Book Title: Shrutsagar 2014 07 Volume 01 02
Author(s): Kanubhai L Shah
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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SHRUTSAGAR
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JULY 2014
हिवै चोथो व्रत विराध्यो हुवै ते किम ? साधवी मथेणनी(?) बीजी पिण कोइ भेखधारणी, कुंवारी, बुधवा, सूहव (वा), वैश्या, स्त्रीसुं, कर्मविशेष सराग बात कीधी, संघट्टो कीधो, आलिंगन दीधो हुवै। जाणतां अथवा स्वप्न मांहे इतरा थोक (?) कीधा हुवै । वली नव ब्रह्मचर्य वाडि भांजी हुवै। स्त्रीपशु संसक्त वसति भोगवी हुवै ।।१।। स्त्रीसुं सराग वात कीधी हुवै ॥२॥ बिघडी मांहि स्त्रीने आसण बेठा हुवे ||३|| स्त्रीनां अंगोपंग कुच कक्ष - उदर प्रमुख सरागपणे जोया हुवै ||४|| कुनै आंतरे स्त्री-पुरुष काम क्रीडा करतां दीठा, सांभल्या हुवै ।।५।। गृहस्थावास मांहे काम क्रीडा करी हुवै ते संभारी हुवै || ६ || प्रणिताहारउ घीना चूवता कवल सरस आहार लीधा हुवै ||७|| शरीरनी विभूषाउ फूटरा दीसवा भणी अंगोल कीधी हुवै, मूंछ कतराबी हुवै, कांने पट्टा रखाया हुवै ||८|| सखरा वस्त्र, केसरिया वस्त्र सखरी कांबल पहिरीने वरणांगी कीधी हुवे | ९ || मकार चकार भकार प्रमुख गाल दीधी हुवै। देवांगणारी वंछा भोग मनमे धारी हुवै। इत्यादि प्रकार करी चौथा व्रतनी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां ( जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ।।४।।
हिवै पांचो व्रत विराध्यो हुवै। ते किंग? थिवर कल्पना चवदे उपगरणथी कारण विना मूर्च्छा करी अधिका उपगरण वस्त्र, पात्र, डांडा, डंडासणा, दोहणा, कुंडा, ढांकणी, प्रमुख राख्या हुवै। लोभनें बाह्य द्रव्य राख्या हुवे । लोभनें मोती, मांणक, मुंगीया, छुरी, कतरणी, नहरणी, सूइ, नखलो, पाछणो, अरगतीसार, चींपडी, चीपीयो, वाटको वाटकी, थाली, धातुरी सिली, त्रांवारी स्याहीरी डवी, मसरी, वावरी, प्रमुख सात धातुरो कोइ राछ पीछ राख्यौ हुवे । पोथी पाना प्रमुख धर्मोपगरण न्यानको उपगरण छै तो पिण ते ऊपर ममता अधिकी कीधी हुवै। इत्यादि प्रकार करी पांचमा व्रतनी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ||५||
हिवै छट्टो रात्रिभोजन विरमण व्रत विराध्यो हुवै ते किम ? असन' पान खादिम) स्वादिम चतुविध आहारनो रात्रिं परिभोग कीधो हुवै। लगवगती वेला आहारपाणी की हुवै । राति विहरीनें दिनें खाधो हुवै। संनिधी राखी खाधो हुवै। झोली ठाम खरड्या राख्या हुवै। गोचरी पडिकमतां चोविहार न कीधो हुवै। करीनै भाग हुवै। इत्यादि प्रकार करी छठ्ठा व्रतनी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ||६||
।। इति संजम विराधना मिथ्या दुःकृ (ष्कृत दानं ॥
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