Book Title: Shrutsagar 2014 07 Volume 01 02
Author(s): Kanubhai L Shah
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 39
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 37 श्रुतसागर जुलाई - २०१४ वंदिने इयदेव त्वं मे दहीति देयाः । कोऽर्थः अहं अ (न्य) त किमपि न याचे किंतु त्वं मम न्यायं मैत्रीमेव देया इति भावार्थः । अरिभस्तवने क्व चेत् पारसी क्वचित् आरब्दी क्वचिदपभ्रंशो ज्ञेयः । तुरा मरा इति सर्वत्र संबंधे संप्रदाने च ज्ञातव्यं । तथा च कुरानकारः अजइच्य त्वया दानसंबंध संप्रदाययोः । रा सर्वत्र प्रयुज्येतान्यत्र वाच्यं सू रूपतः ।। आनि मानि अस्मदीयं किं चि कियच्चं दिरीदृशं । चुनी हमचुनीन् तादृक् वंदिनं इयदेव च ।।। जेि किगपि इत्यादि कुरानोकं लक्षणं सर्वत्र विज्ञेयं संप्रदायाच्च । गाथार्थ :-हे जिन! हं तारी पासे शहर, गाग, देश, सोनू, अगर, कस्तुरी, कपुर, खांड, रोलडी आदि एवी कोइ सारी नरसी वस्तुनी पाचना नथी करतो. तुं तारा बंदाने-सेवकने एक मात्र न्याय्य भरेली मैत्री आप-अथात् आ सेवकने तुं तारी मित्रतानी बक्षीस आप, एटलुं ज हुँ तने पीनवु छु. ॥ इति श्री रामदेव रततनं राटीकमिदमदारिख ।। ।। श्री जिप्रभरिकृतिरियं ।। पं. लावण्यसमुद्रगणि नजाराग्रागे । ॥ इति श्री प्रिभारिकृत-पारसीभाषया श्रीऋषभदेवस्तवनं समाप्तगिति ।। ।। गं. लावण्यसमुद्रगजिशिष्य उदयरागुद्रगणि लिखितं । छ । छ ।। | कठिन शब्दार्थ ] आ स्तवनगां ज फारसी-आरबी शब्दो आपेला छे से अपभ्रष्टरूपमा छे. कारण के एओनां शुद्धरूप अने शुद्ध उच्चार तो जे ए भाषाओनो पूरो पंडित होय ते ज जाणी-करी शके. कर्णोपकर्णथी सांभळीने कोइ पण भाषा, शुद्ध ज्ञान थइ शकतुं नथी. ए ज्ञान माटे तो ते भाषानां व्याकरण, कोष अने साहित्यग्रंथोनो खास अभ्यारा थयो जोइए. केवळ कोइ भाषा बोलनारा लोको ना उपलक परिचयथी जाणी लीधेलो अने कर्णोपकर्ण सांभळी लीधेली भाषा यथार्थरूपमां अवगत थइ शकती नथी. ए रीते जे भाषानुं ज्ञान थाय छे ते प्रायः अपभ्रष्ट स्वरूपर्नु होय छे, जिनप्रभसूरिनुं फारसी-आरबी भाषाना शब्दोनुं ज्ञान पण अर्थात् आवाज स्वरूप, होवु जोइए. कारण के जे शब्द प्रयोगो आ स्तवनगां करेला छे ते पोताना मूळस्वरूप करता विलक्षण रूपमा ज दृष्टिगोचर थाय छे. जे रूपमा ए शब्दो आ For Private and Personal Use Only

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