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रहना यह भाग्यहीनता की निशानी है। कोई कहेगा कि 'प्रति वर्ष ये ही बातें सुननी कैसे पसन्द पड ? यह प्रश्न ही, मुल वस्तु की प्रीत का अभाव है, ऐसा सूचित करना है। परमतारक और परम शुद्ध देवों के चरित्र बारह महीने से सुनने का मौका मिले, उसमें बेचैनी किसको आवे? सभी पापप्रवत्तियों से मुक्त और केवलधर्मचारी ऐसे महापुरुषों के चरित्र और गुरु-वर्ग की परम्परा आदि के श्रवण का बारह महीने में मौका मिले, तब इस तरफ अरुचि किसको होवे ? देव के स्वरूप का और गुरु के स्वरूप का चिन्तन तो आत्मा को रोज करना चाहिये। इसी के योग से भी आत्मा की बहत शूद्धि शक्य है और सद्धर्म के सुन्दर आचारों को अपने जीवन में जीने की रणा मिलती है । शुद्ध देवतत्त्व पर, शुद्ध गुरुतत्त्व पर और धर्मतत्त्व पर श्रद्धा को बनाने का एवं आत्मा में श्रद्धा बनी हो तो उसको निर्मल बनाने का यह सुन्दर उपाय है। ऐसे सुन्दर संयोगो से कोई भी आत्मा वंचित रहे अथवा तो वचित बने, ऐसी प्रवृत्ति को तो वे ही आत्मा कर सकती है कि जिन आत्माओं को मोक्ष की अभिलाषा न हो । जो आज एक की एक बात से बेचैनी की बात करते हैं, वे इसका उत्तर दे सकेंगे क्या ? कि उनको श्रीकल्पसत्र में आने वाली सभी बातों की सच्ची ओर शक्य जितनी पूर्ण जानकारी है और इसी कारण अब वे नई कौन सी शोध में निकले हैं ? जिन लोगों को यह लगता हो कि 'श्रीकल्पसूत्र के वाचन में जो बातें देवसम्बन्धी, गुरु सम्बन्धी और धर्म सम्बन्धी कही जाती हैं, उसमें कुछ कस नहीं है, हम इससे भी अच्छा कह सकते हैं, ऐसी मनोवृति वाले मनुष्यों के लिये तो कहना ही क्या ? ऐसे मनुष्यों को श्रीपयु-षण पर्व में मानने वाले भी कैसे कहा जाय ? तो उन्होंने उनका नया कोई पर्व शोध निकालने के बदले, श्रीपर्युषण पर्व में ही और श्रीपर्युषणपर्व के नाम से ही भाषणश्रेणि योजने का क्यो पसंद किया? यह तो सूचना मात्र दी है, इस पर कहने जैसा तो बहुत ही है। यहां तो बात इतनी ही है कि-श्रीपर्युषण में श्रीकल्पसत्र का श्रवण यह अवश्यकर्तव्य है।
प०पू० कलिकाल-कल्पतरु आचार्यदेव श्री विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा