Book Title: Sramana 1990 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 46
________________ अध्ययन की सुविधा के लिये सर्वप्रथम ग्रन्थ प्रशस्तियों, तत्पश्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों और अन्त में मूल ग्रन्थों के प्रतिलेखन की दाताप्रशस्तियों एवं पट्टावली से प्राप्त विवरणों का विवेचन प्रस्तुत किया गया हैधर्मघोषगच्छीय आचार्यों के रचनाओं की प्रशस्तियों का विवरण १- आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणवृत्ति'-- आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरण खरतरगच्छीय आचार्य जिनवल्लभसूरि की प्रसिद्ध कृति है। इस पर ग्रन्थकार के शिष्य रामदेव गणि; बृहद्गच्छीय आचार्य हरिभद्रसूरि तथा धर्मघोषगच्छीय यशोभद्रसूरि द्वारा रचित वृत्तियां उपलब्ध होती हैं । यशोभद्रसूरि ने वृत्ति के अन्त में अपनी गुरुपरम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है शीलभद्रसूरि वादीन्द्रधर्मघोषसूरि यशोभद्रसूरि [ वृत्तिकार ] २-धर्मघोषसूरिस्तुति यह ३३ पद्यों की एक लघु रचना है, जिसके रचयिता धर्मघोषगच्छीय रविप्रभसूरि हैं। इन्होने इस रचना में अपने गुरु का नामोल्लेख तो नहीं किया है, परन्तु इनके शिष्य उदयप्रभसूरि ने अपनी रचना प्रवचनसारोद्धार की विषमपदव्याख्या की प्रशस्ति १. दलाल, चिमनलाल डाह्याभाई- “ए डिस्क्रिप्टिव कैटलाग ऑफ मैन्यु स्क्रिप्ट्स इन द जैन भंडासं ऐट पाटन", ( बड़ोदरा, १९३७ ई० ) पृ० ३९५-३९६ । २. वही, पृ० ३६६-३७० ३. सपादलक्षक्षोणीशसमक्षं जितवादिनाम् । श्रीधर्मघोषसूरीणां पट्टालंकारकारकाः ॥ १ ॥ त्रिवगंपरिहारेण गद्यगोदावरीसृजः । बभूवुर्भू रिसौभाग्या: श्रीयशोभद्रसूरयः ॥ २ ॥ स्वपरसमयज्ञानप्रतिप्रकृष्टजगज्जनाश्चतुरवचना मोदाधष्टामरेशगुरुप्रभाः। अभिनृपसभं गंगागौरप्रनसितकीर्तयस्तदनु महस: पात्रं जाता रविप्रभसूरयः ।।३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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