Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
• श्रुतसागर
HIST
Volume : 01, Issue : 02
Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/Editor: Kanubhai Lallubhai Shah
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR (MONTHLY )
શ્રુતસાગર
TIQUIT
जेमना प्राणमां प्रभुशासननी पारावार प्रीती प्रसरेली छे एवा पूज्यपाद् गुरुदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
For Private and Personal Use Only
2019
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सवा
GORIBERARTOIdagdi
Kगति
2860 HOMEMADIRECTORREERGREASTERN RECI
ताडपत्रमा प्राप्त थता ग्रंथ लिपिमां आलेखायेल अष्टमंगल अने पंचायुधना चित्रो तेमज अष्टमंगल पूजनविधि
For Private and Personal Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र
श्रुतसागर SHRUTSAGAR (Monthly)
શ્રુતસાગર
वर्ष-१, अंक-२, कुल अंक-२. जुलाई-२०१४ * Year-1, Issue-2, Total tssue-2, July-2014 __ वार्षिक सदस्यता शुल्क - रू. १५०/- * Yearly Subscription - Rs. 150/
अंक शुल्क • रू. १५/- * issue Per copy Rs. 15/
* आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक *
* सह संपादक * कनुभाई लल्लुभाई शाह
हिरेन के. दोशी
ज्ञानमंदिर परिवार १७ जुलाई, २०१४, वि. सं. २०७०, आषाढ वद-४
प्रकाशक
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२ फेक्स : (०७९) २३२७६२४९ website : www.kobatirth.org email : gyanmanclir@kobatirth.org
For Private and Personal Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुक्रम
हिरेन के. दोशी
१. संपादकीय २. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी
महाराज साहब का संक्षिप्त परिचय ३. पृथ्वीचंद्र गुणसागर रास
डॉ. हेमन्त कुमार जागृतिटन डी. वोरा, हिरेन के. दोशी
४. श्री जिनप्रभसूरिकृत फारसी भाषामां
ऋषभदेव स्तवन ५. ग्रंथलिपि : एक अध्ययन ६. सम्राट् राप्रति संग्रहालयना प्रतिमा लेखो ७. यतिअंतिमआराधना ८. कैलास श्रुतसाग्र ग्रंथसूची
एक संक्षिप्त परिचय ९. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
कोवा तीर्थ परिचय
श्री जिनविजयजी डॉ. उत्गसिंह हिरेन के. दोशी सा. जिनरत्नाश्रीजी
प्राप्तिस्थाना
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर परिवार डाईनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ फोन नं. ०७९) २६५८२३५५
For Private and Personal Use Only
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
संपादकीय गया अंकथी के टलांक महत्त्वना फेरफारो आ पत्रिकामा थया, जे आवश्यक
हता...
श्रुतसागर पत्रिकामा रजि.नी रारकारी प्रक्रियामाथी पसार थई रह्या छीए... पूर्ण थवानो तवक्की नजीक छे. अने एटला ज माटे आ प्रकारना फेरफारो करवामां आव्या छे. गैश्विक स्तरे जैन साहित्यनी मौलिकताने उजागर करवी होय तो आ प्रकारनी प्रक्रिया घणा अंशे मददरूप अने सरळता आपे छे. अने एटले ज आ पत्रिकाने ए प्रक रना तमाग फेरफारो आप्या छे. अरनु...
केटलांक पर्वो एक दिवसना होय छे. केटलांक पर्यो बे दिवसना होय छे. केटलांक ऋण, चार के एथी पधु दिवसना होय छे. पण चातुर्मासनू पर्व...
चातुर्मासर्नु पर्द चार महिनामुं होय छे. ऋतुना प्रभाव थती जीवहिंसाथी बचवा जिनशासनना अणगार पूज्य गुरुभगवंतो योग्य स्थान अने योग्य काळने अनुरूप पोते चार महिना स्थिर थई पोतानी नजीक आवेला भव्यजीवोने स्वाध्याय, संयम अने तपागा बळथी अत्यंत री प्रभावित अने आराधनामय बनावता होय छे, चातुर्मासर्नु पर्व आम तो वरसाद अने एना कारणे थती विराधनाओथी बचवा माटेनी स्थिरता रूपे होवा छतांय परिणामे अनेक व्यक्तिओना जीवनमां आ पर्व परिवर्तनना पर्व रूपे अंकित थईने यादगार बनी जाय छे.
