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२ - लघुक्षेत्र समासवृत्ति'
यह रत्नशेखरसूरि की रचना है। इसकी वि० सं० १५५० में धर्मघोषगच्छीय मुनि नन्दिवर्धनसूरि के शिष्य पाठक गुणरत्न द्वारा लिपिवद्ध की गयी एक प्रति मुनिश्री पुण्यविजय जी के संग्रह में सुरक्षित है ।
नंदिवर्धनसूरि के शिष्य पाटक गुणरत्न का उल्लेख करने वाला एक मात्र साक्ष्य होने से इस प्रशस्ति का विशिष्ट महत्त्व है |
३ – कल्पसूत्र - मुनिराज श्री पुण्यविजयजी के संग्रह में एक प्रति सुरक्षित है । यह प्रति मुनिउदयराज के वाचनार्थं लिखवायी गयी । यह बात इसकी दाता प्रशस्ति से ज्ञात होती है । इस प्रशस्ति की विशेषता यह है कि इसमें धर्मघोषगच्छीय आचार्य पद्माणंदसूरि और नंदिवर्धनसूरि को राजगच्छीय कहा गया है । जैसा कि प्रारम्भ में ही कहा जा चुका है धर्म घोषगच्छ का राजमच्छ की एक शाखा के रूप में ही उदय हुआ । १७ वीं शताब्दी में दोनों ही गच्छों का पूर्व प्रभाव समाप्तप्राय हो चुका था और उनका अलग-अलग स्वतन्त्र अस्तित्व भी नाम मात्र का ही रहा होगा । ऐसी स्थिति में एकसमकालीन लिपिकार अथवा साधु द्वारा उन्हें राजगच्छीय कहना अस्वाभाविक नहीं लगता ।
उद्यमात् सोमसिंहस्य सपुण्य पुण्यहेतवे । अलेखयच्छुभालेखां निजमातुगु णश्रियः ॥२०॥
यावच्चिरंधम्मंधराधिराजः सेवाकृतां सुकृतिनां वितनोति लक्ष्मीं मुनीन्द्रवृ देरिह वाच्यमाना तावन्मुदं यच्छतु पुस्तिकेयं ॥ २१ ॥
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संवत् १३४४ वर्षे मार्ग. शुद्धि रवी सोमसिंहेन लिखापिता ।। दलाल, चिमनलाल डाह्याभाई - पूर्वोक्त, पृ० ३७९
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१. श्रीधर्मघोषगच्छे भट्टारक श्रीनंदिवर्धनसूरीणां शिष्यपाठकगुणरत्नोपदेशेक सं० पट्टा तत्पुत्र सं० पासा तत्पुत्रसं लाषण सं०
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शाह, अम्बालाल पी०
पूर्वोक्त, जिल्द १, क्रमांक ३०३८
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