Book Title: Sramana 1990 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 27
________________ ( २७ ) समझाया जा सकता है क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है, अरूपी सत्तावान है । उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके ।" इसे देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी का माध्यम नहीं बनाया जा सकता है । पुनः वस्तुतत्त्व की अनन्त धर्मात्मकता और शब्दसंख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तुतत्त्व को अवक्तव्य माना गया है । आचार्य नेमीचन्द्र ने गोम्मटसार में अनभिलाप्य भाव का उल्लेख किया है । वे लिखते हैं कि अनुभव में आये अवक्तव्य भावों का अनन्तवाँ भाग ही कथन किया जाने योग्य है । अतः यह मान लेना उचित नहीं है कि जैन परम्परा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ मान्य है । इस प्रकार जैन दर्शन में अवक्तव्यता के चौथे, पाँचवें और छठें अर्थ मान्य रहे हैं । फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष अव्यक्तव्यता और निरपेक्ष अवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्यता को स्वीकार करती है, निरपेक्ष को नहीं । वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व पूर्णतया वक्तव्य तो नहीं है किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य भी नहीं है । यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवक्तव्य अर्थात् अनिर्वचनीय मान लेंगे तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान-प्रदान का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा । अतः जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह निर्वचनीय भी है । सत्ता अंशतः निर्वचनीय है और अंशतः अनिर्वचनीय | क्योंकि यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल है । इस प्रकार पूर्व निर्दिष्ट पाँच अर्थों में से पहले दो को छोड़कर अन्तिम तीनों को मानने में उसे कोई बाधा नहीं आती है । मेरी दृष्टि में अवक्तव्य भंग का भी एक ही रूप नहीं है, प्रथम तो "है" और "नही है" ऐसे विधि १. सव्वे सरा नियति, तक्का जत्थ न विज्जइ मई तत्थ न गहिया उवमा न विज्जई अपयस्य पयं नत्थि । आचारांग १-५-१७१ २. पण्णवणिज्जा भावा अनंतभांगो दु अणमिलप्पानं । पण वणिज्जाणं पुण अनंतभागो सुदनिबद्धो || गोम्मटसार, जीव ३३४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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