चातुर्मारा दरमान पूज्य गुरुभमवंतश्रीनो मळतो संयोग आपणी आंतर चेतनाने आराधना साधना तरफ प्रेरे छे. अने एमनो संसर्ग आपणाम् | रहेली आराधकभावनी सुषुतिने खखेरे छे. पराक्रमने खोलवी आपतुं आ चातुर्मासमुं पुनित पर्व गणी शकाय एटला दिवस ज दूर छे. त्यारे दरेक आत्मार्थी अन आराधक आत्माओ आ पर्वना पुनित प्रसंगने पामीने जीवनने गुण वैभवथी समृद्ध करे..
आ अंकनी वात :- दर वखतनी जेम आ अंकग पूज्य गुरुभगवंतश्रीए आत्मविकासनी अने आत्मोन्नती विषय उपर आपेला मननीय प्रवचनने अत्रे प्रकाशित न करता आ अंकमां पूज्य गुरुभगवंतश्रीना जीवन परिचगने संक्षिप्त पण सारभूत रीते प्रकाशित कर्यु छे.
आ अंकमां दर अंकनी जेम आ वखते जैन साहित्य संशोधकमां प्रकाशित फारसीभाषामय ऋ भजिन स्तवन अत्रे प्रकाशित कर्यु छे. वाचकोनी उपादेयता माटे स्तवननी साथे ए- संस्कृत अने गुजराती विवरण मूळ कडीनी साथै ज लेवानो तेमज कठिन शब्दार्थोगां पण योग्य कडी क्रमांक हेठळ शब्दो आपवानो फेरफार कर्यो छे.
For Private and Personal Use Only
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
JULY - 2014 तो अप्रकाशित कृतिना प्रकाशन रूपे भानुचंद्र गणिवरना शिष्य देवचंद्र गणिनी रचना पृथ्वीचंद्र गुणसागर रास अत्रे प्रकाशित कर्यो छे. शीलधर्मना महिमानुं गान करती अद्यावधि अप्रकाशित आ रचना श्रुतसागरना माध्यमे प्रकाशित थई रही छे. एनो अमने आनंद छे. शीलधर्म महात्म्य अने कविनी रचना-चातुरी उभयनो संगम आ र समां थयो छे. जे वाचकोने बोधनी साथे संतोष आपशे... आ कृतिनुं प्राथमिक लिप्यंतर श्री जागृतिबेन डी. धोराए करीने अभने पाठव्युं छे. ए बदल एमनो हार्दिक आभार..
श्रुतसागर अंक ३८-३९मां प्रकाशित ब्राह्मीलिपि विषयक लेखने घणा वाचकोए वधाव्यो... पत्र अने फोनना माध्यगथी लिपि जिज्ञासुओए घणा अभिनंदन पाठव्या अमने... लिपि अभ्यासना लेखोनी ए ज श्रेणिमां आ वखते ग्रंथ लिपि विषयक एक सपरिचय अभ्यासपूर्ण लेख अत्रे प्रकाशित कर्यो छे. ग्रंथ लिपिना परिचयनी साथे 'ग्रंथ लिपि संबंधी विविध प्रकार नी माहितीओ, असारोनः वळांक अने मरोडनी स्थितिने समजवानुं सरळ बने एटला माटे आजे लखाता अक्षरोनी साथे ग्रंथ लिपिमा लखाता अक्षरोना लघु चार्ट विगेरे पण प्रकाशित करी लेखनी उपादेयतामा खास्सो वधारो थयो छे. आ लेख अने आ पत्रिकामा प्रकाशित विगतोना सेटींग माटे श्री संजयभाई गुर्जरनी महेनत पण दाद मांगी ले एची छे.
पूज्य साध्वीजी भगवंत श्री जिनरत्नाश्रीजी म. सा. तरफथी संपादित उपाध्याय सगयसुंदरगणि कृत यतिअंतिम आराधना आ अंकमां प्रकाशित करी छे. अप्रकाशित कृति संपादित करीने पाठववा बदल पूज्य साध्वीजी भगवंतश्रीनो खूब आभार...
