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ग्रन्थों में दृष्टान्त व न्याय', डा० नरेन्द्र भानावत का 'राजस्थानी जैन साहित्य को जैन संत कवियों की देन', श्री सौभाग्यमल जैन का 'जैनधर्म में ईश्वर की अवधारणा', डा० जगदीशचन्द्र जैन का 'प्राकृत बोलियों की सार्थकता' आदि अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । अभिनन्दनग्रन्थ का पंचम और अन्तिम खण्ड योगसाधना से सम्बद्ध है । इसमें इस विषय पर देश के शीर्षस्थ विद्वानों के लेखों को स्थान दिया गया है । ग्रन्थ के चतुर्थ और पंचम खण्ड को तो अपने-अपने विषय पर स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में ही समझना चाहिए । यह ग्रन्थ प्रत्येक पुस्तकालय एवं जैन धर्मावलम्बियों तथा जैन विद्या के क्षेत्र में कार्यरत विद्वानों के लिये अनिवार्य रूप में संग्रहणीय है । ग्रन्थ की साज-सज्जा तथा कलात्मक मुद्रण एक गौरवपूर्ण अभिनन्दनग्रन्थ के सर्वथानुकूल है ! ऐसे विशाल एवं भव्य ग्रन्थ के प्रकाशन के लिये प्रकाशक एवं ब्यवस्थापक दोनों बधाई के पात्र हैं ।
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आरामसोहा कहा ( आरामशोभाकथा) : संपा० - डा० राजाराम जैन एवं डा० श्रीमती विद्यावती जैन; पृ० २२+७६; मूल्य १६.००रु०; प्रथम संस्करण १९८९; प्रकाशक - प्राच्यभारती प्रकाशन, आरा ( बिहार )
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विश्ववाङ्गमय में प्राकृत कथा साहित्य का विशिष्ट स्थान है । यह एक विडम्बना ही है कि इसका बहुलभाग अभी तक अप्रकाशित ही है और जो प्रकाशित भी है उसका भी प्रायः हिन्दी या अन्य भारतीय एवं आंग्ल भाषा में अनुवाद नहीं हो सका है । प्राकृत साहित्य प्राच्य भारतीय संस्कृति, लोकजीवन, सामाजिक रीति-रिवाजों, लोकविश्वासों तथा विविध साहित्यिक विधाओं का प्रतिनिधि साहित्य है । इसके अध्ययन के बिना प्राचीन तथा मध्ययुगीन भारतीय संस्कृति एवं इतिहास का अध्ययन अधूरा ही रहेगा । संतोष की बात हैं कि अब इस दिशा में अध्ययन के लिए विशेष प्रयास प्रारम्भ हो चुके हैं । निर्ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के रुद्रपल्लीयगच्छ के आचार्य संघतिलकसूरि द्वारा प्रणीत आलोच्यग्रन्थ 'आरामसोहाकहा' प्राकृत कथा - साहित्य की उपन्यास शैली की ७३ गाथाओं की एक लघु रचना
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