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________________ धर्मघोषगच्छ का संक्षिप्त इतिहास -डा० शिव प्रसाद पूर्वमध्ययुग में श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्रकुल का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इस कुल से समय-समय पर अनेक शाखायें और प्रशाखायें निकलीं जो विभिन्न गच्छों के रूप में अस्तित्व में आयीं। ई० सन् की दसवीं शताब्दी के आसपास चन्द्रगच्छ की एक शाखा राजगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई । इस गच्छ में अभयदेवसूरि, वादीन्द्र धर्मघोषसूरि आदि प्रखर विद्वान् एवं प्रभावक आचार्य हुए। वादीन्द्र धर्मघोषसूरि की शिष्य-सन्तति धर्मघोषगच्छ के नाम से विख्यात हुई । इस गच्छ में कई प्रभावक सूरिवर हुए हैं, जिन्होंने लगभग ५०० वर्षों तक अपनी साहित्योपासना, तीर्थोद्धार, नूतन जिनालयों के निर्माण एवं जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आदि द्वारा मध्य युग में श्वेताम्बर श्रमण परम्परा को चिरस्थायित्व प्रदान करने में बहुमूल्य योगदान दिया। धर्मघोषगच्छ के इतिहास के अध्ययन के स्रोत के रूप में साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं। साहि त्यिक साक्ष्यों में ग्रन्थ प्रशस्तियों तथा प्रतिलिपि प्रशस्तियों के साथसाथ राजगच्छ की पट्टावली में भी इस गच्छ की चर्चा है। अभिले. खीय साक्ष्यों के अन्तर्गत वि. सं. १३०३ से वि. सं. १६९१ तक के लगभग २०० ऐसे अभिलेख मिले हैं जो तीर्थङ्कर प्रतिमाओं तथा जिनालयों के स्तंभ आदि पर उत्कीर्ण हैं और जिनमें इस गच्छ का उल्लेख है। इनका अलग-अलग विवरण इस प्रकार है साहित्यिक साक्ष्य-साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत मूल प्रशस्तियां तथा प्रतिलिपि प्रशस्तियां प्रमुख हैं। मूल प्रशस्तियां ग्रन्थकर्ता द्वारा रचना के अन्त में लिखी गयी होती हैं। इनमें ग्रन्थकार की गुरुपरम्परा का उल्लेख होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525001
Book TitleSramana 1990 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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