह
वैदिक परम्परा में भी अनाग्रह का समुचित महत्त्व और स्थान है। गीता के अनुसार आग्रह की वृत्ति आसुरी वृत्ति है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि आसुरी स्वभाव के लोग दम्भ, मान और मद से युक्त होकर किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय ले अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हो संसार में प्रवृत्ति करते रहते हैं।' इतना ही नहीं, आग्रह का प्रत्यय तप, ज्ञान और धारणा सभी को विकृत कर देता है। गीता में आग्रहयुक्त तप को और आग्रहयुक्त धारणा को तामस कहा है। आचार्य शंकर तो जैन परम्परा के समान वैचारिक आग्रह को मुक्ति में बाधक मानते हैं। विवेकचडामणि में वे कहते हैं कि विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिता, शास्त्र-व्याख्यान की पटुता और विद्वत्ता यह सब भोग का ही कारण हो सकते हैं, मोक्ष का नहीं। २ शब्दजाल चित्त को भटकाने वाला एक महान् वन है। वह चित्तभ्रान्ति का ही कारण है। आचार्य विभिन्न मतमतान्तरों से युक्त शास्त्राध्ययन को भी निरर्थक मानते हैं। वे कहते हैं कि यदि परमतत्त्व का अनुभव नहीं किया तो शास्त्राध्ययन निष्फल है और यदि परमतत्त्व का ज्ञान हो गया तो शास्त्राध्ययन अनावश्यक है। इस .. प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शंकर की दृष्टि में वैचारिक आग्रह या दार्शनिक मान्यताएँ आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से अधिक मूल्य नहीं रखती। वैदिक नीति-वेत्ता शुक्राचार्य आग्रह को अनुचित और मूर्खता का कारण मानते हुए कहते हैं कि अत्यन्त आग्रह नहीं करना चाहिए क्योंकि अति सब जगह नाश का कारण है। अत्यन्त दान से दरिद्रता, अत्यन्त
१. गीता, १६-१०. २. वही, १७.१९, १८१३५. . ३. विवेकचूड़ामणि, ६०. ४. वही, ६२. ५. वही, ६१.
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( ४२ ) लोभ से तिरस्कार और अत्यन्त आग्रह से मनुष्य की मूर्खता परिलक्षित होती है।' वर्तमान युग में महात्मा गाँधी ने भी वैचारिक आग्रह को अनैतिक माना और सर्वधर्म समभाव के रूप में वैचारिक अनाग्रह पर जोर दिया। वस्तुतः आग्रह सत्य का होना चाहिए, विचारों का नहीं। सत्य का आग्रह तभी तो हो सकता है जब हम अपने वैचारिक आग्रहों से ऊपर उठे । महात्माजी ने सत्य के आग्रह को तो स्वीकार किया, लेकिन वैचारिक आग्रहों को कभी स्वीकार नहीं किया। उनका सर्वधर्म समभाव का सिद्धान्त इसका ज्वलन्त प्रमाण है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में अनाग्रह को सामाजिक जीवन की दृष्टि से सदैव महत्त्व दिया जाता रहा है, क्योंकि वैचारिक संघर्षों से समाज को बचाने का एक मात्र मार्ग अनाग्रह ही है । वैचारिक सहिष्णुता का आधार-अनाग्रह ( अनेकान्त दृष्टि)
जिस प्रकार भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध के काल में वैचारिक संघर्ष उपस्थित थे और प्रत्येक मतवादी अपने को सम्यक्दृष्टि और दूसरे मिथ्यादृष्टि कह रहा था, उसी प्रकार वर्तमान युग में भी वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। सिद्धान्तों के नाम पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। कहीं धर्म के नाम पर एक दूसरे के विरुद्ध विषवमन किया जा रहा है । धार्मिक या राजनैतिक साम्प्रदायिकता जनता के मानस को उन्मादी बना रही है । प्रत्येक धर्मवाद या राजनैतिक वाद अपनी सत्यता का दावा कर रहा है और दूसरे को भ्रांन्त बता रहा है । इस धार्मिक एवं राजनैतिक उन्माद एवं असहिष्णुता के कारण मानव मानव के रक्त का प्यासा बना हुआ है। आज प्रत्येक राष्ट्र का एवं विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। एक ओर प्रत्येक राष्ट्र की राजनैतिक पार्टियाँ या धार्मिक सम्प्रदाय उसके आन्तरिक वातावरण को विक्षुब्ध एवं जनता के पारस्परिक सम्बन्धों को तनावपूर्ण बनाये हुए हैं, तो दूसरी ओर राष्ट्र स्वयं भी अपने को किसी एक निष्ठा से सम्बन्धित कर गुट बना रहे हैं और इस प्रकार विश्व के वातावरण को तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध बना रहे हैं। मात्र इतना ही नहीं यह वैचारिक असहिष्णुता, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन को विषाक्त बना रही है। पुरानी और १. शुक्रनीति, ३।२११-२१३.
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( ४३ ) नई पीढ़ी के वैचारिक विरोध के कारण आज समाज और परिवार का वातावरण भी अशान्त और कलहपूर्ण हो रहा है। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो लोगों को आग्रह और मतान्धता से ऊपर उठने के लिए दिशानिर्देश दे सके । भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर दो ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने इस वैचारिक असहिष्णुता की विध्वंसकारी शक्ति को समझा था और उससे बचने का निर्देश दिया था। वर्तमान में भी धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक जीवन में जो वैचारिक संघर्ष और तनाव उपस्थित हैं उनका सम्यक समाधान इन्हीं महापुरुषों की विचार सरणी द्वारा खोजा जा सकता है। आज हमें विचार करना होगा कि बुद्ध और महावीर की अनाग्रह दृष्टि द्वारा किस प्रकार धार्मिक, राजनतिक और सामाजिक सहिष्णुता को विकसित किया जा सकता है।
प्रो० सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान
वाराणसी
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धर्मघोषगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
-डा० शिव प्रसाद
पूर्वमध्ययुग में श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्रकुल का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इस कुल से समय-समय पर अनेक शाखायें और प्रशाखायें निकलीं जो विभिन्न गच्छों के रूप में अस्तित्व में आयीं। ई० सन् की दसवीं शताब्दी के आसपास चन्द्रगच्छ की एक शाखा राजगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई । इस गच्छ में अभयदेवसूरि, वादीन्द्र धर्मघोषसूरि आदि प्रखर विद्वान् एवं प्रभावक आचार्य हुए। वादीन्द्र धर्मघोषसूरि की शिष्य-सन्तति धर्मघोषगच्छ के नाम से विख्यात हुई । इस गच्छ में कई प्रभावक सूरिवर हुए हैं, जिन्होंने लगभग ५०० वर्षों तक अपनी साहित्योपासना, तीर्थोद्धार, नूतन जिनालयों के निर्माण एवं जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आदि द्वारा मध्य युग में श्वेताम्बर श्रमण परम्परा को चिरस्थायित्व प्रदान करने में बहुमूल्य योगदान दिया।
धर्मघोषगच्छ के इतिहास के अध्ययन के स्रोत के रूप में साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं। साहि त्यिक साक्ष्यों में ग्रन्थ प्रशस्तियों तथा प्रतिलिपि प्रशस्तियों के साथसाथ राजगच्छ की पट्टावली में भी इस गच्छ की चर्चा है। अभिले. खीय साक्ष्यों के अन्तर्गत वि. सं. १३०३ से वि. सं. १६९१ तक के लगभग २०० ऐसे अभिलेख मिले हैं जो तीर्थङ्कर प्रतिमाओं तथा जिनालयों के स्तंभ आदि पर उत्कीर्ण हैं और जिनमें इस गच्छ का उल्लेख है। इनका अलग-अलग विवरण इस प्रकार है
साहित्यिक साक्ष्य-साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत मूल प्रशस्तियां तथा प्रतिलिपि प्रशस्तियां प्रमुख हैं। मूल प्रशस्तियां ग्रन्थकर्ता द्वारा रचना के अन्त में लिखी गयी होती हैं। इनमें ग्रन्थकार की गुरुपरम्परा का उल्लेख होता है।
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अध्ययन की सुविधा के लिये सर्वप्रथम ग्रन्थ प्रशस्तियों, तत्पश्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों और अन्त में मूल ग्रन्थों के प्रतिलेखन की दाताप्रशस्तियों एवं पट्टावली से प्राप्त विवरणों का विवेचन प्रस्तुत किया गया हैधर्मघोषगच्छीय आचार्यों के रचनाओं की प्रशस्तियों का विवरण १- आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणवृत्ति'-- आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरण खरतरगच्छीय आचार्य जिनवल्लभसूरि की प्रसिद्ध कृति है। इस पर ग्रन्थकार के शिष्य रामदेव गणि; बृहद्गच्छीय आचार्य हरिभद्रसूरि तथा धर्मघोषगच्छीय यशोभद्रसूरि द्वारा रचित वृत्तियां उपलब्ध होती हैं । यशोभद्रसूरि ने वृत्ति के अन्त में अपनी गुरुपरम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है
शीलभद्रसूरि वादीन्द्रधर्मघोषसूरि
यशोभद्रसूरि [ वृत्तिकार ] २-धर्मघोषसूरिस्तुति यह ३३ पद्यों की एक लघु रचना है, जिसके रचयिता धर्मघोषगच्छीय रविप्रभसूरि हैं। इन्होने इस रचना में अपने गुरु का नामोल्लेख तो नहीं किया है, परन्तु इनके शिष्य उदयप्रभसूरि ने अपनी रचना प्रवचनसारोद्धार की विषमपदव्याख्या की प्रशस्ति १. दलाल, चिमनलाल डाह्याभाई- “ए डिस्क्रिप्टिव कैटलाग ऑफ मैन्यु
स्क्रिप्ट्स इन द जैन भंडासं ऐट पाटन", ( बड़ोदरा, १९३७ ई० ) पृ०
३९५-३९६ । २. वही, पृ० ३६६-३७० ३. सपादलक्षक्षोणीशसमक्षं जितवादिनाम् ।
श्रीधर्मघोषसूरीणां पट्टालंकारकारकाः ॥ १ ॥ त्रिवगंपरिहारेण गद्यगोदावरीसृजः । बभूवुर्भू रिसौभाग्या: श्रीयशोभद्रसूरयः ॥ २ ॥ स्वपरसमयज्ञानप्रतिप्रकृष्टजगज्जनाश्चतुरवचना मोदाधष्टामरेशगुरुप्रभाः। अभिनृपसभं गंगागौरप्रनसितकीर्तयस्तदनु महस: पात्रं
जाता रविप्रभसूरयः ।।३।।
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(
४७
)
में अपने गुरु के रूप में इनका उल्लेख किया है। इस प्रशस्ति में प्राप्त गुर्वावली इस प्रकार है
शालिभद्रसूरि धर्मघोषसूरि यशोभद्रसूरि रविप्रभसूरि ( धर्मघोषसूरिस्तुति के कर्ता )
उदयप्रभसूरि ( व्याख्याकार ) ३-विचारसारविवरण'-९०० गाथाओं की इस रचना के कर्ता धर्मघोषगच्छीय प्रद्युम्नसूरि हैं। रचना के अन्त में उन्होंने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है
धर्मघोषसूरि देवप्रभसूरि
प्रद्युम्नंसूरि ( रचनाकार ) ४-कल्पसूत्रटिप्पनक...यह धर्मघोषगच्छीय पृथ्वीचन्द्रसूरि की रचना है। रचना के अन्त में इन्होंने प्रशस्ति के अन्तर्गत अपनी गुर्वावली
एवं प्रवचनसारे तच्छिष्यल वश्चकार टिप्पनकम् । श्रीउदयप्रभसूरिविषमपर्दार्थाववोधाख्यम् ॥ ४ ।। शाह, अम्बालाल पी०-कैटलाग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स
इन द कलेक्सन ऑफ मुनि पुण्यविजय, जिल्द १, क्रमांक ३३२४ १. जिनरत्नकोश, पृ० ३५३ २. चंद्रकुलांबरशशिनश्चारित्रश्रीसहस्रपत्रस्य ।
श्रीशीलभद्रसूरेगुणरत्नमहोदधि (धेः) शिष्यः ।। अभवद् वादिमदहरः षट्तीभोजबोधनदिनेशः ।
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( ४८ ) का उल्लेख तो किया है, परन्तु ग्रन्थ के रचनाकाल का कोई निर्देश नहीं किया है। इनका काल वि. सं. की १३ वीं शताब्दी के द्वितीय चरण के आस-पास माना जा सकता है । कल्पसूत्रटिप्पनक की वि. सं १३८४ की एक प्रति पाटन के ग्रन्थ भंडार में संग्रहीत है। इसकी प्रशस्ति में ग्रन्थकार द्वारा उल्लिखित अपनी गुरु-परम्परा इस प्रकार है
शीलभद्रसूरि धर्मघोषसूरि यशोभद्रसूरि देवसेनसूरि पृथ्वीचन्द्रसूरि ( कल्पसूत्रटिप्पनक के कर्ता)
श्रीधर्मघोषसूरिर्बोधितशाकंभरीभूपः ॥ चारित्रांभोधिशशी त्रिवगंपरिहारजनित बुधहर्षः । दर्शितविधिः शमनिधिः सिद्धांतमहोदधिप्रवरः ॥ ३ ॥ बभूव श्रीयशोभद्रसूरिस्तच्छिष्यशेखरः ।। तत्पादपद्ममधुपोभूत् श्रीदेवसेनगणिः ।। ४ ।। टिप्पनकं पर्युषणाकल्पस्यालिखदवेक्ष्य शास्त्राणि: । तच्छिष्य (पद्म)कमलमधुपः श्रीपृथ्वीचंद्रसूरिरिदं ।। ५ ।। इह यद्यपि न स्वधिया विहितं किंचित् तथापि बुधवगैः । संशोध्यमधिकमूनं यद् भणितं स्वपरबोधाय ।। ६ ॥
श्रीपयुषणाकल्पटिप्पनकं । संवत् १३८४ वर्षे भाद्रवा शुदि १ शनी अद्येह स्तंभतीर्थे वेलाकले श्रीमदंचलगच्छे श्रीकल्पपुस्तिका तिलकप्रभागणिनीयोग्या महं. अजयसिंहेन लिखिता । मंगलं महाश्री: । देहि विद्यां परमेश्वरि ! शिवमस्तु सर्वजगतः ।
बलाल, चिमनलाल डाह्याभाई, पूर्वोक्त, पृ० ३७
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उक्त प्रशस्तियों के आधार पर धर्मघोषगच्छीय आचार्यों को जो गुर्वावली निर्मित होती है, वह इस प्रकार हैतालिका संख्या--१
शीलभद्रसूरि
वादीन्द्र धर्मघोषसूरि (आगमिकवस्तुविचारसार
प्रकरण एवं गद्यगोदावरी के कर्ता) यशोभद्रसूरि
देवप्रभसूरि
(धर्मघोषसूरिस्तुति रविप्रभसूरि देवसेनसूरि
प्रद्युम्नसूरि के रचनाकार)
(विचारसारविवरण
के कर्ता) (प्रवचनसारोद्धार उदयप्रभसूरि पृथ्वीचन्द्रसूरि की विषमपदव्याख्या
(कल्पसूत्र टिप्पनक के रचनाकार)
प्रो० एम० ए० ढाकी' ने तारङ्गाके वि•सं० १३०४-१३०५; करेड़ा के वि०सं०१३३९; शत्रुञ्जय के १. ढाकी, एम० ए०, लक्ष्मण भोजक-शत्रुञ्जयगिरिना केटलाक अप्रकट लेखो-सम्बोधि, जिल्द VII पृ० १३.२५ २. वही ३. नाहर, पूरनचन्द-जैन.लेख संग्रह, भाग-२, लेखाङ्क १९५२ ४. ठाकी और भोजक-पूर्वोक्त पृ० १३-२५
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वि० सं० १३४३ एवं आबू के वि० सं० १३९६ के प्रतिमा लेखों में उल्लिखित आचार्यों की नामावली के आधार पर धर्मघोषगच्छीय आचार्यों की एक तालिका तैयार की है जो इस प्रकार है - तालिका-२
वादीन्द्रधर्मघोषसूरि
रत्नप्रभसूरि
आनन्दसूरि ( वि० सं० १२ + ९ ) 'दिलवाड़ा, आबू
देवेन्द्रसूरि
1
अमरप्रभसूरि I ज्ञानचन्द्रसूरि (वि० सं० १३७८, आबू)
जिनचन्द्रसूरि T भुवनचन्द्रसूरि
देवप्रभसूरि
पजून ( प्रद्युम्नसूरि )
मुनिचन्द्रसूरि
1
1 रत्नाकरसूरि
गुणचन्द्रसूरि [वि० सं० १३३९ करेड़ा] [वि० सं० १३४३ शत्रुञ्जय ]
मुनिशेखरसूरि (वि० सं० १३९६, आबू)
१. मुनि जयन्तविजय, अबुंदनाचीन जैन लेखसंदोह ( आबू-भाग २ ) लेखाङ्क ९१
( ५० )
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( ५१ )
