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रपि न भवति चेन्सत्यम् स्यादी' इत्यस्यानुवृत्तौ हि कोष्टी भक्तिरस्य कोष्टीभक्तिशी नि न सिध्यति । 'लुन्तरङ्ग ेभ्यः' इति न्यायात्पूर्वमेव ऐका
| ३|२८| इति विभक्तेलुं पि लुप्यय्वृल्लेनत् ।७।१।११२ ॥ इति स्थानिवबुभाव निषेधादादेशा भावात् । यद्वा त्रिचतु स्ति० | २|१|१| इत्यत्र 'स्थादी' इति भणनात् ॥९३॥
उत्तर
॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥
प्रश्न - ( १ ) क्रिश्चियन, मिशनरी खोलकर प्रतिवर्ष नयेक्रिश्चियन बनाते हैं तो नये जैन बनाने के लिये वैसा करने की क्या जरुरत नहीं है ?
क्रिश्चियन, नये क्रिश्चियन बनाने के लिये माया, प्रपंच, झूठ आदि अनेक पप करते है । लोगों को भ्रमित कर ईसाई बनाते है । ऐसे ऐसे प्रचार करते है जिसका वर्णन नहीं हो सकता । पाप करके बनाये हुए नये लोग अपने माता पिता को भी भूल जाते हैं । धर्म में जोड़ने हेतु क्या पाप करने की छूट है? विषय कषाय के रागी बने हुए क्या धर्म करते धर्म तो समझा समझाकर देने का है इस कार्य को तो हम करते ही हैं ।
श्रीअहित परमात्मा भी संसार कैसा है धर्म कैसा है मोक्ष कैसा हैं यह समझाते हैं । यदि लांच रिश्वत से धर्म दिया जाता होता तो अरिहंत परमात्मा में ताकत नहीं थी वैसा था क्या ? इन्द्रादि देवता जिनके सेवक थे मनुष्य कितने हैं ? जबकि इन्द्रादि देव तो असंख्य हैं । जो भगवान के पीछे पीछे घूमते है, यदि इन्द्रादिदेवों को कहा होता कि हरेक को लाख लाख रुपये देकर धर्मी बना दो तो क्या अशक्य था ? धर्म तो समझाकर ही दियां जाता हैं ।