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जपादीनां पो वः | २|३|१०५ |
एषां पो वो वा स्यात् । जवा जपा | पारावतः, पारापतः
1१०५।
जयते इति धा०' |५|३|४७ | इश्यलि जपेति । पराद् विप्रकृष्टादापततीति विवपि परापत् तस्यापत्यं पारापतः । जपादयः प्रयोगतोऽनुसर्तव्याः ॥ १०५ ॥
॥ इति द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः ॥
आत्मा अभी एक ही शरीर में नहीं, परन्तु तोन शरीर में है ।
जगत में जीव और जड के सिवा कुछ भी नहीं है । जो संसार है तथा संसार को उपलब्धियां हैं, वे उसकी विद्यमानता जीव के साथ जड़ के एकमेव जैसे योग को ही लेकर ही हैं ।
'आप इच्छा करे तो आपको मिले बिना रहे ही नहीं' ऐसी यदि कोई भी वस्तु हो, तो वह एक मोक्ष ही है ।
आपके पिता की परंपरा अन दिकाल है, परन्तु पिता नहीं बनना यह आपके हाथ की बात है । वैसे आत्मा के साथ अनादिकालीन कर्म के योग के बारे में यदि आप सोचे और मेहनत करे, तो जरूर अन्त ला सकते हैं |
- लेखक
पू० परम शासनप्रभावक, व्याख्यान - वाचस्पति आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा