________________
व्यापक है और स्याद्वाद व्याप्य । अनेकान्त वाच्य है तो स्याद्वाद वाचक । अनेकान्त वस्तुस्वरूप है, तो स्याद्वाद उस अनेकान्तिक वस्तु स्वरूप के कथन की निर्दोष भाषा-पद्धति । अनेकान्त दर्शन है, तो स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का ढंग। विभज्जवाद और स्थाद्वाद : . विभज्जवाद स्याद्वाद का ही एक अन्य पर्यायवाची एवं पूर्ववर्ती है। सूत्रकृतांग में महावीर ने भिक्षुओं के लिए यह स्पष्ट निर्देश दिया कि वे विभज्जवाद की भाषा का प्रयोग करें।' इसी प्रकार भगवान बुद्ध ने भी मज्झिमनिकाय में स्पष्ट रूप से कहा था कि हे माणवक ! मैं विभज्जवादी हूँ, एकान्तवादी नहीं। विभज्जवाद वह सिद्धान्त है, जो प्रश्न को विभाजित करके उत्तर देता है । जब बुद्ध से यह पूछा गया कि गृहस्थ आराधक होता है या प्रवजित ? उन्होंने इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा कि गृहस्थ एवं त्यागी यदि मिथ्यावादी हैं तो आराधक नहीं हो सकते। किन्तु यदि दोनों ही सम्यक् आचरण करने वाले हैं तो दोनों ही आराधक हो सकते हैं। इसी प्रकार जब महावीर से जयंती ने यह पूछा कि सोना अच्छा है या जागना, तो उन्होंने कहा था कि कुछ जीवों को सोना अच्छा है और कुछ का जागना। पापी का सोना अच्छा है और धर्मात्माओं का जागना।' इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वक्ता को उसके प्रश्न का विश्लेषणपूर्वक उत्तर देना विभज्जवाद है। प्रश्नों के उत्तरों की यह विश्लेषणात्मक शैली विचारों को सुलझाने वाली तथा वस्तु के अनेक आयामों को स्पष्ट करने वाली है। इससे वक्ता का विश्लेषण एकांगी नहीं बनता है । बुद्ध और महावीर का यह विभज्जवाद ही आगे चलकर शून्यवाद और स्याद्वाद में विकसित हुआ है। शून्यवाद और स्याद्वाद:
भगवान् बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद इन दोनों को अस्वीकार १. भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा-सूत्रकृतांग-१।१।४।२२। २. मज्झिमनिकाय-सूत्र ९९ (उद्धृत, आगमयुग का जैन दर्शन, पृ० ५३) । ३. भगवतीसूत्र १२-२-४४३ । ४. देखिए-शून्यवाद और स्याद्वाद नामक लेख-पं० दलसुखभाई मालवणिया ।
--आचार्य आनन्द ऋषिजी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २६५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org