आ अंक, पूज्य गुरुभगवंतश्रीना चातुर्मास प्रवेश प्रसंगे विमोचित थवान सद्भाग्य रडुं छे. एटले ज पूज्य गुरुभगवंतश्री अने एमनी पुनित नजरथी श्री संघना श्रेयार्थे प्रवर्तमान श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र-कोतानो परिचय थाय ए हेतुसर संरधानी रूपरेखा आ अंकमां प्रकाशित करी छे.
पूज्य गुरुभगवंतश्रीना चातुर्मास प्रवेश प्ररांगे प्रकाशित थनार कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूचि भाग १७- विमोचन थवानुं होवाथी आ अंकमा प्रकाशित थता सूचिपत्रो अने एनी विशेषताने जाणवा माटे कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूचिनो संक्षिप्त परिचय प्रकाशित कर्यो छे.
तो ऐतिहासिक सामग्री रूपे सम्राट संप्रति संग्रहालयमा रहेला धातुविभागना शिल्पोना लेखो प्रकाशित कर्या छ. आ लेखोमा जे क्रमांक नंबर आपेलो छे ए शिल्पोमां ज लेख मळे छे. ए सिवायना नंबर पर नोंधायेल वस्तुओमां कोई लेख विगेरे प्राप्त थतुं नशी, जे वाचकोए खास ध्यानमां लेबुं.
For Private and Personal Use Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब का संक्षिप्त परिचय
डॉ. हेमन्त कुमार सांसारिक जीवन : * जन्म : विक्रम संत १९९१ भाद्रपद कृष्णपक्ष एकादशी 'मंगलवार, तदनुसार १०
सितम्बर १९३५. * जन्म स्थान : अजीमगंज, पश्चिम बंगाल : पिता का नाम : श्री रामस्वरूपसिंहजी उर्फ श्री जगन्नाधसिंहजी. * माता का नाम : श्रीमती भवानीदेवी * बचपन का नाम : प्रेमचन्द/लब्धिचन्द्र * शिक्षा : माध्यमिक रतर तक * भाषा ज्ञान : संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, बंगाली, गुजराती राजस्थानी व अंग्रेजी. साधुजीवन का प्रारम्भ :
दीक्षा ग्रहण : वि. सं. २०११ कार्तिक (गार्गशीर्ष) कृष्णपक्ष ३ रविवार, १३ नवम्बर
१९५४ * दीक्षा स्थल : सागंद • दीक्षा प्रदाता : आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. * दीक्षा गुरु : आचार्य श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म. सा. : दीक्षा नाम : मुनि श्री पद्मसागरजी म. सा. * गणिपद से विभूषित : वि. सं. २०३० माघ शुक्ल पक्ष पंचमी, सोमवार, २८
जनवरी, १९७४, अहमदाबाद * पंन्यासपद से विभूषित : वि. सं. २०३२ फाल्गुन शुक्ल पक्ष सप्तमी, सोमवार, ८.
गाई, १९७६. जामनगर * आचार्यपद से विभूषित : वि. सं. २०३३ मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष तृतीया, शुक्रवार, ९
दिसम्बर, १९७६, महेसाणा जिनशासन के समर्थ उन्नायक : * जैन श्रमण संस्कृति की गरिमापूर्ण परंपरा में जिनका एक यशस्वी नाम है.
For Private and Personal Use Only
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
SHRUTSAGAR
JULY 2014
व्यवहार कुशलता, वाक्पटुता, कर्तव्य परायणता आदि गुणों से जो विभूषित हैं, • मानवमात्र के लिये जिनका देदीप्यमान जीवन प्रेरणास्पद एवं वरदान है. * जिनशासन के उन्नयन हेतु समर्पित जिनका संपूर्ण जीवन है.
* अपनी मधुर वाणी से लाखों श्रोताओं को जिन्होंने धर्माभिमुख किया है. • जिनशासन के गौरव में जिन्होंने चार चाँद लगा दिये हैं.
6
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
* मानव मात्र के उपकार हेतु जो सतत् प्रयासरत हैं.
• जैन-दर्शन व प्राच्य विद्या के क्षेत्र में अवगाहन करने वालों के लिए जो रत्नाकर तुल्य हैं.
