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'व्याख्यानात् अवाप्योः-तनिकी-भ्याम् धाग्नहिभ्यां च क्रमेण सम्बन्धः । विपीत्यादेशयोश्च यथासंख्यं सम्बन्धः । पृषोदरादिप्रपञ्च एषः तेन शिष्टप्रयोगोऽ-नुसरणीयस्तेन वगाहादयोपि साधुत्वेन विज्ञेया: । पृषोदरादिसूत्रविषय एवार्थोऽ नेन विस्तरेण प्रतिपादितः अर्थादिदं सूत्रं नापूर्वविधायक-मपि तु तत्पूरकमेवेति भावः। वतंस, अवतंस इति-अवपूर्वकात् तनोतेः सन्नौणादिकः, अवस्य पाक्षिको वकारादेशः । वक्रय अवक्रय इतिअवपूर्वकात् क्रीणाते वे अचि क्रय इति । अवेत्युपसर्गस्य वा वकारादेशः । पिहितम् अपिहितमिति-अपिपूर्वकात् दधातेः धातोहि इत्यादेशः । विकल्पेनापिशब्दस्य पि' इत्यादेशः । पिनद्धम्, अपिनद्धमिति-अपिपूर्वकस्य नह्यतेः वते प्रत्यये, पाक्षिकेऽ-पिशब्दस्य 'पि' इत्यादेशे च रूपद्धयम् ।।५६।।
॥ इति तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः ॥
दीक्षा को रोकना और.मोह का नाटक
भुशासन का आज्ञारंगी श्री संघ तो अच्छी तरह समझ सकता है किदीक्षा को रोकने की भावना, भयंकर मोह का नाटक हो है। दीक्षित नने वाले की उम्र का निर्णय तो अनन्त-ज्ञानीयों ने किया ही है। 'आठ * की उम्र हुई कि तुरन्त ही वह दीक्षा के लिये उम्र से योग्य बन ता है। यानी इसके सामने विरोध करने वाले, प्रभुशासन का ही रोध करने वाले है । अठारह वर्ष से नीचे की उम्र वाले को दीक्षा के ये अयोग्य कहना इसके जैसा घोर पाप कौन-सा है ? जिस उम्र को
तज्ञानियों ने योग्य बताई उस उम्र को अयोग्य कहना, इसके जैसी वाटल मनोवृत्ती दूसरी कौन सी है ? जो उम्र गुणों के आरोपण के लिये संशय योग्य है, उस उम्र को दीक्षा जैसी गुणमय वस्तु के लिये अग्य कहना, यह बुद्धि का सर्वथा दिवाला फूकने जैसी बात है।