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( १०६ ) पालन की दृष्टि से तो देवता का स्थान पशुओं से भी निम्न है । जैन धर्म के अनुसार कुछ तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पशु श्रावक के ग्यारह व्रतों तक का पालन कर सकते हैं किन्तु देवता नवकारसी ( एक व्रत-जिसमें सूर्य उदय के ४८ मिनट पश्चात् ही कोई खाद्य या पेय लिया जा सकता है ) का भी पालन नहीं कर सकते। देवता आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से चौथे गुणस्थान की दृष्टि से ऊपर नहीं जाते, जबकि पशु पांचवें गुणस्थान तक पहुँचने की सामर्थ्य रखता है किन्तु वह प्राणी तो मनुष्य ही है. जो सकल चारित्र का पालन करता हआ अन्त में १४ वें गुणस्थान में पहुँकर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार जैनधर्म के अनुसार मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो विश्व में सर्वश्रेष्ठ है । ___जैनागमों में मानव जीवन को दुर्लभ बताया गया है। मानव जीवन प्राप्त होना ही प्राणी के आध्यात्मिक विकास की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है लेकिन यह व्यक्ति के विकास की अंतिम अवस्था नहीं है, इससे भी महत्त्वपूर्ण है मनुष्यत्व की प्राप्ति । भगवान महावीर ने पावापुरी के अंतिम प्रवचन में चार ऐसी दुर्लभ वस्तुओं को बतलाया है जिनको प्राप्त करना कठिन है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' के चतुरंगीय नामक तृतीय अध्ययन में इन चार वस्तु
ओ की चर्चा है । इन चार दुर्लभ वस्तुओं में 'मनुष्यत्व' को सर्वप्रथम माना गया है। दूसरी दुर्लभ वस्तु 'श्रुति' अर्थात् सद्धर्म का श्रवण, तीसरी उस पर श्रद्धा और चतुर्थ उस दिशा में प्रयत्न या पुरुषार्थ है।'
मुक्ति केवल मानव शरीर से ही हो सकती है, अन्य किसी योनि या शरीर धारण करने से नहीं । मनुष्य के शरीर के समान
और भी बहुत से शरीर हैं। कुछ तो इस शरीर से आर्थिक शक्ति सम्पन्न भी हैं किन्तु उनमें मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता नहीं है, क्यों नहीं है ? इसका फलित अर्थ है 'मनुष्य देह से नहीं बल्कि मनुष्यत्व से मुक्ति होती है। किन्तु स्मरण रखना होगा कि मनुष्य शरीर पूर्वकर्म के फल से मिलता है और मनुष्यत्व कर्मफल को निष्फल करने से मिलता है। मनुष्य शरीर प्राप्त करने बाद भी मनुष्यत्व प्राप्त करना १- चात्तारि परमगणि दुल्लहाणीह जन्तुणो ।
माणसच सुई सद्धा संजममि च बीरिमं । उत्तराध्य य नसूत्र, ३.
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