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा की स्थापना जिनकी सत्प्रेरणा से हुई हैं. * आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोवा जिनकी अगरकृति है. • विश्वमैत्रीधाम बोरीजतीर्थ के ऐतिहासिक जिनमंदिर निर्माण के जो प्रेरक हैं. * श्री सीमंधर जिन मंदिर, महेसाणा के निर्माण में जिनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है.
: भारतीय प्राचीन सांस्कृतिक ऐतिहासिक पुरातात्विक धरोहर के जो संरक्षक हैं.
: जिनभक्ति व शासनप्रभावना के प्रति जो पूर्ण समर्पित हैं.
* वात्सल्य, करुणा, दया और प्रेम की जो प्रतिमूर्ति हैं.
: जिनकी भाषा की सरलता, स्पष्ट वकृत्व, अभिप्राय की गंभीरता व प्रस्तुति की मौलिकता है.
* जिनके ओजस्वी प्रवचनों से व्यक्ति और समाज में अभूतपूर्व परिवर्तन आया है. यशस्वी ऐतिहासिक कार्य :
: बाल- दीक्षा-प्रतिबन्ध प्रस्ताव को निरस्त कराकर पुनः बाल- दीक्षा का प्रारम्भ
कराया.
शत्रुंजय महातीर्थ के बाँध में होनेवाली मछलियों को जीव-हिंसा पर रोक लगवाई.
* मुम्बई महानगरपालिका के द्वारा विद्यालय के बच्चों को अल्पाहार में फूड-टॉनिक के रूप में अण्डा दिए जाने के निंदनीय प्रस्ताव को खारिज करवाया.
* राजस्थान सरकार द्वारा ट्रस्टों में अपना प्रतिनिधि नियुक्त करने के अध्यादेश को राज्यपाल को कुशल युक्तियों के द्वारा समझा कर वापस कराया.
For Private and Personal Use Only
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
जुलाई - २०१४ * राणकपुर तीर्थ में फाइव स्टार होटल के निर्माण पर रोक लगवा कर तीर्थ की __ पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रखा. * इमरजेंसी के दौरान भारत के प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी को राष्ट्रहित में
मार्गदर्शन. नेपाल में पाद विहार करके सैकड़ों वर्षों के बाद प्रथम बार जैनाचार्य के रूप में
पदार्पण किया. * काठमाण्डू (कमल पोखरी) में आपकी निश्रा में श्री गहावीरस्वामी जिनमन्दिर की __ भव्यातिभव्य प्रतिष्ठा हुई. : आपकी निश्रा में विश्व हिन्दू महासभा का अधिवेशन काठमाण्डू में सम्पन्न हुआ,
जिसमें विश्व के १४ देशों से अग्रणी हिन्दू प्रतिनिधियों ने भाग लिया था. * जेन एकता, संगठन व जैन कॉन्वेन्ट-स्कूलों के आप सफल प्रेरणादाता रहे हैं. * आपके पदार्पण से रसों बाद दक्षिण भारत में धर्म आराधना व ज्ञान की मंद धारा
तेजी से पहने लगी. गोवा प्रदेश में सैकड़ों वर्ष बाद जिनालय की भव्य अंजनश् लाका-प्रतिष्ठा आपकी
पाचन निश्रा में सम्पन्न हुई. * वालकेश्वर(मुम्बई) श्रीसंघ को देवद्रव्य संबंधी जैन परंपरा और सिद्धान्त का
मार्गदर्शन किया. * राष्ट्रपति श्री शंकरदयाल शर्माजी ने राष्ट्रपति भवन में आपके पावन पदार्पण करा
के आशीर्वाद ग्रहण किया. * भारतवर्ष की पवित्र मि हरिद्वार में प्रथम जिनमन्दिर रूप श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ की
भव्य अंजनशलाका प्रतिष्ठा कराई. * पूज्यश्री की प्रेरणा से जोधपुर नरेश श्री गजसिंहजी ने महल में पिछले ४०० सालों
से चली आ रही दशहरा के दिन भैंसे की बलि की प्रथा बंद करवाई. * जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक युवक महासंघ, जैन डॉक्टर्स फेडरेशन एवं जैन चार्टर्ड
एकाउन्टेन्ट विंग की स्थापना आपकी प्रेरणा से हुई, जो पुरे भारत के जैन श्वेताम्बर
मूर्तिपूजक संधों को अपनी विशिष्ट सेवाएँ प्रदान कर रही है. * प्रभु महावीर की निर्वाणभूमि पावापुरी में मछली पकड़ने पर पाबन्दी एवं सरोवर की
पवित्रता का शुभ संकल्प करवाया.