धर्मघोषगच्छीय आचार्य अमरप्रभसूरि के शिष्य ज्ञानचन्द्रसूरि' द्वारा वि० सं० १३७४ से १३९६ के मध्य प्रतिष्ठापित कुछ जिन प्रतिमायें आबू स्थित विमलवसही तथा लणवसही में विद्यमान हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - वि० सं० १३७४ वैशाख सुदि ४ बुधवार (१ प्रतिमालेख) वि० सं० १३७८ ज्येष्ठ वदि ९ सोमवार (२ प्रतिमालेख) वि० सं० १३७८ वैशाख वदि ९
(३ प्रतिमालेख) वि० सं० १३७८ तिथिविहीन
(१३ प्रतिमालेख) वि० सं० १३७९ ज्येष्ठ सुदि ९ शुक्रवार' (१ प्रतिमालेख) वि० सं० १३८९ तिथिविहीन
(१ प्रतिमालेख) वि० सं० १३९४ तिथिविहीन
(१३ प्रतिमालेख) वि० सं० १३९६ वैशाखसुदि ८
(१ प्रतिमालेख) मिति/तिथि विहीन
(३ प्रतिमालेख) धर्मघोषगच्छीय आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित तीर्थङ्कर प्रतिमाओं में१५वीं-१६ वीं शती की प्रतिमाओं की संख्या सर्वाधिक है। यह तथ्य उन प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होता है। इन लेखों में यद्यपि इस गच्छ के अनेक आचार्यों का नामोल्लेख आया है, तथापि उनमें से कुछ आचार्यों के पूर्वापर सम्बन्ध ही निश्चित हो सके हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१-ज्ञानचन्द्रसूरि के पट्टधर सागरचन्द्रसूरि-पागरचन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित ८ प्रतिमा लेख अद्यावधि उपलब्ध हैं, जो वि० सं० १४२६ से वि० सं० १४६३ तक के हैं। - २ -सोमचन्द्र के पट्टधर देव चन्द्रसूरि -वि० सं० १४२२ का १ प्रतिमालेख
३ -- सोमचन्द्रसूरि के पट्टधर मलयचन्द्रसूरि मलयचन्द्ररि द्वारा प्रतिष्ठापित ४ लेखयुक्त प्रतिमायें आज उपलब्ध हैं जो वि० सं० १४५९ से वि० सं० १४६५ तक की हैं। १. द्रष्टव्य-मुनि जयन्तविजय-संपा० "अबुंदप्राचीनजनलेखसंदोह" अनु
क्रमणिका, पृ० ३५ २. मुनि जिनविजय-संपा० प्राचीनजनलेखसंग्रह; भाग २, लेखाङ्क १३२
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( ५२ ) ४-मलयचन्द्रसूरि के पट्टधर पद्मशेखरसूरि पद्मशेखरसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित १९ प्रतिमायें आज उपलब्ध हैं जो । वि० सं० १४७४-१४९२ तक की हैं।
५-मलयचन्द्रसूरि के शिष्य विजयचन्द्रसूरि विजयचन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित १ प्रतिमा उपलब्ध है जो वि० सं० १४८३ की है।
६-मलयचन्द्र के शिष्य महीतिलकसूरि महीतिलकसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित १२ प्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं। इनकी कालावधि वि० सं० १४८३ से वि० सं० १५१९ है ।
७-पद्मशेखरसूरि के पट्टधर विजयचन्द्रसूरि पद्मशेखरसूरि के पट्टधर विजयचन्द्रसूरि द्वारा वि०सं० १४८३ से वि० सं० १५०४ के मध्य प्रतिष्ठापित १७ प्रतिमायें आज उपलब्ध हैं । ___-महीतिलकसूरि के पट्टधर विजयप्रभसूरि विजयप्रभसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित २ प्रतिमायें उपलब्ध हैं जिनपर वि० सं० १५०१ का लेख उत्कीर्ण है । ___-विजयचन्द्रसूरि के पट्टधर पद्माणंदसूरि पद्माणंदसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित ३१ प्रतिमायें आज उपलब्ध हैं जो वि०सं० १५०५ से वि० सं० १५३७ के मध्य की हैं।
१०--विजयचन्द्रसूरि के शिष्य साधुरत्नसूरि साधुरत्नसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित २३ प्रतिमायें अद्यावधि उपलब्ध हैं जो वि० सं० १५०८ से १५३२ तक की हैं।
११-पद्माणदसूरि के पट्टधर गुणसुन्दरसूरि गुणसुन्दरसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित केवल १ प्रतिमा मिली है । यह प्रतिमा भगवान् कुन्थुनाथ की है। प्रतिमा पर वि० सं० १५२३ का लेख उत्कीर्ण है।
१२- पद्माणंदसूरि के (द्वितीय) पट्टधर नंदिवर्धनसूरि नंदिवर्धनसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित १० प्रतिमायें मिली हैं जो वि० सं० १५५५ से वि० सं० १५७७ तक की हैं।
इन प्रतिमालेखों के आधार पर धर्मघोषगच्छ के आचार्यों की जो तालिका निर्मित होती है, वह इस प्रकार है
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ज्ञानचन्द्रसूरि वि० सं १३७८.९४
सोमचन्द्रसूरि
मुनिशेखरसूरि सागरचन्द्रसूरि देवचन्द्रसूरि मलयचन्द्रसूरि वि० सं०१४५९-६५ (वि० सं० १३९६) वि० सं० १४२६-६३] वि० सं० १४२२ । [४ प्रतिमा लेख] के मध्य ८ प्रतिमालेख
पद्मशेखरसूरि - विजयचन्द्रसूरि महीतिलकसूरि मुख्य पट्टधर शिष्य पट्टधर
शिष्य पट्टधर वि० सं० १४७४-१४९२ । वि० सं०
| वि० सं० १४८३[१९ प्रतिमा लेख] १४८३-१५०४
१५१९ . [१८ प्रतिमा लेख] [१२ प्रतिमा लेख
( ५३ )
पद्मानन्दसरि साधुरत्नसूरि विजयप्रभसूरि वि० सं० १५०५-१५३७ वि० सं० १५०८-१५३२
[३१ प्रतिमा लेख] [२३ प्रतिमा लेख]
गुणसुन्दरसूरि वि० सं० १५३२ [१ प्रतिमा लेख
नंदिवर्धनसरि
| वि० सं० १५५५-१५७७ । [१० प्रतिमा लेख]
पाठकगुणरत्न
पुण्यराजसूरि
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________________
( ५४ ) पुस्तक प्रशस्तियां
१-कालकाचार्यकथा' इस रचना की वि० सं० १३४४ की एक 'प्रति पाटन के जैन ग्रन्थ भंडार में सुरक्षित है। इसे धर्मघोषगच्छीय आचार्य अमरप्रभसूरि के उपदेश से सोमसिंह नामक श्रावक ने लिपिबद्ध कराया था। इसकी प्रशस्ति में अमरप्रभसूरि की गुरु-परम्परा का उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार है
शीलभद्रसूरि धर्मघोषसूरि
आनन्द्रसूरि अमरप्रभसूरि (वि० सं० १३४४ में इनके उपदेश से कल्पसूत्र की प्रतिलिपि तैयार की गयी)
१.
ऊकेशवंशे भुवनाभिरामे छायासमाश्वासितसत्वसार्था । शोराणकीयास्ति विशालशाखा साकारपत्रावलीराजनामा । तत्राभवद् भवभयच्छिदुराहदंध्रिराजीवजीवितसदाशयराजहंसः । पूर्वः पुमान् गणहरिर्गणधारिसार --- [कनी] यान् थिरदेवस्य हरिदेवोस्ति बांधवः । हर्षदेवीभवाः पुत्रा नरसिंहादयोस्य च ।। सहोदयः सप्तैत(?)स्य लष्मिणिधर्मकर्मठा । कर्मिणि हरिसणिश्च पुत्र्यस्तिस्त्रो गुणश्रियः ।। १६ ॥
अथ गुरुक्रमः श्रीराजगच्छमुकुटोपमशीलभद्रसूरेविनेयतिलक: किल धर्मसूरिः । दुर्वादिगवंभरसिंधुर सिंहनादः श्रीविग्रहक्षितिपतेर्दलितप्रमादः ।।
आनन्दसूरिशिष्यश्रीअमरप्रभसूरितः । श्रुत्वोपदेशं कल्पस्य पुस्तिकां नूतनामिमां ॥१९॥
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________________
( ५५ )
२ - लघुक्षेत्र समासवृत्ति'
यह रत्नशेखरसूरि की रचना है। इसकी वि० सं० १५५० में धर्मघोषगच्छीय मुनि नन्दिवर्धनसूरि के शिष्य पाठक गुणरत्न द्वारा लिपिवद्ध की गयी एक प्रति मुनिश्री पुण्यविजय जी के संग्रह में सुरक्षित है ।
नंदिवर्धनसूरि के शिष्य पाटक गुणरत्न का उल्लेख करने वाला एक मात्र साक्ष्य होने से इस प्रशस्ति का विशिष्ट महत्त्व है |
३ – कल्पसूत्र - मुनिराज श्री पुण्यविजयजी के संग्रह में एक प्रति सुरक्षित है । यह प्रति मुनिउदयराज के वाचनार्थं लिखवायी गयी । यह बात इसकी दाता प्रशस्ति से ज्ञात होती है । इस प्रशस्ति की विशेषता यह है कि इसमें धर्मघोषगच्छीय आचार्य पद्माणंदसूरि और नंदिवर्धनसूरि को राजगच्छीय कहा गया है । जैसा कि प्रारम्भ में ही कहा जा चुका है धर्म घोषगच्छ का राजमच्छ की एक शाखा के रूप में ही उदय हुआ । १७ वीं शताब्दी में दोनों ही गच्छों का पूर्व प्रभाव समाप्तप्राय हो चुका था और उनका अलग-अलग स्वतन्त्र अस्तित्व भी नाम मात्र का ही रहा होगा । ऐसी स्थिति में एकसमकालीन लिपिकार अथवा साधु द्वारा उन्हें राजगच्छीय कहना अस्वाभाविक नहीं लगता ।
उद्यमात् सोमसिंहस्य सपुण्य पुण्यहेतवे । अलेखयच्छुभालेखां निजमातुगु णश्रियः ॥२०॥
यावच्चिरंधम्मंधराधिराजः सेवाकृतां सुकृतिनां वितनोति लक्ष्मीं मुनीन्द्रवृ देरिह वाच्यमाना तावन्मुदं यच्छतु पुस्तिकेयं ॥ २१ ॥
Colophone :--
संवत् १३४४ वर्षे मार्ग. शुद्धि रवी सोमसिंहेन लिखापिता ।। दलाल, चिमनलाल डाह्याभाई - पूर्वोक्त, पृ० ३७९
१. श्रीधर्मघोषगच्छे भट्टारक श्रीनंदिवर्धनसूरीणां शिष्यपाठकगुणरत्नोपदेशेक सं० पट्टा तत्पुत्र सं० पासा तत्पुत्रसं लाषण सं०
...........
शाह, अम्बालाल पी०
पूर्वोक्त, जिल्द १, क्रमांक ३०३८
1
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________________
अंतिम दोनों दाता प्रशस्तियों से जो गुर्वावली निर्मित होती है, वह इस प्रकार है-- तालिका-४
नंदिवर्धनसूरि
पाठक गुणरत्न
पुण्यराजसूरि वि० सं० १५५०
उदयराजसूरि
वि० सं० १६१२ पूर्व प्रदर्शित तालिका संख्या ३ के सम्बन्ध में उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इसमें एक ओर मलयचन्द्रसूरि के गुरु सोमचन्द्रसूरि का उल्लेख है, परन्तु सोमचन्द्रसूरि के गुरु कौन थे ? यह हमें ज्ञात नहीं होता । दूसरी ओर इस तालिका से यह भी ज्ञात होता है कि ज्ञानचन्द्रसूरि के शिष्य सागरचन्द्रसूरि के पश्चात् उनकी शिष्य संतति के बारे में अभिलेखीय साक्ष्य मौन हैं। क्या सागरचन्द्रसूरि की शिष्य सन्तति आगे नहीं चली ? ये दो ऐसे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर के लिये हमें अन्यत्र प्रयास करना होगा।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, धर्मघोषगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत एक पट्टावली भी उपलब्ध है, वह है एक अज्ञात लेखक द्वारा १६ वीं शती के अन्तिम चरण के आस-पास लिखी गयी राजगच्छीयपट्टावली'। इसमें न केवल राजगच्छीय आचार्यों अपितु इस गच्छ की शाखा धर्मघोषगच्छ के आचार्यों-ज्ञानचन्द्रसूरि, सागरचन्द्रसूरि, मलयचन्द्रसूरि पद्मशेखरसूरि आदि का भी उल्लेख है। पूर्व प्रदर्शित तालिका २ और ३ में भी उक्त आचार्यों का नामोल्लेख है, अतः इस पट्टावली की प्रामाणिकता असंदिग्ध है। १. मुनि जिनविजय-संपा०विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह [प्रथम भाग]
[सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क ५३, बम्बई १९६१ ई०] पृ० ५७-७१ २. जिनपतिमतचित्रोत्सप्पणालिकारो जयति कलियुगेऽस्मिन्
__ गौतमो धर्मसूरिः ॥ ८४ ।।
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________________
( ५७ )
१
राजगच्छीय पट्टावली में सागरचन्द्रसूरि के पट्टधर के रूप में मलयचन्द्रसूरि का उल्लेख है, जब कि पूर्व में मलयचन्द्रसूरि के पट्टधर के रूप में सीमचन्द्रसूरि का नाम आया है । ऐसा प्रतीत होता है कि मलयचन्द्रसूरि के दीक्षागुरु सोमचन्द्रसूरि थे एवं सागरचन्द्रसूरि ने उन्हें अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित किया। जहाँ तक सोमचन्द्रसूरि और सागरचन्द्रस्त्रि का प्रश्न है, वे परस्पर गुरुभ्राता हो सकते हैं क्यों कि किसी आचार्य द्वारा अपने उत्तराधिकारी के रूप में स्वदीक्षित योग्य शिष्य के अभाव में अपने गुरुभ्राता के शिष्य को अपना पट्टधर बनाना अस्वाभाविक नहीं है ।
उक्त चारों तालिकाओं में दर्शित गुर्वावलियों को परस्पर समायोजिन करने से धर्मघोषगच्छीय आचार्यों का एक विस्तृत विद्यावंशवृक्ष तैयार हो जाता है, जो इस प्रकार है
द्रष्टव्य : तालिका संख्या - ५
प्रणाशयन्तो जडतान्धकारं विकासयन्तो भविकैरवाणि ।
श्रीज्ञानचन्द्रोत्तम सूरिराजपादाः प्रकामं जयिनो भवन्तु ।। ८५ ।।
प्रबलवादिमतङ्गज मर्दने हरिरिवोन्नतवाक्यनखाङ्कुरे । य इह जैन मताभिकानने सुशिवदः सुगुरुमुनिशेखरः ॥ ८६ ॥ वन्दामि तं सुगुरुसागरचन्द्रसूरि यस्यामृतोपमवचांसि निशम्यसद्यः । के के कल्हणनृपप्रमुखा बभूवुः जैनेन्द्रधम्मंरुचयो द्विजराजपुत्राः ॥८७॥ श्रीजैनशासन वनी नववारिवाहाः सशनारसनिरस्तसुधाप्रवाहाः । विद्याकलागुणसुलब्धि महानिधानाः श्री सागरेन्दुगुरुवो गुरवो जयन्तु | ८८ भूपाल मालाप्रणतो निरोहः समप्रविद्यागुणलब्धिपात्रम् । सर्वत्र सत्कीर्तितपद्महस्तो मुदेस्तु नित्यं मलयेन्दुसरिः ॥ ८९ ॥ भूयान्मेरुरिव क्षमाभरधरो विख्यातनामा सतां
पूज्यः श्रीप्रभुपद्मशेखरगुरुः कल्याणदः शर्मणे ।। ९९ ।। विविध गच्छीयपट्टावलीसंग्रह, पृष्ठ ६९-७०
1 -गाथा ८८-८९
:-द्रष्टव्य-तालिका संख्या- ३
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________________
तालिका संख्या-५
वादीन्द्र धर्मघोषसूरि
देवेन्द्रसूरि
देवप्रभसूरि
यशोभद्रसूरि [१. आगमिकवस्तु
विचारसार २. गद्यगोदावरी]
( ५८ )
रविप्रभसूरि देवसेनसूरि रत्नप्रभसूरि जिनचन्द्रसूरि प्रद्युम्नसूरि
[विचारसारप्रकरण के रचनाकार) उदयप्रभसूरि पृथ्वीचन्द्रसूरि आनन्दसूरि भवनचन्द्रसूरि मुनिचन्द्रसूरि [प्रवचनसारोद्धार [कल्पसूत्र [वि० स० १२+९] वि० सं० १३०४-५ कीविषमपदव्याख्या टिप्पनक] (लेख-दिलवाड़ा] [लेख-तारंगा] अमरप्रभसूरि
गुणचन्द्रसूरि रत्नाकरसूरि
वि० सं० १३३९ वि० सं० १३४३ ज्ञानचन्द्रसूरि वि० सं० १३७८-९४ [करहेटक-प्रतिमालेख] [शत्रुञ्जय-प्रतिमालेख
(प्रतिमालेख, दिलवाडा)
Page #59
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________________
ज्ञानचन्द्रसूरि
मुनिशेखरसूरि वि० सं० १३९६ [दिलवाड़ा प्रतिमालेख]
सागरचन्द्रसूरि सोमचन्द्रसूरि वि० सं० १४२६.६३ । [प्रतिमालेख)
मलयचन्द्रसूरि वि० सं० १४५९.६५ [प्रतिमा लेख]
देवचन्द्रसूरि वि० सं० १४२२ [प्रतिमालेख
( ५९ )
पद्मशेखरसूरि मुख्य पट्टधर वि० सं० १४७४-१४९२ [१९ प्रतिमालेख]]
विजयचन्द्रसूरि महीतिलसूरि - शिष्य पट्टधरै
शिष्य पट्टधर वि० सं० १४८३-१५०४ वि० सं० १४८३-१५१९ [१८ प्रतिमालेख] [१२ प्रतिमालेख]
साधुरत्नसूरि वि० सं० १५०८-१५३२ [२३ प्रतिमालेख]
पद्माणदसूरि विजयप्रभसरि वि० सं० १५०५-१५३७ वि० सं० १५०१ [३१ प्रतिमालेख] [२ प्रतिमालेख
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________________
पपाणंदमूरि
गुणसुन्दरसूरि वि० सं० १५३२ [१ प्रतिमालेख
नदिवर्ध नसूरि वि० सं० १५५५-१५७७ [१० प्रतिमालेख]
.
पुण्यराजसूरि इनके उपदेश से लघक्षेत्र समास की वि० सं० १५५० में । प्रतिलिपि तैयार की गयी]
उदयराजसूरि [वि० सं० १६१७ में इनके पठनार्थ कल्पसूत्र की प्रतिलिपि तैयार की गयी।
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________________
___ धर्मघोषगच्छीय आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित
तीर्थंकर-प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण
लेखों का विवरण
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________________
क्र. संवत् तिथि १. १३०४ द्वितीय ज्येष्ठ
सुदि ९ सोमवार २. १३०५ आषाढ़ सुदि ७
शुक्रवार
आचार्य नाम प्रतिमालेख/स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान संदर्भ ग्रन्थ जिनचन्द्रसूरि के अजितनाथ की प्रतिमा अजितनाथ जिनालय सम्बोधि, जिल्द शिष्य भुवनचन्द्र सूरि. पर उत्कीर्ण लेख तारंगा ७, पृ०१३-२५ धर्मघोषसूरि के पट्ट- अजितनाथ की प्रतिमा अजितनाथ जिनालय, वही । धर देवेन्द्रसूरि के पर उत्कीर्ण लेख तारंगा पट्टशिष्य जिनचन्द्र सूरि के पट्टशिष्य भुवनचन्द्रसूरि आनन्दसूरि विमलवसही, विमलवसही, आबू मुनि कल्याणविजय देहरी न. १२,
प्रबन्धपारिजात नमिनाथ की प्रतिमा
पृ० ३४३-३४५ पर उत्कीर्ण लेख
लेखाङ्क २९
३. १३०९
-
४. १३३९ फाल्गुन सुदि ८
बुधवार
मुनिचन्द्रसूरि के सुमतिनाथ की प्रतिमा बावनजिनालय पट्टधर गुणचन्द्रसूरि पर उत्कीर्ण लेख करेड़ा .
नाहर, पूरनचन्दजैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखाङ्क
१९५२
Page #63
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________________
५. १३७४ वैशाखसुदि ४
बुधवार
ज्ञानचन्द्रसूरि
ज्ञानचन्द्रसूरि
६. १३७८ वैशाख वदि ९
सोमवार
शांतिनाथ की प्रतिमा अनुपूर्ति लेख मुनिजयन्तविजय पर उत्कीर्ण लेख
अर्बुदप्राचीन जैनलेखसंदोह
लेखाङ्क ५४४ सुविधिनाथ की प्रतिमा विमलवसही, आबू मुनिजयन्तविजय पर उत्कीर्ण लेख
पूर्वोक्त, भाग २,
लेखाङ्क १३३ शांतिनाथ की प्रतिमा वही वही, लेखाङ्क ७५ पर उत्कीर्ण लेख
७. १३७८ वैशाख वदि ९
ज्ञानचन्द्रसूरि
८. १३७८ वैशाख वदि ९
ज्ञानचन्द्रसूरि
तीर्थङ्कर की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
वही
वही, लेखाङ्क ८१
९. १३७८ वैशाख वदि ९
ज्ञानचन्द्रसूरि
वही
वही, लेखाङ्क ८३
तीर्थङ्कर की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख गुरु प्रतिमा पर उत्कीर्ण
१०. १३७८ ज्येष्ठ सुदि ९
सोमवार
ज्ञानचन्द्रसूरि
वही
वही, लेखाङ्क १
लेख
Page #64
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________________
APR
क्र. संवत् तिथि ११. १३७८ ज्येष्ठ वदि ९
सोमवार
आचार्य नाम ज्ञानचन्द्रसूरि
प्रति (मालेख/स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान. सन्दर्भ ग्रन्थ आदिनाथ की प्रतिमा विमलवसही, आबू मुनिजयन्तविजय पर उत्कीर्ण लेख
पूर्वोक्त,लेखाङ्क ४
१२. ,
तिथि विहीन
ज्ञानचन्द्रसूरि.
बासुपूज्य की प्रतिमा का लेख
वही
वही, लेखाङ्क ६५
तिथि विहीन
ज्ञानचन्द्रसूरि
आदिनाथ की प्रतिमा का लेख
वही
वही, लेखाङ्क ६९
१४. ,
तिथि विहीन
ज्ञानचन्द्रसूरि
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
वही
वही, लेखाङ्क११६
वही
अनन्तनाथ की प्रतिमा का लेख
वही, लेखाङ्क१२०
Page #65
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________________
१६. १३७८ तिथि विहीन
ज्ञानचन्द्रसूरि
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
f
.
विमलवसही, आबू मुनिजयन्त विजय,
पूर्वोक्त, लेखांक
१२०
१७. ,
,
___ वही
वही,लेखांक १६२
१८. .
"
महावीर प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
वही
वही,लेखांक २०
१९. ,
,
वही
वही,लेखांक २६
२०. ,
,
वही
शांतिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
वही लेखांक ३१
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिमालेख स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान
संदर्भग्रन्थ
क्र. संवत् तिथि २१. १३७८ तिथि विहीन
आचार्य नाम ज्ञानचन्द्रसूरि
विमलवसही, आबू, मुनिजयन्तविजय
पूर्वोक्त,
लेखांक ३२ वही वही,लेखांक ३६
२२. ,
.
.
२३. ,
,
अभिनन्दनस्वामी की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
वही
वही, लेखांक ३७
२४. १३८९
शांतिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
वही
वही, लेखांक १२
२५. १३९४
,
नेमिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
वही
वही, लेखांक ५०
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६.१३
तिथि विहीन
ज्ञानचन्द्रसूरि
विमलवसही, आबू
मुनिजयन्तविजय, पूर्वोक्त, लेखांक ४४
२७. "
महावीर स्वामी की प्रतिमा पर उत्कीर्ण
वही
वही, लेखांक ४१
लेख
२८. ,
,
नेमिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
वही
वही, लेखांक १०५
२९.
आदिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
वही
वही, लेखांक १०७
"
३०.
"
वही
वही, लेखांक १२७
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्र. संवत् तिथि ३१. १३९४ तिथि विहीन
आचार्य नाम ज्ञानचन्द्रसूरि
प्रतिमालेख स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान शांतिनाथ की प्रतिमा, विमलवसही, पर उत्कीर्ण लेख आबू
संदर्भग्रन्थ मुनिजयन्तविजय, पूर्वोक्त लेखांक १३८
आबू
३२.
"
आदिनाथ की प्रतिमा सुविधिनाथ मंदिर, वही, लेखांक ४३८ पर उत्कीर्ण लेख पित्तलहर, आबू
३३. ,
वही
वही, लेखांक ७९
३४. ,
.
शीतलनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
वही
वही, लेखांक १६८
३५. .
वही
आदिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीण लेख
वही, लेखांक ७५
Page #69
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________________
३६. १३९४ तिथि विहीन
ज्ञानचन्द्रसूरि
नेमिनाथ की प्रतिमा लूणवसही, पर उत्कीर्ण लेख आबू
मुनिजयन्तविजय, पूर्वोक्त, लेखांक २५२
३७. ,
,
,
वासुपूज्यस्वामी की विमलवसही, प्रतिमा पर उत्कीर्ण आबू
वही, लेखांक ६७
लेख
३८.
१३९६ वैशाख सुदि ८
वही
वही, लेखांक ९१
३९. १३९९
,
पुण्डरीकस्वामी की सुविधिनाथमंदिर, वही, लेखांक ४३२ प्रतिमा पर उत्कीर्ण पित्तलहर, आबू लेख
४०. १३९७ माघ सुदि १०
शनिवार
मानतुंगसूरि के महावीरस्वामी की जैनमंदिर, शिष्य हंसराजसूरि धातुप्रतिमा पर मेहसाणा
उत्कीर्ण लेख
विजयधर्मसूरि, संपा०-प्राचीनलेख संग्रह, लेखांक ६५
Page #70
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________________
क्रमांक
४१. १४१३
सवत् तिथि
ज्येष्ठ सुदि ७ शुक्रवार
४२. १४१५ तिथि विहीन
४३. १४१५ आषाढ़ वदि १३
४४. १४२२ चैत्र सुदि १२
४५. १४२३ माघ सुदि ८ रविवार
आचार्य नाम
गुणभद्रसूरि के शिष्य
सर्वाणंदसूर
"1
सर्वाणंदसूरि
सामाचन्द्रसूरि के शिष्य देवचन्द्रसूरि
महेन्द्रसूरि के पट्टधर शीलभद्रसूरि
प्रतिमालेख / स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान
शान्तिनाथ की
चौबीसी का लेख
चन्द्रप्रभ की धातुप्रतिमा का लेख
चन्द्रप्रभ की धातुप्रतिमा का लेख
शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख
शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख
चिन्तामणि
जिनालय,
बीकानेर
शीतलनाथ
जिनालय,
उदयपुर
चिन्तामणि
जिनालय,
बीकानेर
चन्द्रप्रभ
जिनालय,
जैसलमेर
चिन्तामणि
जिनालय, बीकानेर
संदर्भग्रन्थ
नाहटा, अगरचन्द पूर्वोक्त लेखांक ४३२
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त,
लेखांक ७४
नाहटा, अगरचंन्द
पूर्वोक्त, लेखांक ४३६
नाहर, पूरनचन्द, पूर्वोक्त
भाग- ३
लेखांक २२७१
नाहटा, अगरचन्द
पूर्वोक्त, लेखांक ४५२
Page #71
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________________
BE REAPN
पर वशाख सुदि ९
रविवार
सूरि
ज्ञानचन्द्रसूरि के चन्द्रप्रभ की
चन्द्रप्रभ नाहटा, अगरचन्द, शिष्य सागरचन्द्र- प्रतिमा का लेख जिनालय, पूर्वोक्त लेखांक
बीकानेर १६४८ सागरचन्द्रसूरि पंचतीर्थी का लेख चिन्तामणि वही, लेखांक ४९६
जिनालय बीकानेर,
४७. १४३० फाल्गुन सुदि १०
४८. १४३२ वैशाख वदि ११
सोमवार
सागरचन्द्रसूरि
आदिनाथ का प्रतिमा का लेख
अनुपात लख, मुनिजयन्तीपण आबू पूर्वोक्त, लेखांक ५८५
४९. १४३२ माष सुदि ८
रविवार
महेन्द्रसूरि के पट्टधर शीतलनाथ की शीलभद्रसूरि प्रतिमा का लेख
चिन्तामणि जिनालय, बीकानेर
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक ५००
५०. १४३४ -
सागरचन्द्रसूरि
शान्तिनाथ की प्रतिमा का लेख
वही
वही, लेखांक ५१५
Page #72
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________________
आचार्य नाम
क्र' संवत् तिथि ५१. १४३४ वैशाख वदि २
वीरभद्रसूरि
प्रतिमालेख/स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान संदर्भ ग्रन्थ पार्श्वनाथ की विमलनाथ विनयसागर संपा-० पंचतीर्थीका लेख जिनालय प्रतिष्ठालेखसंग्रह,
सवाई माधोपुर लेखांक १६१ वासुपूज्य स्वामी की चिन्मामणि नाहटा, अगरचन्द, प्रतिमा का लेख जिनालय, पूर्वोक्त, लेखांक
बीकानेर ५१८
५२. १४३५ माघ वदि १२
सोमवार
वीरभद्रसूरि
सागरचन्द्रसूरि
५३. १४३८ ज्येष्ठ वदि ४
शनिवार
वही, लेखांक ५३३
पार्श्वनाथ की चिन्तामणि पंचतीर्थी का लेख जिनालय
बीकानेर शान्तिाथ की आदिनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय,
नागौर
५४. १४३८ चैत्र सुदि १५
सोमवार
पद्मशेखरसूरि
नाहर, पूरनचन्द-पूर्वोक्त, भाग-२ लेखांक १२३५
५५. १४४० फाल्गुन सुदि ८
सोमवार
ज्ञानचन्दसूरि के शान्तिाथ की पंच- शान्तिनाथ पट्टधर सागरचन्द्र- तीर्थी प्रतिमा पर जिनालय,
नमस्कीर्ण लेख राधनपर.
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखांक ८६
Page #73
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________________
५६ १४४२
सुदि १०
५७ १४४७ फाल्गुन सुदि ८
सोमवार
५८ १४५५
५९ १४५९ ज्येष्ठ वदि १२
शनिवार
६० १४६१ माघ सुदि १०
सागरचन्द्रसूरि
ज्ञानचन्द्रसूरि
के पट्टधर सागरचन्द्रसूरि
सर्वाणंद सूरि
मलय चन्द्रसूरि
मलयचन्द्रसूरि
चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिमा का लेख
शान्तिनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिमा का लेख
शान्तिनाथ
जिनालय, नाहटों पूर्वोक्त,
की गवाड़, बीकानेर
जैनमंदिर,
राधनपुर
शीतलनाथ
जिनालय,
उदयपुर
पार्श्वनाथ की प्रतिमा लोंकागच्छीय
का लेख
जैन उपाश्रय,
बालापुर, अकोला
नाहटा, अंगरचन्द
आदिनाथ की प्रतिमा चिन्तामणि का लेख
जिनालय
बीकानेर
लेखांक ८३२
मुनिविशाल विजय सपा० - राधनपुर प्रतिमा लेख संग्रह, लेखांक ८०
नाहर, पूरनचन्द
पूर्वोक्त, भाग २,
लेखांक १०६०
मुनि बुद्धिसागर संपा० जैनधातु प्रतिमा लेखसंग्रह, भाग १,
लेखांक ६०
नाहटा, अगरचन्द
पूर्वोक्त,
लेखांक ६०२
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्र. संवत् तिथि
६१ १४६१ माघसुदि १०
६२ १४६३ फाल्गुन सुदि ८
६३ १५६५ वैशाख सुदि ३
६४ १४७३ माघ सुदि ५
आचार्य नाम
मलयचन्द्रसूरि
सागरचन्द्रसूरि
सोमचन्द्रसूरि के शिष्य मलयचन्द्रसूरि
रत्नसागरसूरि
प्रतिमालेख स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान.
शान्तिनाथ की प्रतिमा लालाहजारीका लेख
मल का घर
देरासर, दिल्ली
शान्तिनाथ की प्रतिमा चिन्तामणि
का लेख
जिनालय, बीकानेर
शान्तिनाथ की प्रतिमा श्रीमालों का
का लेख
मंदिर,
जयपुर
शान्तिनाथ की प्रतिमा आदिनाथ
का लेख
जिनालय,
भायखला,
- बम्बई
संदर्भग्रन्थ
नाहर, पूरनचन्द
पूर्वोक्त, भाग २,
लेखांक १८७६
नाहटा, अगरचन्द
पूर्वोक्त लेखांक ६०८
नाहर, पूरनचन्द, पूर्वोक्त भाग २, लेखांक १२२० एवं विनयसागर पूर्वोक्त
लेखांक १८९
मुनि कान्तिसागर
संपा० जैनधातु प्रतिमा लेख, लेखांक ७०
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________________
६५ १४७३ ज्येष्ठ सुदि २
शुक्रवार
पद्मसिंहसूरि
आदिनाथ की प्रतिमा का लेख
शीतलनाथ जिनालय, उदयपुर
नाहर, पूरनचन्द-पूर्वोक्त भाग २, लेखांक १०६४ एवं विनयसागर पूर्वोक्त, लेखांक ११३
६६ १४७४ फाल्गुन वदि २
मलयचन्द्रसूरि के पट्टधर पद्मशेखरसूरि
आदिनाथ जिनालय, नागौर
नाहर, पूरनचंद-पूर्वोक्त भाग-२ लेखांक १२३९
एवं विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक २१३ मुनि विजयधर्मसूरि पूर्वोक्त, लेखांक ११४
६७ १४७४ मार्ग..?
पद्मशेखरसूरि
आदिनाथ जिनालय, पूना
६८ १४७७ माघ सुदि ६
गुरुवार
नाहटा, अगरचन्द पूर्वोक्त, लेखांक ६८१
पद्मचन्द्रसूरि के पट्टधर महेन्द्रसूरि मलयचन्द्रसूरि के पट्टधर पप्रशेखरसूरि
चन्द्रप्रभस्वामी की चिन्तामणि प्रतिमा का लेख जिनालय,
बीकानेर शान्तिनाथ बड़ा मंदिर की प्रतिमा नागौर का लेख
६९ १४७८ चैत्र सुदि १५
सोमवार
विनयसागर-पूर्वोक्त लेखांक २१९
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________________
maintainm
आचार्य नाम पद्मशेखरसूरि
क्र. संवत् तिथि ७० १४८० फाल्गुन वदि १०
बुधवार ७१ १४८१ वैशाख सुदि ३
रविवार
जयशेखरसूरि
प्रतिमालेख/स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान संदर्भग्रन्थ चन्द्रप्रभस्वामी की अनुपूर्ति लेख, मुनिजयन्तविजय प्रतिमा का लेख आबू पूर्वोक्त, लेखांक ६१८ अजितनाथ की संभवनाथ विनयसागर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय, लेखांक २३०
अजमेर शान्तिनाथ की चिन्तामणि नाहटा, अगरचन्द प्रतिमा का लेख जिनालय, पूर्वोक्त, लेखांक ७०९
बीकानेर नमिनाथ की प्रतिमा ॥ का लेख
लेखांक ७१०
७२ १४८२ वैशाख वदि ८
पद्मशेखरसूरि
वही,
७४,
सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख
महावीरस्वामी विनयसागर, पूर्वोक्त का मंदिर, लेखांक २३३ सांगानेर माणिकसागरजी वही, का मंदिर, लेखांक २३४ कोटा
"
",
मुनिसुव्रत की मावत की प्रतमिा का लेख
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________________
७६ १४८३ वैशाख सुदि.
शान्तिनाथ की प्रतिमा का लेख
महावीर जिनालय, सांगानेर
वही, लेखांक २४३
मलयचन्द्रसूरि के पट्टधर पद्मशेखरसूरि मलयचन्द्रसूरि के पट्टधर विजयचन्द्रसूरि
७७ १४८३ भाद्रपद वदि ७
गुरुवार
पार्श्वनाथ जिनालय का शिखर बनवाने का उल्लेख
जैनमंदिर,' लोटा, दौलतसिंह, पूर्वोक्त, थराद लेखांक २९० एवं मुनि
जयन्तविजय संपा० अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजन लेखसंदोह, लेखांक १४०
पद्मशेखरसूरि
७८ १४८३ वैशाख सुदि ३
मंगलवार ७९ १४८३ मार्गशिर सुदि ५
सोमवार
सुविधिनाथ की विमलवसही, मुनिजयन्तविजय, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख आबू लेखांक ७५ पद्मप्रभ की प्रतिमा माणिकसागर विनयसागर, पूर्वोक्त का लेखा
जी का मंदिर, लेखांक २४४
महीतिलकसूरि ।
कोटा
८० १४८५ ज्येष्ठ सुदि १३
सोमवार
पद्मशेखरमूरि
धर्मनाथ की प्रतिमा महावीरस्वामी नाहटा, अगरचन्द का लेख
का जिनालय, पूर्वोक्त लेखांक १३५८ बीकानेर
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________________
क्र. संवत् तिथि
८१ १४८५ ज्येष्ठ सुदि १३ सोमवार
८२ १४८५ ज्येष्ठ सुदि १३
८३ १४८६ ज्येष्ठ सुदि १३ सोमवार
८४ १४८७ आषाढ़ सुदि ९
८५ १४८७ श्रावण वदि ५ रविवार
आचार्य नाम पद्मशेखरसूरि
मलयचन्द्रसूरि के पट्टधर पद्मशेखरसूरि
महीतिलकसूरि
पद्मशेखरसूरि
पद्मशेखरसूरि
प्रतिलालेख / स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान
संभवनाथ की
प्रतिमा का लेख
संभवनाथ की प्रतिमा का लेख
आदिनाथ की
प्रतिमा का लेख
शान्तिनाथ
जिनालय, नमकमण्डी,
आगरा
शांतिनाथ
जिनालय,
आगरा
नयमंदिर,
जयपुर
मुनि सुव्रतस्वामी चिन्तामणि
की प्रतिमा का
लेख
जिनालय,
बीकानेर
वासुपूज्यस्वामी
विमलनाथ
की पंचतीर्थी का जिनालय,
लेख
सवाईमाधोपुर
संदर्भग्रन्थ
नाहर, पूरनचन्द, पूर्वोक्त भाग २, लेखांक १४९१
वही, भाग २
लेखांक १४९१
विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक २६० एवं
नाहर, पूरनचन्द
भाग २, लेखांक ११८०
नाहटा, अगरचन्द,
पूर्वोक्त, लेखांक ७३६
विनयसागर, पूर्वोक्त,
लेखांक २६६
Page #79
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________________
१४एप ज्यष्ठ वाद ८
रविवार
मलयचन्द्रसूार क पट्ट धर पद्मशेखरसूरि
सुविधिनाथ की जैन मंदिर, मुनिबुद्धिसागर जैन चौबीसी का लेख खंभात धातुप्रतिमालेखसंग्रह,
भाग २, लेखांक ७४२ विमलनाथ की संभवनाथ जिनालय, विजयसागर, पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेख अजमेर लेखांक २९१
८७ १४९२ मार्गशिर वदि ४ पद्मशेखरसूरि
गुरुवार ८८ १४९३ वैशाख सुदि ५
बूधवार ८९ १४९३ वैशाख सुदि ५
बुधवार
चन्द्रप्रभ की चिन्तामणि नाहटा, अगरचन्द प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर पूर्वोक्त, लेखांक ७६६
वासुपूज्य स्वामी चन्द्रप्रभ जिनालय वही, लेखांक १६४७ की चौबीसी का बीकानेर लेख
विजयचन्द्रसूरि
९० १४९३ पौष वदि १
शनिवार
कुन्थुनाथ की शांतिनाथ जिनालय वही, लेखांक १८२९ प्रतिमा का लेख नाहटों की गवाड़
बीकानेर
९१ १४९३ वैशाख सूदि ५
बुधवार .
विजयचन्द्रसूरि ( पद्म- सुमतिनाथ की शेखरसूरि के पट्टधर) प्रतिमा का लेख
जैनमंदिर, थराद लोढ़ा, दौलतसिंह
पूर्वोक्त, लेखांक ९८
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________________
क्र. संवत् तिथि आचार्य नाम ९२ १४९४ वैशाख सुदि.? विजयचन्द्रसूरि
प्रतिमालेख/स्तम्भलेखा प्रतिष्ठास्थान , संदर्भग्रन्थ सुविधिनाथ की चिन्तामणि नाहटा, अगरचन्द प्रतिमा का लेख जिनालय, पूर्वोक्त,
बीकानेर लेखांक ७७४ सुमतिनाथ की पार्श्वनाथ मंदिर. वही, प्रतिमा का लेख नौहर, बीकानेर लेखांक २४८५
९३ १४९५ ज्येष्ठ सुदि १३ वि .....?
सोमवार ९४ १४९५ ज्येष्ठ सुदि १४ विजयचन्द्रसूरि
बुधवार
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
शीतलनाथ जिनालय, उदयपुर
नाहर, पूरनचन्द पूर्वोक्त, भाग २ लेखांक
९५ १४९५ फाल्गुन वदि
रविवार
चन्द्रप्रभ
नाहटा, अगरचन्द जिनालय, काल, पूर्वोक्त बीकानेर लेखांक २५१३
वही.
९६ १४९५ पौष वदि १
शविवार
चन्द्रप्रभ की प्रतिमा का लेख
महावीर जिनालय, बीकानेर
लेखांक १३३८
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________________
९७ १४९५ फाल्गुन वदि
रविवार
पद्मशेखरसूरि के पट्टधर विजयचन्द्रसूरि
शांतिनाथ की चन्द्रप्रभ जिनालय, नाहटा, अगरचन्द प्रतिमा का लेख काल , बीकानेर पूर्वोक्त
लेखांक २५१३
९८ १४९६ वैशाख सुदि १२ महीतिलकसूरि
शांतिनाथ की चन्द्रप्रभ जिनालय, नाहर, पूरनचन्द प्रतिमा का लेख जैसलमेर पूर्वोक्त, भाग ३
लेखांक २३११ सुव्रतनाथ की चिन्तामणि
नाहटा, अगरचंद प्रतिमा का लेख जिनालय, पूर्वोक्त
बीकानेर लोखांक ७९१
९९ १४९६ फाल्गुन वदि १० विजयचन्द्रसूरि
रविवार
१०० १४९७ माघ सुदि ८
सोमवार
१०१ १४९७ चैत्र सुदि १५
पद्मसूरिशिष्य मुनिपद्मसागर विजयचन्द्रमूरिं
विमलनाथ की
वही, लेखांक ७९९ प्रतिमा का लेख
विमलवसही. मुनिजयन्तविजय,
आबू पूर्वोक्त, लेखांक १६९ सुमतिनाथ की चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोत प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर लोखांक ८०३
१०२ १४९८ माघ सुदि ५
गुरुवार
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________________
T
Hom
- PORIES
प्रतिमालेखा स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान , संदर्भग्रन्थ
क्र. संवत् तिथि आचार्य नाम १०३ १४९८ फाल्गुन वदि २ विजय चन्द्रसूरि
वासुपूज्यस्वामी आदिनाजिनालय, नाहर, पूरनचन्द, की प्रतिमा का हीराबाड़ी, पूर्वोक्त, भाग-२ लोख नागौर लेखांक १२४७ एवं
विनयसागर- पूर्वोक्त, लेखांक ३२७
१०४ १४९१ फाल्गुन वदि १३ महेन्द्रसूरि
चन्द्रप्रभस्वामी की चिन्तामणिजिनालय नाहटा, अगरचन्द प्रतिमा का लेख बीकानेर पूर्वोक्त, लेखांक ८१०
१०५ १५०१ फाल्गुन सुदि १३ विजयचन्द्रसूरि
गुरुवार
सुमतिनाथ की शीतलनाथ नाहर, पूरनचन्द, प्रतिमा का लेख जिनालय, मेवाड़ पूर्वोक्त, भाग-२
लेखांक १०७९
१०६ १५०१ माघ सुदि १०
सोमवार
विजयप्रभसूरि
शांतिनाथ की विमलनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय,
सवाईमाधोपुर
विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ३५२
Page #83
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________________
पास १५०१ माघ सुाद १०
सोमवार
महीतिलकसूरि के शिष्य विजयप्रभसूरि
रातार
पद्मप्रभ की प्रतिमा चन्द्रप्रभ जिनालय, नाहर, पूरनचंद का लेख आमेर पूर्वोक्त, भाग
लेखांक ११४४ एवं विनयसागर, पूर्वोक्त,
लेखांक ३४८. अभिनंदन स्वामी शांतिनाथ विनयसागर, पूर्वोक्त की प्रतिमा जिनालय, रतलाम लेखांक ३५३ का लेख
१०८ १५०१ फाल्गुन सुदि १३ पद्मशेखरसूरि के
शनिवार पट्टधर विजयचन्द्रसूरि
१०९ १५०३ ज्येष्ठ सुदि ११
॥
११०
"
"
अजितनाथ की प्रतिमा का लेख आदिनाथ की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
चिन्तामणि जी नाहटा, पूर्वोक्त का जिनालय, लेखांक ८६६ बीकानेर वीर जिनालय, नाहर, पूरनचंद बोहरनटोला, भाग २ लखनऊ
लेखांक १५४७ शांतिनाथ जिनालय, वही नमकमंडी, आगरा पूर्वोक्त, भाग २
लेखांक १४९२
१११ १५०३ माघ सुदि ५
महीतिलकसूरि
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________________
क्र. संवत् तिथि आचार्य नाम ११२ १५०४ मार्गसिर सुदि ५ पूर्णचन्द्रसूरि के पट्टधर
महेन्द्रसूरि
प्रतिमालेख/स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान . संदर्भग्रन्थ श्रेयांसनाथ चिंतामणि नाहटा, पूर्वोक्त, की प्रतिमा का जिनालय, लेखांक ८८३
बीकानेर
लेख
११३ १५०४ फाल्गुन सुदि ११ विजयचन्द्रसूरि
गुरुवार
११४ १५०५ वैशाख सुदि ५ महीतिलकसूरि
बुधवार
वासुपूज्यस्वामी पंचायती जैन नाहर, पूरनचन्द, की प्रतिमा का मंदिर, लस्कर, पूर्वोक्त, भाग-२ लेख
ग्वालियर लेखांक १३९९ सुविधिनाथ विमलनाथ, विनयसागर, की प्रतिमा जिनालय, पूर्वोक्त, लेखांक ३८९ का लेख सवाईमाधोपुर
वीर जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, प्रतिमा का वैदोंका चौक लेखांक १२०७ लेख
बीकानेर चन्द्रप्रभ चन्द्रप्रभ जिनालय, नाहर, पूरनचंद, की प्रतिमा मद्रास
पूर्वोक्त, भाग-२ का लेख
लेखांक २०६८
अरनाथ
११५ १५०५ पौष सुदि १५ विनयचन्दसूरि के
पट्टधर पद्मानन्दसूरि
११६ ,
"
पूर्णचन्द्रसूरि के पट्टधर महेन्द्रसूरि
Page #85
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________________
का १५०६ माघ सुदिप
रविवार
विजयचन्द्रसूरि के पट्टधर साधुरत्नसूरि
सुवा
सुविधिनाथ की प्रतिमा का लेख
चिंतामणि जी का जिनालय, बीकानेर
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक ९०२
११८ १५०६ माघ वदि ६
महीतिलकसूरि
वही, लेखांक ९०१
वासुपूज्य स्वामी चिंतामणि जी की प्रतिमा का का जिनालय, लेख
बीकानेर सुविधिनाथ खरतरगच्छीय की प्रतिमा आदिनाथ, का लेख जिनालय, कोटा
११९ १५०६ फाल्गुन वदि ५ विजयचन्द्रसूरि के
सोमवार पट्टधर साधुरत्नसूरि
विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ४०९
,
१२० १५०६ वैशाख सुदि ६
शुक्रवार १२१ १५०६ माघ सुदि ५
रविवार
शांतिनाथ की महावीर जिनालय, विजयधर्मसूरि प्रतिमा का लेख जूनागढ़ पूर्वोक्त, लेखांक २२४ श्रेयांसनाथ चिंतामणि नाहटा, पूर्वोक्त की प्रतिमा जिनालय, लेखांक ९०३ का लेखा बीकानेर आदिनाथ की बड़ा मंदिर विनयसागर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख नागौर लेखांक ४२२
१२२ १५०७ माघ सुदि १३ पद्माणंदसूरि
शुक्रवार
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________________
आचार्य नाम
क्र. संवत् तिथि १२३ १५०७ ज्येष्ठ सुदि १०
-
प्रतिमालेखा/स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान · संदर्भग्रन्थ सुविधिनाथ की शांतिनाथ जिनालय, नाहर, पूरनचन्द प्रतिमा का लेख चुरू, राजस्थान पूर्वोक्त, भाग-२
लेखांक १३६० धर्मनाथ को महावीर जिनालय, नाहटा, पर्वोक्त, प्रतिमा का लेख बीकानेर लेखांक १३२३ संभवनाथ शांतिनाथ विनयसागर, की प्रतिमा का जिनालय, पूर्वोक्त, लेखांक ४४९ लेख
रतलाम
१२४ १५०८ आषाढ़ वदि २ विजय चन्द्र के शिष्य
सोमवार साधुरत्नसूरि १२५ १५०९ फाल्गुन वदि १० ,
शनिवार
१२६ १५०९ माघ वदि ५
पद्माणंदसूरि
वीर जिनालय, वैदोंका चौक बीकानेर
नाहटा, अगरचंद पूर्वोक्त, लेखांक १२२२
१२७ १५०९ माघ वदि ५
रविवार
पद्मणंदसूरि
वही, लेखांक १२४०
सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख
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________________
२८ १५०९ ज्येष्ठ सुदि ११
पद्मशेखर के पट्टधर विजयचन्द्र के शिष्य पद्माणोदय (पद्माणंद)
धर्मनाथ की प्रतिमा का लेख
जैन मंदिर खेड़ा
मुनिबुद्धिसागर, संपा० जैनधातुप्रतिमालेख संग्रह, भाग २ लेखांक ४३८
सूरि
१२९ १५११ माघ वदि ५
महीतिलकसूरि
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
आदिनाथ जिनालय, नाहर, पूरनचंद, लखनऊ पूर्वोक्त, भाग २
लेखांक १५३८
१३० १५१२ वैशाख सुदि ३
पद्मशेखरसूरि के पट्टधर पद्माणंदसूरि
,
चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त, जिनालय, बीकानेर लेखांक ९५६
१३१ ,
"
"
वासुपूज्य की जिन्तामणि जिनालय वही, लेखांक ९५५ प्रतिमा का लेख बीकानेर
१
कुंथुनाथ की प्रतिमा का लेख
पार्श्वनाथ मंदिर, वही, लेखांक २४८६ नौहर, बीकानेर
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________________
क्र. संवत् तिथि
आचार्य नाम
१३३१५१२ वैशाख सुदि १० विनयचंद्रसूरि के पट्टधर
साधुरत्नसूरि
१३४ १५१२ मार्गशीर्ष वदि २
सोमवार
१३५ १५१२ ज्येष्ठ सुदि १
१३६
"
11
"
"
13
प्रतिमालेख / स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान
आदिनाथ
की प्रतिमा का लेख
अरनाथ की प्रतिमा का लेख
विमलनाथ
की प्रतिमा का लेख
शीतलनाथ
की प्रतिमा का लेख
जैन मंदिर
खंभात
महावीर
जिनालय,
सांगानेर
आदिनाथ
जिनालय, देबीकोट, जैसलमेर
सुमतिनाथ
जिनालय, जयपुर
संदर्भग्रन्थ
मुनि बुद्धिसागर,
पूर्वोक्त, भाग-२ लेखांक १०९०
विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ४८४
नाहटा, पूरनचंद, पूर्वोक्त, भाग-३
लेखांक २५७९
नाहर, पूरनचंद पूर्वोक्त, भाग-२ लेखांक १०८८
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________________
गुरुवार
पट्टधर साधुरत्नसूरि
शातलनाथ का शीतलनाथ नाहर, पूरनचंद प्रतिमा का लेख जिनालय, उदयपुर पूर्वोक्त, भाग-२
लेखांक १०८८ एवं विजयधर्मसूरि पूर्वोक्त, लेखांक २८८
१३८ १५१३ वैशाख सुदि ३
महीतिलकसूरि
शान्तिनाथ की प्रतिमा
१३९ १५१३ ज्येठ वदि ११ पद्मशेखरसूरि के पट्टधर पार्ननाथ ।
पद्माणंदसूरि की प्रतिमा
का लेख १४० १५१३ ज्येष्ठ वदि ११ साधुरत्नसूरि सुमतिनाथ गुरुवार
की प्रतिमा
का लेख १४१ , , , नमिनाथ
की प्रतिमा का लेख
गौड़ीपार्जनाथ नाहटा, पूर्वोक्त जिनालय, गोगी लेखांक १९३५ दरवाजा, बीकानेर गौड़ीपार्श्वनाथ नाहर, पूरनचन्द, जिनालय, मोती पूर्वोक्त, भाग-२ कटरा, आगरा लेखांक १४७४ वीर जिनालय, नाहटा, अगरचन्द बीकानेर पूर्वोक्त, लेखांक १३५३
आदिनाथजिनालय, वही, लेखांक २४९५ लूणकरणसर, बीकानेर
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________________
क्र. संवत् तिथि १४२ १५१३ आषाढ़ वदि ९
गुरुवार
१४३१५१४ माघ सुदि १ शुक्रवार
१४४ १५१५ ज्येष्ठ सुदि ५ सोमवार
आचार्य नाम
पद्मानंदसूरि
१४६ १५१७ वैशाख सुदि ४ गुरुवार
पद्मशेखरसूरि के पट्टधर पद्माणंदसूरि
१४५ १५१५ मार्ग (?) सुदि महीतिलकसूरि १० गुरुवार
विजयचन्द्रसूरि के पट्टधर अभिनन्दननाथ
साधुरत्नसूरि
की प्रतिमा का लेख
प्रतिमालेख / स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थापन संदर्भग्रन्थ
पद्माणंदसूरि
चन्द्रप्रभ
की प्रतिमा
का लेख
कुंथुनाथ की चौबीसी का लेख
सुमतिनाथ
की प्रतिमा
का लेख
आदिनाथ
की प्रतिमा
का लेख
चिंतामणि
जिनालय,
बीकानेर
जैन मंदिर खंभात
महावीर जिनालय
जैसलमेर
गौड़ोजी भंडार,
उदयपुर में
संरक्षित
चिन्तामणि
जिनालय,
बीकानेर
नाहटा, अगरचन्द पूर्वोक्त, लेखांक ९६९
मुनिबुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२
लेखांक ८७५
नाहर, पूरनचंद पूर्वोक्त, भाग-३,
लेखांक २४१२
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखांक २९७
नाहटा, अगरचंद
पूर्वोक्त, लेखांक १०००
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________________
"१४७ १५१७ माघ वाद ८
रविवार
विजयचन्द्रसूरि के पट्टधर आदिनाथ साधुरत्नसरि की प्रतिमा
का लेख
चिन्तामणि जिनालय, बीकानेर
नाहटा, अगरचन्द पूर्वोक्त लेखांक १००२
१४८ १५१७ माघ सुदि १
शुक्रवार
शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख
जैनमंदिर, खंभात
मुनि बुद्धिसागर संपानधातुप्रतिमा लेखसंग्रह, भाग-२ लेखांक १०६४ वही, भाग-२ लेखांक ८०
१४९ १५१८ चैत्र सुदि ३
अभिनन्दनस्वामी जैनमंदिर, की प्रतिमा बडोदरा का लेख
१५० १५१८ चैत्र सुदि ३
अभिनन्दनस्वामी जैनमंदिर, की प्रतिमा खंभात का लेख
वही, भाग-२ लेखांक १०४६
१५१ १५१८ वैशाख सुदि ४
रविवार
महीतिलकसूरि
पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख
महावीर जिनालय, भिनाम
विनयसागर, पूर्वोक्त; लेखांक ५७७
Page #92
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________________
AANTATE
सन्दर्भ ग्रन्थ विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ५८१
क्र. संवत् तिथि
आचार्य नाम प्रतिमालेख/स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान १५२ १५१८ मार्गसिर सुदि १० रूपचन्द्रसूरि के पट्टधर मूलनायक शनिवार पद्मशेखरसूरि के की प्रतिमा
पट्टधर विजयचन्द्रसूरि पर उत्कीर्ण लेख
के पट्टधर पद्माणंदसूरि १५३ माघ वदि ५ साधुरत्नसूरि
पार्श्वनाथ जैनमंदिर, १५[१]८ मंगलवार
को प्रतिमा बडोदरा
का लेख १५४ १५१८ फाल्गुन वदि १ पद्माणंदसरि सुविधिनाथ जैनमंदिर, सोमवार
की चौबीसी थराद
का लेख १५५ १५१९ वैशाख वदि ११ साधुरत्नसूरि संभवनाथ आदिनाथ . शुक्रवार
की प्रतिमा
जिनालय,
का लेख १५६ १५१९ वैशाख सुदि ३ महीतिलकसरि सुमतिनाथ चन्द्रप्रभ शनिवार
की प्रतिमा जिनालय, का लेख कोटा
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२ लेखांक १०९ लोढ़ा, दौलतसिंह, संपा०श्रीप्रतिमालेखसंग्रह, लेखांक २६९ मुनि विजयधर्म सूरि संपा० प्राचीन लेख संग्रह, लेखांक ३३५ विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ५९०
जामनगर
Page #93
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________________
१५७ १५२० वैशाख सुदि ९
सोमवार
विजयचन्द्रसूरि के पट्टधर साधुरत्नसूरि
सुविधिनाथ की प्रतिमा का लेख
पंचायती जैनमंदिर नाहर, पूरनचन्द लस्कर,
पूर्वोक्त, भाग-२, ग्वालियर लेखांक १३७७
ग्वालि
१५८ १५२० मार्गसिर सुदि ९ पद्मशेखरसूरि के
पट्टधर पद्माणंदसूरि
सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख
अष्टापद जिनालय, जैसलमेर
वही, भाग-३ लेखांक २१६६
१५९ १५२० मार्गसिर सुदि ९
,
सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख
चन्द्रप्रभ जिनालय, नाहटा, अगरचन्द जैसलमेर
पूर्वोक्त, लेखांक २७४७
१६० १५२० मार्गसिर सुदि ९
शनिवार
॥
चन्द्रप्रभ की प्रतिमा का लेख
मुनि कान्तिसागर संपा०जैनधातुप्रतिमा लेख, लेखांक १७६
__शान्तिनाथ
जिनालय, भिंडी बाजार बम्बई जैनमंदिर, थराद
१६१ १५२१ ज्येष्ठ सुदि ९
सोमवार
सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख
लोढ़ा, दौलतसिंह, पूर्वोक्त, लेखांक १२३
Page #94
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________________
संदर्भग्रन्थ
क्र. संवत् तिथि
आचार्य नाम प्रतिमालेख स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान. १६२ १५२१ आषाढ़ सुदि १० पद्माणंदमूरि शीतलनाथ चिन्तामणि गुरुवार
की प्रतिमा जिनालय, का लेख
बीकानेर १६३ १५२२ आषाढ़ सुदि ८ श्रीसाधु
सुमतिनाथ नेमिनाथ की प्रतिमा जिनालय,
का लेख मुर्शिदाबाद १६४ १५२३ आषाढ़ सुदि ६ पद्माणंदसूरि के पट्टधर कुन्थनाथ केशरियानाथ रविवार गुणसुन्दरसूरि
जिनालय,
का लेख भिनाय १६५ १५२२ फाल्गुन वदि ११ धर्मसुन्दरसूरि के पट्टधर श्रेयांसनाथ महावीर
लक्ष्मीसागरसरि की प्रतिमा जिनालय,
का लेख सांगानेर १६६ १५२३ माघ वदि ११ पद्मशेखरसूरि के पार्श्वनाथ
पट्टधर पद्माणंदसूरि की प्रतिमा शाहपुर,
का लेख जिला, थाणा,
महाराष्ट्र
नाहटा, अगरचंद पूर्वोक्त, लेखांक १२५१ नाहर, पूरनचंद पूर्वोक्त, भाग-२, लेखांक १०१३ विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ६२९
वही, लेखांक ६२२
मुनिबुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१ लेखांक १९०
गुरुवार
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"१६७ १५२४ मार्गशीर्ष सुदि १० पद्माणंदसूरि
कुन्थुनाथ की प्रतिमा का लेख
चितामणि जिनालय, बीकानेर
नाहटा, अगरचंद पूर्वोक्त, लेखांक १०३८
१६८ १५२५ वैशाख सुदि ६ विजयचन्द्रसूरि के
सोमवार पट्टधर साधुरत्नसूरि
पार्श्वनाय की प्रतिमा का लेख
जैनमंदिर, खंभात
मुनि बुद्धिसागर संपा० जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग-२, लेखांक १०७५ विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ६:०
१६९ १५२५ ज्येष्ठ वदि १
गुरुवार
साधुरत्नसूरि
धर्मनाथ की प्रतिमा का लेख
शान्तिनाथ जिनालय, चंदलाई
१७० १५२६ ज्येष्ठ वदि ८
शालिभद्रसूरि
शान्तिनाथ
___ वही, लेखांक ६८१
वासुपूज्य की प्रतिमा का लेख
जिनालय,
रतलाम
१७१ १५२७ माघ सुदि ३ पद्माणंदसूरि
वही, लेखांक ६९८
श्रेयांसनाथ की प्रतिमा का लेख
विमलनाथ जिनालय, बेतेड़
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क्र. संवत् तिथि आचार्य नाम प्रतिमालेख स्तम्भलेख, प्रतिष्ठास्थान . संदर्भग्रन्थ १७२ १५२७ मार्गसिर सुदि ५ विजयचन्द्रसूरि के पट्टधर धर्मनाथ पंचायती विनयसागर, पूर्वोक्त, शुक्रवार . श्री "सरि
की प्रतिमा मंदिर, जयपुर लेखांक ६८९
का लेख १७३ १५२८ वंशाख वदि ५ पद्माणंदसूरि धर्मनाथ की शांतिनाथ जिनालय, वही, लेखांक ७०२
प्रतिमा का लेख नागौर
१७४ १५२८ वैशाख सुदि १० साधुरत्नसूरि
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
चिंतामणि मुनि कांतिसागर पार्श्वनाथ जैनधातुप्रतिमालेख, जिनालय, बम्बई भाग-१ लेखांक २०७
१७५ १५२९ वैशाख वदि ५
पद्माणंदसूरि
धर्मनाथ की प्रतिमा का लेख शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख
शांतिनाथ नाहर, पूरनचंद, जिनालय, नागौर पूर्वोक्त, भाग-२
लेखांक १३२६ चितामणि नाहटा, अगरचंद जिनालय, पूर्वोक्त, लेखांक १०६३ बीकानेर
१७६ १५२९ माघ सुदि ५
पद्मशेखरसूरि
रविवार
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१७७ १५२९ माघ सुदि ५
रविवार
पद्मशेखरसूरि के पट्ट- शांतिनाथ की अजितनाथ नाहटा, अगरचंद धर पद्माणंदसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर पूर्वोक्त, लेखांक १५३५
कुन्थुनाथ की प्रतिमा का लेख
विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ७१५
१७८ १५२९ माघ सुदि ५
रविवार
चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, मेड़तासिटी
१७९ १५३० माघ सुदि १०
साधुरत्नसूरि
वही, लेखांक ७२९
विमलनाथ की प्रतिमा का लेख
पार्श्वनाथ जिनालय,
सांभर
चिन्तामणि
वही, लेखांक ७३५
१८० १५३१ आषाढ़ सुदि २
आदिनाथ पद्मशेखरसूरि के पट्ट- की प्रतिमा धर पद्माणंदसूरि
का लेख
लय,
किशनगढ़
१८१ १५३१ मार्गसिर वदि ९ लक्ष्मीसागरसूरि
बुधवार
शांतिनाथ की मुनिसुव्रत जिनालय, वही, लेखांक ७३७ प्रतिमा का लेख मालपुरा
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क्र. संवत् तिथि १८२ १५३२ ज्येष्ठ वदि ३
रविवार
आचार्य नाम साधुरत्नसूरि
प्रतिमालेख स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान संदर्भग्रन्थ शांतिनाथ की जैन मन्दिर मुनिबुद्धिसागर संपा० प्रतिमा का लेख खंभात जैनधातु प्रतिमा लेख
संग्रह, भाग-२
लेखांक ७२३ आदिनाथ की पंचायती मन्दिर, विनयसागर, पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेख जयपुर लेखांक ७५८
१८३ १५३३ ज्येष्ठ वदि ११ पासरत्नसूरि के पट्ट-
धर क्षेमरत्नसूरि
१८४ १५३३ मार्गशीर्ष सुदि ६ पद्मशेखरसूरि के पट्ट- सुविधिनाथ की महावीर जिनालय, नाहटा, अगरचन्द शुक्रवार धर पद्माणंदसूरि प्रतिमा का लेख बीकानेर पूर्वोक्त,
लेखांक १५३३ १८९ १५३४ चैत्र वदि १० -
आबू मुनिजयन्तविजय गुरुवार
पूर्वोक्त, लेखांक १७५
१८६ १५३४ मार्गशीर्ष वदि ५ धर्मसुन्दरसूरि के पट्टधर विमलनाथ की आदिनाथ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त, भाग २,
लक्ष्मीसागरसूरि प्रतिमा का लेख नागौर लेखांक १३१८
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पाट पर३१ मा पुदि ९
लक्ष्मी सागरसूरि
कुंयुनाथ को शांतिनाथ जिनालय, विनयसागर, पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेख रतलाम
लेखांक ७९३
१८८ १५३५ मार्ग वदि १२ पद्मशेखरसूरि के पढ़- पार्श्वनाथ की शीतलनाथ नाहर, पूरनचन्द धर पद्माणंदसरि प्रतिमा का लेख जिनालय, उदयपुर पूर्वोक्त, भाग-२
लेखांक १०९८ एवं विनयसामर, पूर्वोक्त, लेखांक ४५८
१८९ १५३७ वैशाख सुदि ३
,
आदिनाथ की प्रतिमा का लेख
जैनमंदिर, [खंभात] बुद्धिसागर, पूर्वोक्त,
भाग-२ लेखांक ८६८
१९० १५३७ माघ वदि १३ मानदेवसूरि
विमलनाथ की पार्श्वनाथ जिनालय, नाहर, परनचन्द, शुक्रवार
प्रतिमा का लेख हैदराबाद पूर्वोक्त, भाग-२
लेखांक २०५३ १९१ १५३८ मार्गसिर वदि ५ धर्मसुन्दरसूरि के पट्टधर विमलनाथ की बड़ाजिनालय, विनयसागर, पूर्वोक्त,
लक्ष्मीसागरसूरि पंचतीर्थी प्रतिमा नागौर लेखांक ८१८
का लेख
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क्र. सवत् तिथि
आचार्य नाम प्रतिमालेख स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान संदर्भग्रन्थ १९२ १५४३ मार्गसिर वदि २ पुण्यवर्धनसरि सुमतिनाथ की महावीर जिनालय, नाहर, पूरनचन्द,
प्रतिमा का लेख जालोर पूर्वोक्त, भाग-२
लेखांक ९०४ १९३ १५७२ माघ वदि २ कमलप्रभसूरिके पट्टधर वासुपूज्यस्वामी वीर जिनालय, वैदों नाहटा, अगरचन्द
सोमवार पुण्यवर्धनसूरि प्रतिमा का लेख का चौक, बीकानेर पूर्वोक्त, लेखांक १३७२
१९४ १५५२ ज्येष्ठ सुदि १३
शुक्रवार
चन्द्रप्रभ की खरतरगच्छीय बड़ा मुनिकान्तिसागर संपा० प्रतिमा का लेखा मंदिर, कलकत्ता जैन धातु प्रतिमा लेखा,
भाग-१ लेखांक २६३
१९५ १५५४ माघ सुदि ५
पुण्यवर्धनसूरि
चन्द्रप्रभ की घर देरासर, झज्झ, नाहटा, अगरचन्द प्रतिमा का लेख बीकानेर पूर्वोक्त, लेखांक २३२४
१९६ १५५५ चैत्र सुदि ११
सोमवार
नंदिवर्धनसूरि
आदिनाथ की अजितनाथ जिनालय, वही, लेखांक १५५३ प्रतिमा का लेख कोचरों का चौक
बीकानेर
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१९७ १५५५ चैत्र सुदि ११
सोमवार
१९८ १५५९ आषाढ सुदि १०
१९९ १५६२ वैशाख सुदि २
२०० १५६३ माघ सुदि १५
पद्मानंदसूरि के पट्टधर नंदिवर्धनसूरि
"1
99
श्रुतसागरसूरि के पट्टधर लक्ष्मीसागर सूरि
२०१ १५६९ वैशाख सुदि ६ नंदिवर्धनसूरि
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख
आदिनाथ की प्रतिमा का लेख
सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख
शान्तिनाथ की प्रतिमा का लेख
शीतलनाथ जिनालय, नाहटा, अगरचन्द
पूर्वोक्त, लेखांक २४४३
रिणी, तारानगर, बीकानेर
संभवनाथ जिनालय, विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ९०४
अजमेर
श्रेयांसनाथ
जिनालय, हिण्डोन
बड़ा मन्दिर, नागौर
सुमतिनाथ जिनालय, नागौर
वही, लेखाङ्क ९१५
वही, लेखाङ्क ९१७
वही, लेखाङ्क ९४२
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Emain
क्रमाक
संवत् तिथि आचार्य नाम २०२ १९७० माघ वदि १३ नंदिवर्धनसूरि
बुधवार
प्रतिमालेख/स्तम्भलेख प्रतिष्ठास्थान , संदर्भग्रन्थ अजितनाथ की श्वे. जैनमंदिर, प्रतिमा का लेख सम्मेदशिखर पूर्वोक्त, भाग २,
लेखाङ्क १६९३
२०३ १५७० आषाढ़ सुदि ५
बुधवार
,
वासुपूज्य की घर देरासर, प्रतिमा का लेख लखनऊ
वही, भाग २, लेखाङ्क १६२०
२०४ १५७१ माघ वदि ५
शुक्रवार
पद्माणंदसूरि के पट्टधर अजितनाथ की अजितनाथ विनयसागर, नंदिवर्धनसूरि
__ प्रतिमा का लेख जिनालय, मालपुरा पूर्वोक्त, लेखाङ्क ९४७
२०५ १५७३ आषाढ़ सुदि ९
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श्री गंगा गोल्डेन नाहटा, अगरचन्द, जुबली म्यूजियम, पूर्वोक्त,
बीकानेर लेखांक २१५८ पद्माणंदसूरि के पट्टधर आदिनाथ की बड़ा जिनालय, विनयसागर, पूर्वोक्त, नंदिवर्धनसूरि प्रतिमा का लेख नागौर लेखांक ९५८
२०६ १५७६ ज्येष्ठ सुदि ८
रविवार
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२०७ १५७७ वैशाख सुदि ६
पद्माणंदसूरि के पट्टधर शान्तिनाथ की नंदिवर्धनसूरि प्रतिमा का लेख
चोसठियाजी का मदिर, नागौर
विनयसागर, पर्वोक्त, लेखांक ९६४ एवं नाहर, पूरनचन्द, भाग २, लेखांक १३२१
२०८ १५८७ फाल्गुन वदि ३ विजयचन्द्रसरि के बुधवार
पट्टधर साधुरत्नसूरि
वासुपूज्य की जैनमंदिर, प्रतिमा का लेख बडोदरा
मुनिबुद्धिसागर, संपा० जैनधातु प्रतिमालेखसंग्रह, भाग २, लेखांक १८१
२०९ १५९९ फाल्गुन वदि १ महेन्द्रसूरि
चन्द्रप्रभ की शान्तिनाथ, नाहटा, पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर लेखांक ११४६
२१० १६९१ वैशाख सुदि १० कल्याणसागरसूरि
गुरुवार
मुनिसुव्रत की मुनिसुव्रत, जिनालय, विनयसागर, पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेखा मालपुरा लेखांक ८७
-पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी
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जैनधर्म में मानव
डा० रज्जन कुमार
डा. सुनीता कुमारी - जैनधर्म मानवतावादी धर्म है। उसमें मनुष्य को विश्व के समस्त प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। जैन कथा-साहित्य के अनुसार इन्द्र और देवगण भी मनुष्य जीवन के लिए लालायित रहते हैं । जैन धर्म के अनुसार केवल मनुष्य-भव ही एक ऐसी अवस्था है, जहाँ निर्वाण या मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। इसकी पुष्टि सूत्रकृतांग में भी की गई है-मनुष्य को छोड़कर अन्य गति वाले जीव सिद्धि को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि उनमें ऐसी योग्यता नहीं है।' देवयोनि सुखसुविधा और सम्पन्नता की दृष्टि से चाहे कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हो फिर भी उससे मुक्ति या निर्वाण को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यद्यपि श्रमण परम्परा के सभी धर्मों ने मानव को महत्त्व दिया है किन्तु उनमें से कुछ परम्पराएँ ऐसी हैं, जो देवयोनि को मनुष्य के समकक्ष या उससे श्रेष्ठ मान लेती हैं। बौद्ध धर्म में भी यद्यपि मनुष्य को महत्त्व दिया गया है, किन्तु उसमें यह मान लिया गया है कि देवता भी सीधे निर्वाण को प्राप्त कर सकते हैं। वस्तुतः मनुष्य की गरिमा को जिस धर्म ने अखंडित रखा है, वह जैनधर्म ही है। उसके अनुसार न नारक, न तिर्यंच, न देव ही मोक्ष का अधिकारी है, बल्कि केवल मनुष्य ही इस पद को प्राप्त कर सकता है। सुख साधन की दृष्टि से देवता भले ही श्रेष्ठ हों, परन्तु साधनात्मक दृष्टि से मनुष्य श्रेष्ठ है। जैन-धर्म की परम्परागत मान्यता के अनुसार सात नरकों में से चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें नरक के प्राणी सम्यक् दर्शन से रहित हैं। पहले, दूसरे और तीसरे नरक के प्राणियों में कुछ सम्यक दृष्टि हो सकते हैं। इसी प्रकार देवता भी सम्यक् दर्शन से युक्त हो सकते हैं, किन्तु नारकीय और देव दोनों ही सम्यक् चारित्र का आंशिक रूप से भी पालन नहीं कर सकते । सम्यक् चारित्र के
१-- इह माणुस्सए ठाणे, धम्मारहिउं णरा । सूत्रकृतांग, १।१५।१५
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( १०६ ) पालन की दृष्टि से तो देवता का स्थान पशुओं से भी निम्न है । जैन धर्म के अनुसार कुछ तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पशु श्रावक के ग्यारह व्रतों तक का पालन कर सकते हैं किन्तु देवता नवकारसी ( एक व्रत-जिसमें सूर्य उदय के ४८ मिनट पश्चात् ही कोई खाद्य या पेय लिया जा सकता है ) का भी पालन नहीं कर सकते। देवता आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से चौथे गुणस्थान की दृष्टि से ऊपर नहीं जाते, जबकि पशु पांचवें गुणस्थान तक पहुँचने की सामर्थ्य रखता है किन्तु वह प्राणी तो मनुष्य ही है. जो सकल चारित्र का पालन करता हआ अन्त में १४ वें गुणस्थान में पहुँकर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार जैनधर्म के अनुसार मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो विश्व में सर्वश्रेष्ठ है । ___जैनागमों में मानव जीवन को दुर्लभ बताया गया है। मानव जीवन प्राप्त होना ही प्राणी के आध्यात्मिक विकास की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है लेकिन यह व्यक्ति के विकास की अंतिम अवस्था नहीं है, इससे भी महत्त्वपूर्ण है मनुष्यत्व की प्राप्ति । भगवान महावीर ने पावापुरी के अंतिम प्रवचन में चार ऐसी दुर्लभ वस्तुओं को बतलाया है जिनको प्राप्त करना कठिन है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' के चतुरंगीय नामक तृतीय अध्ययन में इन चार वस्तु
ओ की चर्चा है । इन चार दुर्लभ वस्तुओं में 'मनुष्यत्व' को सर्वप्रथम माना गया है। दूसरी दुर्लभ वस्तु 'श्रुति' अर्थात् सद्धर्म का श्रवण, तीसरी उस पर श्रद्धा और चतुर्थ उस दिशा में प्रयत्न या पुरुषार्थ है।'
मुक्ति केवल मानव शरीर से ही हो सकती है, अन्य किसी योनि या शरीर धारण करने से नहीं । मनुष्य के शरीर के समान
और भी बहुत से शरीर हैं। कुछ तो इस शरीर से आर्थिक शक्ति सम्पन्न भी हैं किन्तु उनमें मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता नहीं है, क्यों नहीं है ? इसका फलित अर्थ है 'मनुष्य देह से नहीं बल्कि मनुष्यत्व से मुक्ति होती है। किन्तु स्मरण रखना होगा कि मनुष्य शरीर पूर्वकर्म के फल से मिलता है और मनुष्यत्व कर्मफल को निष्फल करने से मिलता है। मनुष्य शरीर प्राप्त करने बाद भी मनुष्यत्व प्राप्त करना १- चात्तारि परमगणि दुल्लहाणीह जन्तुणो ।
माणसच सुई सद्धा संजममि च बीरिमं । उत्तराध्य य नसूत्र, ३.
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________________
( १०७ )
परम दुर्लभ है। यह मनुष्यत्व कालक्रम के अनुसार गति निरोधक कर्मों के क्षय होने से जीवों को शुद्धि के फलस्वरूप प्राप्त होता है।'
मनुष्यत्व के बाद दूसरा अंग श्रति अर्थात् सद्धर्म का 'श्रवण' है। तत्त्ववेत्ताओं द्वारा जाने गए मार्ग का श्रवण ही सद्धर्म का श्रवण है। इस श्रवण से व्यक्ति हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का बोध कर सकता है। मनुष्यत्व प्राप्त कर लेने के बाद भी श्रति परम दूर्लभ है।
तीसरी दुलंभता 'श्रद्धा' है। मनुष्यता और सद्धर्म के श्रवण से ही मुक्ति नहीं मिल सकती, उसके लिए श्रद्धा का होना आवश्यक है। 'श्रुति' के साथ सच्ची श्रद्धा जैसे दुर्लभ अंग का भी होना आवश्यक
अंतिम या चतुर्थ दुर्लभता 'पुरुषार्थ' है। जो कुछ श्रवण किया है और जिस पर श्रद्धा की है उसकी प्राप्ति की दिशा में पुरुषार्थ करना भी परम दुर्लभ है, क्योंकि पुरुषार्थ के अभाव में साध्य की प्राप्ति असंभव है।
वस्तुतः इन चार दुर्लभताओं में मनुष्यत्व की प्राप्ति ही एक ऐसा तत्त्व है जिससे विकास के अग्रिम चरणों पर बढ़ा जा सकता है, क्यों कि मनुष्य में ही धर्मश्रवण, उस पर श्रद्धा और तदनुरूप पुरुषार्थ करने की क्षमता होती है। मनुष्यता वह सोपान है जिसके द्वारा मानव धर्म साधना के राजमहलों में प्रविष्ट होता है । अतः जैन धर्म में मानव व्यक्तित्व का क्या स्थान है यह स्पष्ट हो जाता है। .
