________________
( ३० )
- एक समन्वयात्मक दृष्टि का विकास :
S
स्याद्वाद का लक्ष्य
(अ) दार्शनिक विचारों के समन्वय को आधार स्याद्वाद : भगवान् महावीर और बुद्ध के समय भारत में वैचारिक संघर्ष और दार्शनिक विवाद अपने चरम सीमा पर था । जैन आगमों के अनुसार उस समय ३६३ और बौद्ध आगमों के अनुसार ६२ दार्शनिक मत प्रचलित थे । वचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता थी, जो लोगों को आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए दिशा निर्देश दे सके । भगवान् बुद्ध ने इस आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए विवाद पराङ्मुखता को अपनाया । सुत्तनिपात में वे कहते है कि मैं विवाद के दो फल बताता हूँ । एक तो वह अपूर्ण व एकांगी होता है और दूसरे कलह एवं अशान्ति का कारण होता है । अतः निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न पड़े ।' बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित सभा पर विरोधी दार्शनिक दृष्टिकोणों को सदोष बताया और इस प्रकार अपने को किसी भी दार्शनिक मान्यता के साथ नहीं बाँधा । वे कहते है कि पंडित किसी दृष्टि या वाद में नहीं पड़ता । बुद्ध की दृष्टि में दार्शनिक वादविवाद निर्वाण मार्ग के साधक के कार्य नहीं हैं । अनासक्त मुक्त पुरुष के पास विवाद रूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। इसी प्रकार भगवान् महावीर ने भी आग्रह को साधना का सम्यक् पथ नहीं समझा। उन्होंने भी कहा कि आग्रह, मतान्धता या एकांगी दृष्टि उचित नहीं है जो व्यक्ति अपने मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करने में ही पांडित्य दिखाते हैं, वे संसार चक्र में घूमते रहते हैं । इस प्रकार भगवान् महावीर व बुद्ध दोनों ही उस युग की आग्रह वृत्ति एवं मतान्धता से जन मानस को मुक्त करना चाहते थे फिर भी बुद्ध और महावीर की दृष्टि में थोड़ा अन्तर था । जहाँ
१. सुत्तनिपात ५१-२१.
२. सुत्तनिपात ५१-३.
३. सुत्तनिपात्त ४६-८-९.
४.
सयं सयं पसंसंता गरहन्ता परं वयं ।
जे उतत्थ विउस्सयन्ति संसारेते विउस्सिया - सूत्रकृतांग १-१-२-२३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org