Book Title: Shrutsagar 2014 07 Volume 01 02
Author(s): Kanubhai L Shah
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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यतः
SHRUTSAGAR
रे महावीर मरीयचि भविं, कुलमद कर्यो अपार । तिणि भव धणा भमी भमी, छेहडइं माहणकुलि अवतार ||५६ |
18
रे माया मूलथी टालीइं, मायाना बहु भेद । मल्लिनाथ माया थकी, पाम्या स्त्री वेद ||५७ ||
रे नवइं नंद लोभी थया, मेली कंचनकोडि । कालिं ते देवे हरी, पोत आवि खोडि | १५८ ||
रे पांचई इंद्री जीतीइं, जिम टलई कषाइं । एकेकइं ते मोकलई, जीव बहु दुख थाय ।। ५९ ।।
रे पांच इंद्री वसिकरो, मन आणो ठाणी । मोटुं कारण मन तणुं मन जीतइं निरवाणि ॥ ६० ।।
यथा आलिंग्य पत्नी, तथा आलिंग्यते सुता । मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः ||६१ ।। मुंड मुडाई कहा..
।।६२।।
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JULY 2014
इम जाणी जीव...
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इम जाणी जीव...
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इम जाणी जीव....
इम जाणी जीव...
।।राम - आसाउरी ।।
आपण पोहता चार अनंती, देवलोक मझारि ।
जय जय नंदा जय जय भद्दा, जिहां करती सुरनारि ||६३ ||
पूजी परमेसरनी प्रतिमा, जाणूं नही सरुप ।
सहण विण समकित पाखइं, जोया विमान सरुप ||६४ ||
दीठउं देवलोक आनंदई, हीयडई हरख न माय । पडिया प्रमादि पूरण कीधां, सागरपल्यनां आय ||६५ ।।

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