१--कम्माणं तु पहाणाए आण पुव्वी कयाइ उ।
जीवा सोहिमणु प्पत्ता आययन्ति मणुस्सयं ।। उत्तराध्ययन, ३७ २ - माणुस्सं पिग्गहं लद्धं सुई धम्मस्स दुल्लहा । .. ____जं सोच्चा पडिवज्जन्ति तवं खन्तिम हिंसयं ।। वही, ३८ ३- आहच्च सवणं लद्धं सद्धा परमदुल्लहा ।
सोच्चा नेआउयं मग्गं बढे परिभस्सई ।। वही, ३।९ ४-वही, ३।१०
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( १०८ )
जहां तक मानव व्यक्तित्व की बात है वह बहुआयामी है । उसके विविध रूप परिलक्षित होते हैं। मानवों में शारीरिक संरचना संबंधी विभिन्नता, स्वभावगत विविधता, रुचिवैचित्र्य, बौद्धिक योग्यता संबंधी विभिन्नताएँ और आध्यात्मिक विकास के विविध स्तर पाये जाते हैं। ये विविधताएँ चिरकाल से रही हैं। विविधताएँ एक आनुभविक सत्य हैं, इन्हें झुठलाया नहीं जा सकता । इनके आधार पर मानव को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जाता है।
मानव व्यक्तित्व के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से इसके तीन वर्ग मिलते हैं- (१) बहिर्मुखी (२) अन्तर्मुखी और (३) उभयमुखी।
(१) बहिर्मुखी-सामाजिक एवं प्राकृतिक पर्यावरण में अत्यधिक रुचि लेने वाले व्यक्ति को बहिर्मुखी कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति सामाजिक कार्यों में अधिक रुचि लेते हैं, अपने विषय में कम चिन्तित रहते हैं। ‘इंग्लिश एण्ड इंग्लिश' के अनुसार बहिर्मुखता का शाब्दिक अर्थ है 'अपने से बाहर जाना, अपने प्राकृतिक तथा सामाजिक पर्याबरण की वस्तुओं में अधिक रुचि लेना और अपने विचारों तथा भावनाओं की उपेक्षा करना।
. (२) अन्तर्मुखी - जिन व्यक्तियों की प्रवृत्ति समाज से दूर रहने की होती है, वे अन्तर्मुखी कहलाते हैं। ये लोग सामाजिक कार्यों में भाग न लेकर अपने में ही खोये से रहते हैं। प्रसिद्धग्रंथ 'इंग्लिश एण्ड इंग्लिश' में अन्तर्मुखी की व्याख्या इस प्रकार की गई है-'सामाजिक संबंधों से बचना, अपने ही विचारों में मग्न रहना ।' अन्तर्मुखता के कारण व्यक्ति का दृष्टिकोण वस्तुनिष्ठ नहीं हो पाता। वह सभी वस्तुओं का मूल्यांकन करते समय अपने को केन्द्रीय स्थान में रखता है । मानसिक रोगियों में अन्तर्मुखिता अत्यधिक पायी जाती है।
१-इंग्लिश एण्ड इंग्लिश, पृ० १९७ विशेष द्रष्टव्य 'व्यक्तित्वमनो
विज्ञान'-सीताराम जायसवाल पृ०-१७० २-वही. पृ० १७०
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( १०९ ) 'क्रो एण्ड क्रो' ने बहिर्मुखी तथा अन्तर्मुखी के गुणों का बड़े ही अच्छे ढंग से तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है।' उनका यह विवरण 'इंग्लिश एण्ड इंग्लिश' में वर्णित विवरण से मिलता-जुलता ही प्रतीत होता है। उदाहरणस्वरूप क्रो के अनुसार बहिर्मुखी धारा प्रवाह बोलने की क्षमता, चिन्ता से मुक्त तथ्यों पर भरोसा करने की शक्ति रखता है तो अन्तर्मुखी इसके विपरीत बोलने से अधिक लिखने में सफल, चिन्तित रहने, सरलता से विचलित हो जाने वाले गुणों से युक्त रहता है।
(३) उभयमुखिता-समाज में ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें बहिमुखता और अन्तर्मुखता के मिले-जुले लक्षण पाए जाते हैं। ऐसे लोग हो उभयमुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति कहे जाते हैं। अगर उभयमुखिता के बारे में विचार किया जाए तो निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा कता है कि उभयमुखिता वास्तव में व्यक्तित्व की ऐसी प्रवृत्ति है जो हिर्मुखिता एवं अन्तर्मुखिता में संतुलन बनाए रखने का प्रयास करती
जैन परम्परा में व्यक्तित्व के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमा* के रुप में जो वर्गीकरण किया गया है, वह मुख्यतः व्यक्ति के अध्यात्मिक और नैतिक चारित्र के विकास के आधार पर किया गया । इस दृष्टि से वह मनोविज्ञान के व्यक्तित्व बहिर्मुखी, अन्तर्मुखी र उभयमुखी वर्गीकरण से भिन्न ही है। मनोवैज्ञानिक वर्गीकरण जो उभयमुखी व्यक्तित्व का चित्रण है, वह जैनों के उपर्युक्त ध्यात्मिक वर्गीकरण में हमें उपलब्ध नहीं होता तथा इसकी ला परमात्मा से भी नहीं की जा सकती। जहाँ तक बर्हिमुखी व्यक्तित्व का अर्थ है वह सीमित अर्थ में रात्मा से साम्य रखता है, क्योंकि बहिरात्मा की मुख्य विशेषता १-एल. डी. क्रो एण्ड ए. सी. क्रो. एजुकेशनल साइकोलाजी,
न्यू देहली, उद्धृत. व्यक्तित्वमनोविज्ञान, पृ० १७१ २-जैनागमों में आत्मा के तीन रूपों की चर्चा बहिरात्मा अंतरात्मा है और परमात्मा के रूप में मिलती है। परमात्मा के पुनः दो भेद
(१) अरिहंत और (२) अशरीरी हैं ।
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( ११० )
बाह्य वस्तुओं और पदार्थों में अधिक होती है और बहिर्मुखी व्यक्ति भी बाह्य वस्तुओं और सामाजिक पर्यावरण में अधिक रुचि लेता है। सांसारिक सुख सुविधा की उपलब्धि और उसके भोगमें रुचि, बहिर्मुखी व्यक्तित्व और बहिरात्मा दोनों के सामान्य लक्षण हैं।
इसी प्रकार अन्तर्मुखी व्यक्ति भी किसी सीमा तक अन्तरात्मा के साथ तुलनीय हो सकता है, क्योंकि अन्तर्मुखता का प्रधान लक्षण है। सामाजिक सम्बन्धों से बचकर अपने चिन्तन में निमग्न एवं स्व. केन्द्रित रहना । अन्तरात्मा भी बाह्य विषयों में रुचि न लेकर अपने में निमग्न रहता है। चिन्तन और ध्यान तथा स्व के मूल्यांकन उसके मुख्य लक्षण हैं। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि मनोविज्ञान का अन्तर्मुखी व्यक्ति स्वकेन्द्रित होते हुए भी विषय वासनाओं से मुक्त नहीं होता तथा स्वार्थी होता है, जबकि अन्तरात्मा विषय वासनाओ पर नियंत्रण रखता है और स्वार्थी नहीं होता। उसका स्वार्थ केवल अपने आध्यात्मिक विकास में रुचि लेना ही है ।
जैसा कि पूर्व में संकेत किया गया है - उभयमुखी व्यक्तित्व परमात्मा के साथ तुलनीय नहीं है । केवल एक ही अर्थ में और वह भी सीमित रूप में उनमें समरूपता देखी जा सकती है, वह यह कि जिस प्रकार उभयमुखी व्यक्तित्व अपने और दूसरों के हित में रुचि रखता है। उसी प्रकार परमात्मा भी अपने आध्यात्मिक विकास और लोक कल्याण दोनों से सम्पन्न होता है। लेकिन हमें यहाँ यह नहीं भूलना। चाहिए कि परमात्मा का अर्हत् रूप ही इस कार्य में संलग्न रहता है। सिद्ध या अशरीरी रूप हर प्रकार के सांसारिक बन्धनों से मुक्त है जाता है। यद्यपि अर्हत् भी सांसारिक बन्धनों से युक्त नहीं होते हैं तथापि शरीर एवं अघातीय कर्मों से युक्त होने के कारण ही ये इ. सांसारिक कार्यों में लगे रहते हैं। ____ जहाँ तक मानव व्यक्तित्व के तुलनात्मक विवेचन का प्रश्न है के मनोविज्ञान के व्यक्तित्व का मनोवैज्ञानिक वर्गीकरण जैनों के व्यक्ति । त्व के आध्यात्मिक वर्गीकरण दोनों दो भिन्न आधारों पर स्थित हो हुए भी आंशिक रूप से समानता रखते हैं। ___इस तरह से हम देखते हैं कि जैन धर्म में मानव को एक बह। ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। समस्त धार्मिक एवं दार्शनिक विचार
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का यही मत है कि सांसारिक जीवों का परम लक्ष्य मोक्ष, निर्वाण या कैवल्य की प्राप्ति है। जीव से यहाँ तात्पर्य मानव के साथ-साथ अन्य समस्त सांसारिक प्राणियों से भी समझा जा सकता है, परन्तु मुख्यतया यहाँ इसका अर्थ मानव मात्र के लिए ही आया है। जैन धर्म में इस परम लक्ष्य ( मोक्ष, निर्वाण ) की प्राप्ति मात्र मानवपर्याय द्वारा ही संभव मानी गयी है। अतः जैन धर्म में मानव पर्याय की क्या उपयोगिता है, यह बात इसी तथ्य से उजागर हो जाती है कि वह कैवल्य प्राप्ति का एकमात्र साधक है। ___जहाँ तक मानव व्यक्तित्व का प्रश्न है तो जैनधर्म आधुनिक मनोविज्ञान की तरह अंतर्मुखी, बहिर्मुखी और उभयमुखी व्यक्तित्व की कल्पना तो नहीं करता, परन्तु बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा के रूप में मानव व्यक्तित्व की कल्पना अवश्य करता है। जहाँ तक परमात्मा का प्रश्न है यह तो मानव व्यक्तित्व का उच्चतम आध्यात्मिक स्वरूप है। इस अवस्था में आने वाला व्यक्ति पूर्णतया सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है तथा इस अवस्था तक वह अपने प्रयत्नों से ही पहुँचता है ऐसा भी मानना चाहिए। इसका अर्थ मात्र इतना ही हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रयत्नों से, अपनी साधना की सहायता से इस स्तर तक पहुँच सकता है और सांसारिक आवागमन से मुक्त हो सकता है।
रिसर्च एसोसिएट भोगीलाल लेहरचंद इंस्टिट्यूट ऑफ इंडोलाजी, दिल्ली C/o पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी
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साहित्य सत्कार
अर्चनार्चन (महासती श्रीउमरावकुवरजी म. सा. 'अर्चना दीक्षा स्वर्ण जयंती अभिनंदन ग्रंथ) : प्रधानसंपादिका- आर्या सुप्रभाकुमारी; पृ० ११५५, प्रथमसंस्करण १९८८; प्रकाशकमुनिश्रीहजारीमल-स्मृति प्रकाशन, पीपलिया बाजार ब्यावर (राजस्थान)
अध्यात्मयोगिनी, परमविदुषी, प्रखर व्याख्यात्री श्री अर्चनाजी म० की आर्हती दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण होने पर उन्हें यह 'अर्चना-दीक्षा स्वर्णजयन्तीवन्दन-अभिनन्दनग्रन्थ भेंट किया गया। इस महान् ग्रन्थ में विभिन्न मतों एवं विचारों वाले मनीषी विद्वानों के निबन्धों को संकलित किया गया है। ग्रंथ ५ खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में आशीर्वचन, शुभकामना, संदेश, अभिनन्दन आदि को समाहित किया गया है, इसमें लगभग ५५-५६ काव्याञ्जलियाँ भी हैं । अभिनन्दनग्रंथ का द्वितीय खण्ड महासतीजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व से सम्बन्धित है। २३१ पृष्ठों के इस खण्ड में १०० से ज्यादा लोगों के संस्मरण आदि का संकलन है। तृतीय खण्ड में महासतीजी के कुछ प्रवचनों-'भावशुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले', 'सत्साहित्य का अनुशीलन', 'संत और पंथ', 'तूफानों आदि से टक्कर लेनेवाला आस्था का दीपक', 'सम्पूर्ण संस्कृतियों का सिरमौर भारतीय संस्कृति', 'दीर्घजीवन या दिव्यजीवन', 'दहेजरूपी विषधर को निर्विष बनाओ' और 'विचार एवं आचार'
आदि ९ लेखों को स्थान दिया गया है। चतुर्थ खण्ड में जैन संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर जैन विद्या के लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों के लेखों को स्थान दिया गया है, जिसमें उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री द्वारा लिखित 'भगवान् महावीर की नीति', युवाचार्य डा० शिवमुनिजी म. द्वारा लिखित 'कर्मवाद का आधारभूत सिद्धान्त', डा० दरबारी लाल कोठिया का 'जैन अनुमान की उपलब्धियाँ', प्रो० संगमलाल पाण्डेय का 'जैन समाज दर्शन', डा० सागरमल जैन का 'धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता', डा० दामोदर शास्त्री का हरिभद्र के
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ग्रन्थों में दृष्टान्त व न्याय', डा० नरेन्द्र भानावत का 'राजस्थानी जैन साहित्य को जैन संत कवियों की देन', श्री सौभाग्यमल जैन का 'जैनधर्म में ईश्वर की अवधारणा', डा० जगदीशचन्द्र जैन का 'प्राकृत बोलियों की सार्थकता' आदि अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । अभिनन्दनग्रन्थ का पंचम और अन्तिम खण्ड योगसाधना से सम्बद्ध है । इसमें इस विषय पर देश के शीर्षस्थ विद्वानों के लेखों को स्थान दिया गया है । ग्रन्थ के चतुर्थ और पंचम खण्ड को तो अपने-अपने विषय पर स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में ही समझना चाहिए । यह ग्रन्थ प्रत्येक पुस्तकालय एवं जैन धर्मावलम्बियों तथा जैन विद्या के क्षेत्र में कार्यरत विद्वानों के लिये अनिवार्य रूप में संग्रहणीय है । ग्रन्थ की साज-सज्जा तथा कलात्मक मुद्रण एक गौरवपूर्ण अभिनन्दनग्रन्थ के सर्वथानुकूल है ! ऐसे विशाल एवं भव्य ग्रन्थ के प्रकाशन के लिये प्रकाशक एवं ब्यवस्थापक दोनों बधाई के पात्र हैं ।
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आरामसोहा कहा ( आरामशोभाकथा) : संपा० - डा० राजाराम जैन एवं डा० श्रीमती विद्यावती जैन; पृ० २२+७६; मूल्य १६.००रु०; प्रथम संस्करण १९८९; प्रकाशक - प्राच्यभारती प्रकाशन, आरा ( बिहार )
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विश्ववाङ्गमय में प्राकृत कथा साहित्य का विशिष्ट स्थान है । यह एक विडम्बना ही है कि इसका बहुलभाग अभी तक अप्रकाशित ही है और जो प्रकाशित भी है उसका भी प्रायः हिन्दी या अन्य भारतीय एवं आंग्ल भाषा में अनुवाद नहीं हो सका है । प्राकृत साहित्य प्राच्य भारतीय संस्कृति, लोकजीवन, सामाजिक रीति-रिवाजों, लोकविश्वासों तथा विविध साहित्यिक विधाओं का प्रतिनिधि साहित्य है । इसके अध्ययन के बिना प्राचीन तथा मध्ययुगीन भारतीय संस्कृति एवं इतिहास का अध्ययन अधूरा ही रहेगा । संतोष की बात हैं कि अब इस दिशा में अध्ययन के लिए विशेष प्रयास प्रारम्भ हो चुके हैं । निर्ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के रुद्रपल्लीयगच्छ के आचार्य संघतिलकसूरि द्वारा प्रणीत आलोच्यग्रन्थ 'आरामसोहाकहा' प्राकृत कथा - साहित्य की उपन्यास शैली की ७३ गाथाओं की एक लघु रचना
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( ११५ ) है । इसमें गो-पूजा एवं नाग-पूजा के साक्षात् फलों पर प्रकाश डालते हए ग्रन्थकार ने आत्मवाद, पुनर्जन्मवाद एवं पूर्वकृत-कर्मों के फलों पर रोचक कथाओं के माध्यम से सुन्दर प्रकाश डाला है। इसके सम्पादक प्रो० राजाराम जैन प्राकृत एवं अपभ्रश भाषा के शीर्षस्थ विद्वान् हैं। प्रन्थ के प्रारम्भ में १६ पृष्ठों की अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रस्तावना एवं प्रत्येक गाथा के साथ हिन्दी अनुवाद इसकी उपयोगिता को द्विगुणित कर देते हैं । इस महत्त्वपूर्ण कृति को प्रकाश में लाने के लिये इसके सम्पादक एवं प्रकाशन दोनों बधाई के पात्र हैं।
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चितन के चार चरण-विजयमुनि शास्त्री; पृ० १४+१५६; मूल्य -२० रुपये; प्रकाशन वर्ष १९८९; प्रकाशक-पापुलर इलेक्ट्रिक वर्स, फौवारा, आगरा;
प्रस्तुत पुस्तक में श्री विजयमुनि शास्त्री के अप्रकाशित लेखों का संकलन है । इसमें अध्यात्म, धर्म एवं दर्शन से सम्बद्ध १६ लेखों तथा संस्कृति, शिक्षा तथा साहित्य से सम्बन्धित २० लेखों को स्थान दिया गया है। पुस्तक प्रत्येक जैनो गासक के लिये पठनीय है। इसकी साजसज्जा आकर्षक एवं मुद्रण त्रुटिरहित है।
दुःख मुक्तिः सुख प्राप्ति -श्री कन्हैयालाल लोढ़ा; पृ० : १६+ १२६; मूल्य : ३० रुपये; प्रथम संस्करण-जून १९८९; प्रकाशकप्राकृत भारती अकादमी एवं सम्यक्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर । __ सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहल हैं। सम्पूर्ण मानव जीवन इसी सुख और दुःख पर ही आधारित है। ऐसा कोई प्राणी नहीं जिसे केवल दुःख या केवल सुख हो । संसार में प्रत्येक जीव चाहे वह छोटा हो या बड़ा, उसे जीवनसंग्राम में सुख और दुःख का सामना करना ही पड़ता है। हम सभी सुखी रहना ही चाहते हैं, दुःखी नहीं और इसके लिये सदैव प्रयत्नशील भी रहते हैं। जिस सुख को हम प्राप्त करना चाहते हैं, वह प्राप्त होते ही हम पुनः नये
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वस्तु की चाह या इच्छा करने लगते हैं और इसीलिये पुनः दुःखी हो जाते हैं। सभी प्राणियों के दुःख के कारण अलग-अलग हैं । कोई किसी कारण से दुःखी है तो कोई किसी अन्य कारण से । दुःखी सब हैं । क्या इस दुःख से मुक्ति सम्भव है ? इस पुस्तक में प्रबुद्ध विचारक श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा ने विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से बड़े ही रोचक शैली में उक्त प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया है । पुस्तक में श्री लोढ़ा जी द्वारा उक्त विषय पर लिखे गये १४ लेखों का सङ्कलन है। इसमें दैनिक जीवनोपयोगी बातों को बड़े ही सुन्दर ढंग से समझाया गया है । इन बातों का हम आंशिक पालन भी करें तो हमारा जीवन एक आदर्श जीवन बन सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं । यह पुस्तक प्रत्येक व्यक्ति के लिये पठनीय और मननीय है । पुस्तक का मुद्रण अत्यन्त सुस्पष्ट और त्रुटिरहित है ।
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आनन्दघनचौबीसी ( विवेचन ) श्री सहजानंदघनजी महाराज; सम्पादक : श्रीभंवरलाल नाहटा, पृ० ५८ + १७२; मूल्य : ३० रुपया प्रथम संस्करण -- १९८९ ; प्रकाशक - प्राकृतभारती, जयपुर एवं श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, हम्पी
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अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी महाराज भारतीय सन्त परम्परा के एक अत्यन्त उज्ज्वल नक्षत्र थे । आप सम्प्रदाय के बन्धन से मुक्त, उच्च कोटि के अध्यात्मतत्त्वज्ञ, निस्पृह साधक और अवधूत योगी के साथसाथ अद्वितीय विद्वान् भी थे । आपकी कृतियां यद्यपि संख्या की दृष्टि से अधिक तो नहीं हैं, किन्तु वे अतिगम्भीर एवं गूढ़ार्थ हैं जिनके मनन एवं चिन्तन से मानव आत्मविकास की ओर उन्मुख हो सकता है ।
आनन्दघनजी की रचनाओं में चौबीस तीर्थंकरों पर लिखी गयी चौबीसी अत्यन्त प्रसिद्ध है । इस पर यशोविजयजी, ज्ञानविमलसूरि जी, मुनिबुद्धिसागरजी, मोतीलाल गिरधरदास कापड़िया और सहजानन्दधनजी ने बालावबोध विवेचन आदि की रचना की है ।
आनन्दघनजी की चौबीसी एवं उस पर श्री सहजानन्दघन जी द्वारा लिखे गये विवेचन - भावार्थ को प्रसिद्ध विद्वान् श्री भंवरलाल
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जी नाहटा के सम्पादकत्व में प्रकाशित कर प्राकृत भारती एवं श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम ने एक अभिनंदनीय कार्य किया है । ग्रन्थ के प्रारंभ में लगभग ५० पृष्ठों की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना इसके महत्त्व को द्विगुणित कर देती है । इसकी साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक तथा मुद्रण त्रुटिरहित है। ऐसे सुन्दर प्रकाशन के लिये सम्पादक एवं प्रकाशक दोनों बधाई के पात्र हैं ।
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X नाकोड़ाश्री पार्श्वनाथतीर्थ - महोपाध्याय
X विनयसागर;
पृष्ठ १४ + २४०; मूल्य : ६० रुपया; प्रथम संस्करण - १९८९; प्रकाशक -- कुशल संस्थान, मोती डूंगरी रोड, ६२, गंगवाल पार्क, जयपुर
राजस्थान प्रान्त में भगवान् पार्श्वनाथ के अनेक तीर्थस्थान हैं, इनमें जीरावलापार्श्वनाथ, फलवधिका पार्श्वनाथ, करटक पार्श्वनाथ, पापरडापार्श्वनाथ, नाकोड़ापार्श्वनाथ, लोद्रवा पार्श्वनाथ, चंवलेश्वरपार्श्वनाथ आदि अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । प्रस्तुत पुस्तक नाकोड़ापार्श्वनाथ तीर्थ के इतिहास पर प्रकाश डाला गया है । इसमें ६ अध्याय हैं । प्रथम अध्याय में तीर्थों का महत्त्व, द्वितीय अध्याय में पुरुषादानीय पार्श्वनाथ और तृतीय अध्याय में तीर्थ के नामकरण की चर्चा है । चतुर्थ अध्याय में यहां के जिनालयों का इतिहास तथा पांचवें अध्याय में यहाँ प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण है । छठें अध्याय में वर्तमान समय में यहाँ हो रहे विकास कार्यों का विवरण दिया गया है । ग्रन्थ के अन्त में अत्यन्त उपयोगी दो परिशिष्टियाँ भी दी गयी हैं । पुस्तक में सात नयनाभिराम रंगीन एवं सादे चित्र भी दिये गये हैं, जो पाठकों को सहज हीं आकर्षित करते हैं । इन्हें देखने पर पाठक कुछ क्षण के लिये यह भूल जाता है कि वह इस तीर्थस्थान के चित्रों को देख रहा है बल्कि उसे यह अहसास होता है कि वह स्वयं तीर्थस्थान पर ही उपस्थित है ।
श्री विनयसागर जी से पूर्व मुनिश्री जयन्तविजयजी और मुनिश्री विशाल विजयजी ने भी आबू, कुंभारिया, राधनपुर आदि कई तीर्थों का इतिहास लिखा है । आज इस बात की महती आवश्यकता है कि सभी प्राचीन तीर्थक्षेत्रों का प्रामाणिक एवं सचित्र इतिहास लिखा जाये जो शोधार्थियों एवं श्रद्धालुओं दोनों के लिये समान
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( ११८ ) रूप से उपयोगी हो। आशा है कि समाज के अग्रगण्य श्रावक जिस प्रकार प्राचीन तीर्थों के संरक्षण पर ध्यान दे रहे हैं उसी प्रकार उनके इतिहास लेखन की भी उचित व्यवस्था करेंगे।
जैन दर्शन के मूल तत्व-विजयमुनि शास्त्री, पृष्ठ : १२+१७६, मूल्य : १५ रुपया, प्रथम संस्करण-अक्टूबर १९८९, प्रकाशक-दिवाकर प्रकाशन, अवागढ़ हाउस, महात्मा गांधी मार्ग, आगरा २८२००२ः
राष्ट्रसंत उपाध्याय अमरमुनि जी के सुशिष्य श्री विजय मुनि जी 'एक गम्भीर अध्येता एवं उत्कृष्ट वक्ता के रूप में विख्यात हैं । विवेच्य पुस्तक में मुनिश्री द्वारा पूना में दिये गये प्रवचनों का संकलन है। इसमें धर्म, अधर्म, काल, आकाश, पुदगल, जीव आदि
का विवेचन किया गया है। पुस्तक के अन्त में एक महत्त्वपूर्ण परि 'शिष्ट भी दी गयी है, जिसके अन्तर्गत प्रमाण, लक्षण, नय, निक्षेप पुद्गल आदि पर प्रकाश डाला गया है। अध्येताओं को जैन दर्शन का 'प्रारम्भिक परिचय देने में यह पुस्तक निश्चित ही सफल होगी।
स्मारिका-प्रतिष्ठा-दीक्षा-उद्यापन-गणिपद महोत्सन : १९८९; संपा. -गणेश ललवानी, पृ० ५८, प्रकाशक-श्री जिनदत्तसूरिमण्डल, सूरत
प्रस्तुत स्मारिका में सूरत में नवनिर्मित मुनिसुव्रत जिनालय में प्रतिमाप्रतिष्ठा, कु. कान्ता बोथरा की दीक्षा एवं मुनिश्री महिमाप्रभसागर जी म० के गणिपद महोत्सव का बड़ा ही सुन्दर एवं ' सचित्र विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही इसमें जैनधर्म, 'छ-री पालित संघ', 'व्यक्तित्व विकास', 'चित्तवृत्ति और अनुप्रेक्षा' आदि कई महत्त्वपूर्ण लेखों एवं कुछ कविताओं को स्थान दिया गया है । स्मारिका की साज-सज्जा अत्यंत आकर्षक तथा मुद्रण कलापूर्ण है। ऐसे सुन्दर प्रकाशन के लिए श्री जिनदत्तसूरिमंडल, सूरत बधाई के पात्र हैं।
'सिद्धगिरी का यात्री' : उपाध्याय केवलमुनिः; प्रकाशकदिवाकर, प्रकाशन एम. जी. रोड, आगरा २८२००२, पृ० ६४, मूल्य-आठ रुपया, प्रथम संस्करण, वि० सं० २०४६ :
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(११९) प्रस्तुत कृति 'सिद्धगिरि का यात्री' उपाध्याय श्री केवलमुनि का एक अनुपम लघु उपन्यास है। इसमें कथा के माध्यम से परोपकारी वृत्ति की प्रशंसा तथा स्वार्थः वृत्ति की भर्त्सना की गई है । आज के स्वार्थपरक परिवेश में यह पाठकों को परोपकारिता की प्रेरणा देगा, ऐसा हमारा विश्वास है । इसमें भाई-बहन (पृ. ६७१४७ ) नामक एक अन्य प्रेरणास्पद कहानी भी है। एतदर्थ लेखक अभिवाद्य हैं।
'महत्तराश्री मृगावतीजी' : संपा० रमणलालजी शाह; प्रकाशकश्री वल्लभसूरि स्मारक निधि, बम्बई । पृष्ठ-१७०, मूल्य पचास रुपया __ प्रस्तुत स्मारिका पूज्या श्री मृगावतीजी का भव्य एवं पवित्र जीवन वृत्ति प्रस्तुत करती है। इसके अतिरिक्त पूज्य साध्वीजी के धार्मिक एवं सामाजिक अनुष्ठानों जैसे जैन संस्थाओं को आर्थिक सहायता प्रदान करवाना, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करवाना इत्यादि का भी विवरण है । आशा है यह स्मारिका प्रेरणादायिनी सिद्ध होगी। इसके लिए सम्पादक महोदय धन्यवाद के पात्र हैं।
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_"जिनदेव दर्शन' : मोहनलालदलीचंद देसाई, प्रकाशक :- श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, १९८९, मूल्य बारह रुपये।
प्रस्तुत पुस्तक में सामायिकादि षडावश्यक के अतिरिक्त चतुविशति स्तवन, चैत्यवंदनादि आचार के नियमों पर बल दिया गया है। गुजराती भाषा में लिखित यह पुस्तक प्रेरणादायिनी सिद्ध होगीऐसी अपेक्षा है।
'आरामशोभारासमाला' : संपा० जयंत कोठारी; प्रकाशक: - डॉ० के० आर० चन्द्र, मानद मन्त्री-प्राकृत विद्या विकास फण्ड, . ७७।३७५, सरस्वतीनगर अहमदाबाद-१५ ।
आरामशोभाकथा जैन परम्परा की एक प्रसिद्ध कथा है जो .... ओरमान सन्तान के भाग्योदय के कथा घटक को समाहित किये हुए:
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है। इसका कथानक जगद्व्यापी होने के कारण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसके कथानक संस्कृत, प्राकृत और गुजराती तीनों ही भाषाओं में भित्र-भित्र लेखों हारा भिन्न-भिन्न समय में लिखित मिलते हैं। इसमें कथाएं दृष्टान्त रूप में दी गयी हैं। यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी । ऐसी अपेक्षा के साथ हम सम्पादक महोदय का अभिवादन करते हैं।
"प्रशमरति' : अनुवादक-महेश भोगीलाल, प्रकाशक :-श्रीमती नीता एम भोगीलाल, श्रीमती विमलबेन एस० लालभाई, श्रीमती द्रीनीबेन एन, शोधन, एलिस ब्रीज, अहमदाबाद ३८०००६,
प्रस्तुत पुस्तक तीन प्रकार के तप का निरूपण करती है । किसी कारणवश तप से पूर्ण सफलता न मिले तो उससे विश्वास नहीं हटा -लेना चाहिए, क्योंकि तप करते रहने से कुछ तो सिद्धि होती ही है। यह पुस्तक कर्म सिद्धान्त का भी संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करती है । पाठकों को यह लाभप्रद होगी, ऐसा विश्वास है। .
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________________ श्रमण जनवरी-मार्च 1990 रजि० नं० एल० 39 फोन : 31146 transform plastic ideas into beautiful shape NUCHEM MOULDS & DIES Our high-precision moulds and dies are Get in touch with us for information on designed to give your moulded product compression injection or transfer clean Flawless lines. Fully tested to give moulds Send a drawing or a sample of instant production the moulds are made your design It required we can of special alloy steel hard-chrome-plated undertake jobs right from the designing for a better finish, stage. Write to EM PLASTICS LTD. Engineering Division 20/6. Mathura Road Fandabad (Haryana) KADAMBARLIS Edited by Dr. Sagar Mal Jain and Published by the Director, P. V. Research Institute, Varanasi-221005 Printed at Divine Printers, Sonarpura, Varanasi.