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________________ ( ४२ ) लोभ से तिरस्कार और अत्यन्त आग्रह से मनुष्य की मूर्खता परिलक्षित होती है।' वर्तमान युग में महात्मा गाँधी ने भी वैचारिक आग्रह को अनैतिक माना और सर्वधर्म समभाव के रूप में वैचारिक अनाग्रह पर जोर दिया। वस्तुतः आग्रह सत्य का होना चाहिए, विचारों का नहीं। सत्य का आग्रह तभी तो हो सकता है जब हम अपने वैचारिक आग्रहों से ऊपर उठे । महात्माजी ने सत्य के आग्रह को तो स्वीकार किया, लेकिन वैचारिक आग्रहों को कभी स्वीकार नहीं किया। उनका सर्वधर्म समभाव का सिद्धान्त इसका ज्वलन्त प्रमाण है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में अनाग्रह को सामाजिक जीवन की दृष्टि से सदैव महत्त्व दिया जाता रहा है, क्योंकि वैचारिक संघर्षों से समाज को बचाने का एक मात्र मार्ग अनाग्रह ही है । वैचारिक सहिष्णुता का आधार-अनाग्रह ( अनेकान्त दृष्टि) जिस प्रकार भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध के काल में वैचारिक संघर्ष उपस्थित थे और प्रत्येक मतवादी अपने को सम्यक्दृष्टि और दूसरे मिथ्यादृष्टि कह रहा था, उसी प्रकार वर्तमान युग में भी वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। सिद्धान्तों के नाम पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। कहीं धर्म के नाम पर एक दूसरे के विरुद्ध विषवमन किया जा रहा है । धार्मिक या राजनैतिक साम्प्रदायिकता जनता के मानस को उन्मादी बना रही है । प्रत्येक धर्मवाद या राजनैतिक वाद अपनी सत्यता का दावा कर रहा है और दूसरे को भ्रांन्त बता रहा है । इस धार्मिक एवं राजनैतिक उन्माद एवं असहिष्णुता के कारण मानव मानव के रक्त का प्यासा बना हुआ है। आज प्रत्येक राष्ट्र का एवं विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। एक ओर प्रत्येक राष्ट्र की राजनैतिक पार्टियाँ या धार्मिक सम्प्रदाय उसके आन्तरिक वातावरण को विक्षुब्ध एवं जनता के पारस्परिक सम्बन्धों को तनावपूर्ण बनाये हुए हैं, तो दूसरी ओर राष्ट्र स्वयं भी अपने को किसी एक निष्ठा से सम्बन्धित कर गुट बना रहे हैं और इस प्रकार विश्व के वातावरण को तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध बना रहे हैं। मात्र इतना ही नहीं यह वैचारिक असहिष्णुता, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन को विषाक्त बना रही है। पुरानी और १. शुक्रनीति, ३।२११-२१३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.525001
Book TitleSramana 1990 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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