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परम दुर्लभ है। यह मनुष्यत्व कालक्रम के अनुसार गति निरोधक कर्मों के क्षय होने से जीवों को शुद्धि के फलस्वरूप प्राप्त होता है।'
मनुष्यत्व के बाद दूसरा अंग श्रति अर्थात् सद्धर्म का 'श्रवण' है। तत्त्ववेत्ताओं द्वारा जाने गए मार्ग का श्रवण ही सद्धर्म का श्रवण है। इस श्रवण से व्यक्ति हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का बोध कर सकता है। मनुष्यत्व प्राप्त कर लेने के बाद भी श्रति परम दूर्लभ है।
तीसरी दुलंभता 'श्रद्धा' है। मनुष्यता और सद्धर्म के श्रवण से ही मुक्ति नहीं मिल सकती, उसके लिए श्रद्धा का होना आवश्यक है। 'श्रुति' के साथ सच्ची श्रद्धा जैसे दुर्लभ अंग का भी होना आवश्यक
अंतिम या चतुर्थ दुर्लभता 'पुरुषार्थ' है। जो कुछ श्रवण किया है और जिस पर श्रद्धा की है उसकी प्राप्ति की दिशा में पुरुषार्थ करना भी परम दुर्लभ है, क्योंकि पुरुषार्थ के अभाव में साध्य की प्राप्ति असंभव है।
वस्तुतः इन चार दुर्लभताओं में मनुष्यत्व की प्राप्ति ही एक ऐसा तत्त्व है जिससे विकास के अग्रिम चरणों पर बढ़ा जा सकता है, क्यों कि मनुष्य में ही धर्मश्रवण, उस पर श्रद्धा और तदनुरूप पुरुषार्थ करने की क्षमता होती है। मनुष्यता वह सोपान है जिसके द्वारा मानव धर्म साधना के राजमहलों में प्रविष्ट होता है । अतः जैन धर्म में मानव व्यक्तित्व का क्या स्थान है यह स्पष्ट हो जाता है। .
१--कम्माणं तु पहाणाए आण पुव्वी कयाइ उ।
जीवा सोहिमणु प्पत्ता आययन्ति मणुस्सयं ।। उत्तराध्ययन, ३७ २ - माणुस्सं पिग्गहं लद्धं सुई धम्मस्स दुल्लहा । .. ____जं सोच्चा पडिवज्जन्ति तवं खन्तिम हिंसयं ।। वही, ३८ ३- आहच्च सवणं लद्धं सद्धा परमदुल्लहा ।
सोच्चा नेआउयं मग्गं बढे परिभस्सई ।। वही, ३।९ ४-वही, ३।१०
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