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( ३२ ) माध्यस्थ सहितं ह्येक पदज्ञानमपि प्रभा। शास्त्रकोटि वृथैवान्या तथा चौबल महात्मना ।
-अध्यात्मसार, ६९-७३ सच्चा अनेकान्तवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोण (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्र को, क्योंकि अनेकान्तवादी को न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती। सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी तो वही है, जो स्याद्वाद का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव रखता है। वास्तव में माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद माध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है। माध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के पद का ज्ञान भी सफल है अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है। क्योंकि जहाँ आग्रह बुद्धि होती है वहाँ विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन संभव नहीं होता। वस्तुतः शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, अभेदवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद, हेतुवाद, अहेतुवाद, नियतिवाद, पुरुषार्थवाद, आदि जितने भी दार्शनिक मत-मतान्तर हैं, वे सभी परम सत्ता के विभिन्न पहलुओं से लिये गये चित्र हैं और आपेक्षिक रूप से सत्य हैं द्रव्य दृष्टि और पर्याय दृष्टि के आधार पर इन विरोधी सिद्धान्तों में समन्वय किया जा सकता है। अतः एक सच्चा स्याद्वादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है, वह सभी दर्शनों का आराधक होता है । परमयोगी आनन्दघनजी लिखते हैं
षट् दरसण जिन अंग मणी जे, न्याय षडंग जो साधे रे। नमि जिनवरना चरण उपासक, षटदर्शन आराधे रे ।। १ ॥ जिन सुर पादप पाय बखाणुं, सांख्य जोग दोय भेदे रे । आतम सत्ता विवरण करता, लही दुय अंग असेदे रे ॥२ ।। भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनपर दोय कर भारी रे । लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुगमथी अवधारी रे ॥ ३ ॥ लोकायतिक सुख कूख जिनवरकी, अंश विचार जो कीजे । तत्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पीजे ॥ ४॥ जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे। अक्षर न्यास धरा आराधक, आराधे धरी संगे रे ॥ ५ ॥
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