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जैनधर्म में मानव
डा० रज्जन कुमार
डा. सुनीता कुमारी - जैनधर्म मानवतावादी धर्म है। उसमें मनुष्य को विश्व के समस्त प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। जैन कथा-साहित्य के अनुसार इन्द्र और देवगण भी मनुष्य जीवन के लिए लालायित रहते हैं । जैन धर्म के अनुसार केवल मनुष्य-भव ही एक ऐसी अवस्था है, जहाँ निर्वाण या मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। इसकी पुष्टि सूत्रकृतांग में भी की गई है-मनुष्य को छोड़कर अन्य गति वाले जीव सिद्धि को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि उनमें ऐसी योग्यता नहीं है।' देवयोनि सुखसुविधा और सम्पन्नता की दृष्टि से चाहे कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हो फिर भी उससे मुक्ति या निर्वाण को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यद्यपि श्रमण परम्परा के सभी धर्मों ने मानव को महत्त्व दिया है किन्तु उनमें से कुछ परम्पराएँ ऐसी हैं, जो देवयोनि को मनुष्य के समकक्ष या उससे श्रेष्ठ मान लेती हैं। बौद्ध धर्म में भी यद्यपि मनुष्य को महत्त्व दिया गया है, किन्तु उसमें यह मान लिया गया है कि देवता भी सीधे निर्वाण को प्राप्त कर सकते हैं। वस्तुतः मनुष्य की गरिमा को जिस धर्म ने अखंडित रखा है, वह जैनधर्म ही है। उसके अनुसार न नारक, न तिर्यंच, न देव ही मोक्ष का अधिकारी है, बल्कि केवल मनुष्य ही इस पद को प्राप्त कर सकता है। सुख साधन की दृष्टि से देवता भले ही श्रेष्ठ हों, परन्तु साधनात्मक दृष्टि से मनुष्य श्रेष्ठ है। जैन-धर्म की परम्परागत मान्यता के अनुसार सात नरकों में से चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें नरक के प्राणी सम्यक् दर्शन से रहित हैं। पहले, दूसरे और तीसरे नरक के प्राणियों में कुछ सम्यक दृष्टि हो सकते हैं। इसी प्रकार देवता भी सम्यक् दर्शन से युक्त हो सकते हैं, किन्तु नारकीय और देव दोनों ही सम्यक् चारित्र का आंशिक रूप से भी पालन नहीं कर सकते । सम्यक् चारित्र के
१-- इह माणुस्सए ठाणे, धम्मारहिउं णरा । सूत्रकृतांग, १।१५।१५
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