For Private and Personal Use Only
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
JULY - 2018 * गौतमस्वामी की जन्मस्थली कुण्डलपुर (नालन्दा) तीर्थ भूमि के मंदिर के
महोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठा हुई. * हरिद्वार में सर्वधर्म के धर्मगुरुओं द्वारा सार्वजनिक अभिनंदन का सन्मान प्राप्त
किया. * श्री शान्तिनाथ जैन तीर्थ, वटवा का निर्माण करवाया. * श्री नेमिनाथ जैन बावन जिनालय-प्राचीन तीर्थ रांतेज का पुनर्निर्माण कार्य
करवाया. * श्री संभवनाथ जैन आराधना केन्द्र, लारंगाजी आदि जैन तीर्थों के उद्धारक च
मार्गदर्शन प्रदाता रहे हैं. विविध उपाधियाँ : * भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम श्री नीलम संजीव रेड्डी द्वारा राष्ट्रसन्त की उपाधि
से विभूषित. * वालकेश्वर(मुम्बई) श्रीसंघ द्वारा सम्मेतशिखर तीर्थोद्धारक के बिरुद रो राम्मानित. * राणकपुर-सादड़ श्रीसंघ द्वारा श्रुतोद्धारक पदवी रो सम्मानित. शासन प्रभावना : * तीर्थयात्रा-विहार : भारत के लगभग सभी छोटे-बड़े तीर्थ व सवा लाख किलोमीटर
से अधिक पदयात्रा * प्रतिष्ठाएँ : ८० से अधिक : उपधान तप : १२ * यात्रासंघ : ११ : दीक्षाएँ : ७० * शिष्य-प्रशिष्य : ४२ (आचार्य - ४, पंन्यास - ५, गणिवर्य - ३) * साहित्य प्रकाशन : लगभग २८ प्रकाशन - हिन्दी, गुजराती व अंग्रेजी में. आपकी अमृतमयी वाणी :
'मैं सभी का है. सभी मेरे हैं, प्राणी मात्र का कल्याण मेरी हार्दिक भावना है। मैं किसी वर्ग, वर्ण, समाज या जाति के लिए नहीं, अपितु सबके लिए हूँ। व्यक्ति राम में मेरा विश्वास नहीं है। लोग वीतराग परमात्मा के बतलाये पथ पर चलकर अपन और दूसरों का भला करें, यही मेरी हार्दिक शुभेच्छा है।
जैनश्रमण संरकृति के गौरव रूप आचार्य श्री पदासागरसूरिजी के चरणों हमारी, आपकी, सबकी नतमस्तक कोटिशः वंदना...
For Private and Personal Use Only
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
पृथ्वीचंद्र गुणसागर रास
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
संपा. जागृतिबेन डी. वोरा हिरेन के. दोशी
जैनदर्शनमां बतावेला चार अनुयोग पैकीनो एक अनुयोग एटले कथानुयोग,
चार प्रकारना अनुयोग आपणी परंपरामां मळे छे.
१. द्रव्यानुयोग.
३. गणितानु
२. चरणकरणानुयोग ४. धर्मकथानुयोग.
चारेय अनुयोगमां प्रधानपणे द्रव्यानुयोग छे. पण द्रव्यानुयोग समजवागां थोडो कठीन होई व्यक्तिनी योग्यता अने क्षमताओनी अपेक्षा राखे छे. ज्यारे धर्मकथानुयोग सरळ होई व्यक्ति पोताना उपादानने वधु ने वधु विशुद्ध बनावी शके छे.
धर्मकथानुयोग पौदगलिक सुखमा रहेला जीवोने कथा अने दृष्टांतना माध्यमे आत्माना स्वरूपनुं भान करावी एनामा रहेली अनंत शक्तिओ अने सुषुप्त ऊर्जानुं प्रागट्य करी जीवनने सार्थकता बक्षे छे जीवनमां सर्जाता उत्थान अने पतन माटे मनुष्य पोते अने पोताना विचारो ज कारणभूत होय छे. जेवा विचारोनी सेवना बालु होय, भविष्यनुं निर्माण पण एवं ज थया करे छे विचारो सारा तो भविष्य सुंदर, विचारो खराव तो भविष्य अंधारमय ... सद्विचारोनी ताकातथी गमे तेवी वगडेली स्थिती पण सुधारी शकाय छे.
कथानुयोग मानव जीवाने सद्विचार अने दृढ संकल्प द्वारा उत्तमता अर्पे छे. कथानुयोग अशुभमांथी शुभमां अने शुभमांथी शुद्धमा लई जाय छे। अने एटले ज पूर्वाचार्यो कथानुयोगना आगमो अने ग्रंथो आपीने समग्र जीवराशि उपर महान उपकार कर्यो छे.
For Private and Personal Use Only
आधी ज एक कथा रास स्वरूपे अत्रे प्रकाशित करी छे. आम तो आ रचना विक्रमनी सत्तरमी स्दीमां थई छे. पण आ कथानी घटना थयाने घणो काळ व्यतीत थई गयो छे. चार प्रकारना धर्म परमात्माए दर्शाव्या छे. एमां सौथी पहेलुं दान, बीजुं शील, त्रीजुं तप, अने चोथुं भाव. आम चार प्रकारमाथी बीजा शीलधर्मनुं महत्त्व अने एनुं गुणगान आ कथामां सर्वत्र छवायेलुं जोवा मळे छे. शीलधर्मना पालनथी थनारो लाभ अने एनुं पालन न करवाथी थनारा नुक्शानने कविए आ चरित्रना माध्यमथी दर्शाव्युं छे. राराना घाट उपरथी कर्ताए परंपरागत आ ज चरित्रनायकनुं कोई संस्कृत के प्राकृत चरित्र आँख सामे राख्युं होय एवं जणाय
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
10
JULY - 2014
छे. अथवा संभावनाए पण पूरी छे के आ कथा प्रसंग एमने परंपराथी सांभळवा मळती कथाने आधारे रासनी रचना करी होय... रचनाना आधारने लईने रचनाकारे आ प्रकारनो कोई खुलासो कर्यो नथी.
आम तो आ कथानी शरूआत घणी लांबी छे. पृथ्वीचंद्र अने गुणसागर वच्चेनो संबंध पण बहु, जुनो अने पुराणो छे, पण रासकार तो अंतिम भवनी कथा - वस्तु रासमां गुंथे छे. प्रस्तुत कथा नायको बच्चे शंखराजा अने कलावतीना भवथी संबंध थाय छे. ए पछीना कुल एकवीश जेटला भवे अलग अलग रूपे बन्ने मळे छे. कुल एकवीर भवमांथी अग्यार भव मनुष्य पर्यायन छे. अने दश भव देव पर्यायना छे. मनुष्य गतिना कुल अग्यार भवो नीचे भुजव दर्शाव्या छे.
पति-पत्नी तरीके छ भव मित्र रूपे वे भव, भाई रूपे वे भव, अने पिता-पुत्र रूपे एक भव आम कुल अग्यार भवो आ रीते पसार कर्या बाद छेल्ला भवमां शंखराजानो जीव पृथ्वीचंद्र कुमार अने राणी कलावतीनो जीव श्रेष्ठिपुत्र गुणसागर तरीके जन्मे छे.
कृतिसार : कृतिनी शरुआतमां कवि श्रुतदेवी भगवती शारदाने प्रणाम, नमस्कार मंत्रनुं स्मरण अने गुरुदेवना आशीर्वाद ग्रहण करीने कृतिनो प्रारंभ करे छे. कवि त्रीजी कडीना अंते 'बोलीशुं पृथ्वीचंद्र आख्यान कही पोताना विषयनी वक्तव्यता स्पष्ट करे छे. कविए कृतिमां घणा स्थानो उपम अने अलंकारनो प्रचुर उपयोग कर्यो छे. तो दृष्टांतो द्वारा पोताना कथित विषयनी महत्ताने पण बहु सारी
ते स्पष्ट करी छे. कृतिनी चोथी कडीथी ज कवि पोतानी काव्यप्रतिभाने शब्दोमां उतारी आपे छे. शीयळ विनाना व्यक्तिनो आदर अने शीयळ वगरना व्यक्तिनी वास्तविकता कविए केटलाय उदाहरण द्वारा दर्शावीने वाचकना परिणामने शील पालनमा वधु स्थिर कर्या छे. तो साथे साथे कथानी साथै प्रवाहित औपदेशिक तत्त्वने पण असरकारक रीते रजु करायु छे.
चौदमी कडीथी कृतिमां पृथ्वीचंद्र अने एनी आरापासनी विगतोने आवरी लेवामां आवी छे. विनीतानगरीमां हरिसींह राजानी पद्मावती राणीनी कुक्षिए पृथ्वीचंद्रनो जन्म थाय छे. कविए राणीनी वात आवता ज श्रेष्ठ स्त्रीओना लक्षणो जणाव्या छे, कवि पोतानी प्रतिभाओथी पोताना काव्यने अमरत्व प्रदान करता होय छे, एक खीलेलुं फूल खुश्बु वेरीने खरी जाय एम.
मध्यकालीन जैन साहित्यकारोनी प्रतिभा विशे जाणवुं होय तो आवी कथा के रास कृतिओ द्वारा बहु सरळताथी परिचय हाथवगो करी शकाय एम छे. बधा ज
For Private and Personal Use Only
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
11
जुलाई २०१४
गुण अने ग्रंथोनी वा अनुभवना बळे एमना काव्यमां जणानी जोवा मळे एवा साधु कविओ खरेखर मध्यकाळनी शोभा समान छे.
-
पृथ्वीचंद्रना परिणाम बदलाय छे यौवनवये, त्याग अने तपना विचार आवे छे. भोगववानी क्षणे छोडवानो विचार स्फुरे छे. विनाशीगां अविनाशीनी वात जाणी गयेलो पृथ्वीचंद्र वैराग्यवासित थाय छे. जीव ज्यारे वैराग्य भीनो बने छे, एना आत्माने संवेगनो पुनित स्पर्श थाय छे पछी जीवन आखुं बदलाई जाय छे. पृथ्वीचंद्र वैराग्य भीनो बनता स्वाभाविकपणे थती माता पितानी चिंता, पृथ्वीचंद्र साथे माता पितानो संवाद, आग्रहपूर्वक पृथ्वीचंद्रनुं आठ राजकुमारी सार्थ पाणिग्रहण, आठेय राजकुमारीने प्रतिबोध, अने राज्याभिषेक विगेरे घटनाओनी वात कविए चोवीश थी चोर्याशी कडीओमां सुंदर रीते रजु करी छे.
कविए दरेक घटनाओने एक सुंदर मजानुं रूपकाम कर्तुं छे. घटनाओनी भीतर उछळतो प्रचळ संवेग, वाचन मात्रथी पृथ्वीचंद्र अने एनी आसपासनी घटनाओमा अनुभवातुं एक अजब प्रकारनुं नर्तन, व्यवहार जीवनमां अपनावी शकाय अने समाधि अने समताने हस्तगत करी शकाय आधुं घणुं बधु आ कृतिगांथी स्पर्शवा मळे छे.
ज्यां जीवने नधी जवानुं त्यां कर्मों लई जाय एवी बीना पृथ्वीचंद्रनी जेग आपणा सहु साथे वने छे ए बातने खूब ज सारी रीते आगळना पद्योगां रजु कराई छे. पृथ्वीचंद्रना राज्याभिषेकनी वात जणावीने कविए पृथ्वी चंद्रना घरवासने माछी मारनी जाळमां पडेली माछली साथे, तो पारधीना पासमां फसायेला हरण साथै अने शिकारीए पकडेला गदगस्त हाथी साथे सरखावी, पृथ्वीच्द्रनी मनोस्थितिने सुंदर रीते शब्दांकित करी छे.
राजसभामा परदेशीनुं आगमन अने श्रेष्ठिपुत्र गुणसागरनी रजुआत आगळनी कडीओगां वाचवा मळे छे. देश देशांतरमां फरता करता जोवा मळेला कौतुकोनी वात पृथ्वीचंद्र परदेशीने पूछे छे अने एना प्रत्युत्तरमा परदेशी श्रेष्ठिपुत्र गुणसागरनुं आखु कथानक संभळावे छे. पृथ्वीचंद्र अने एमनी राणी, गुणसागर अने एमनी पलिओ अने एमना माता पिता विगेरे मळीने कुल चोपन आत्माओ भावधारानी शुभता अने शुद्धताना परिणामे केवळज्ञान पामे छे.
For Private and Personal Use Only
आ प्रमाणे शंख राजा अने कलावतीना भवथी शरू थयेलो संबंध पृथ्वीचंद्र गुणसागरमा विराम पाने छे मित्रतानी क्षितिज उपर पृथ्वीचंद्र अने गुणसागर शाश्वतभावे एक थई जाय छे, ओगळी जाय छे.
.
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
12
JULY - 2014 कृति विशे:- प्रस्तुत कृति १७३ कडीमां पथरारली छे. आखी कृतिमा ढाळ अने चोपाई बंधमां कृतिनी रचना थई छे. ढाळ क्रमांक अपायेल नथी. पण ढाळ अनुसार आठ ढाळनी आ रचना छे. रचनामा कविए पोतानी आवडतने कामे लगाडी कृतिने सुंदर ओप आपवानी पूरी तक लीधी छे. कविना वर्णननो स्पर्श वाचकने थया वगर रहेतो नथी. प्रसंगोचित कवितुं वर्णनसामर्थ्य कृतिनी उपादेयतामां वधारो करे छे. कृतिनी छेल्ली कडीमां कविए प्रहेलिका द्वारा करेलो वारनो निर्देश रचनामां चमत्कृतिनो अहेसास करावे छे.
कर्ता विशे:- कृतिनी छेल्ली कडीओमां भळता उल्लेख अनुसार प्रस्तुत कृतिना कर्ता भानुचंद्र गणिना शिष्य देवचंद्र छे. कडीनी छेल्ली गाथओमा कविए स्वयं पोतानो उल्लेख करीने कृतिनी विगतोने पूर्ण करी छे, भानुचंद्र गणिवर एगना समयमा बहु ख्याति प्राप्त साधु पुरुष हता. शत्रुजयतीर्थनी यात्रानो वेरो भानुचंद्र गणिनी प्रेरणा अने महेनतथी बंध थयो होवाथी एमने शत्रुजयकरमोचन एवं बिरूद आपवामां आव्युं हतुं. एमनी साथे एमना शिष्य देवचंद्रजी पण आगवी प्रतिभा बळे विद्वद्जनोमां प्रिय हता. देवचंद्र गणि अने एमनी अन्य कृतिओना संबंधमां जाणवा माटे गुजराती साहित्यकोश मध्यकाळ (पेज नं. १८०), जैन गूर्जर कविओ भाग (भाग जो/पेज नं. २८७), हीरविजयसूरि रास, तेमज जैन परंपरानो इतिहास विगेरे ग्रंथो जोवा वाचकोने भलामण...
प्रत परिचय:- प्रस्तुत कृतिनी प्रत आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरमा क्रमांक ५७६५९नं,ना क्रमांक पर नोंधायली छे. प्रतनुं आलेखन सुंदर अने एकसरखी ढबे शुद्ध रीते थयुं छे. कुल प्रतना पत्र एकवीश छे. एमांत्रण कृतिनो समावेश करवामां आव्यो छे. प्रतमां आलेखायेली त्रणेय कृतिओ भानुचंद्र गणिना शिष्य देववंद्रजी महाराज द्वारा रचायेली छे. प्रतमां पत्र क्रमांक १ थी १०A सुधी नवतत्त्व रारा, १०० श्री १७A सुधी अत्रे प्रकाशित पृथ्वीचंद्र गुणसागर रास, अने १७A थी २१B सुधीमां शत्रुजयतीर्थ चैत्यपरिपाटी रतवन, आलेखन थयुं छे. प्रतना लेखन संवत, प्रतिलेखक विगेरे कोई माहितीनो उल्लेख अत्रे करायो नथी. पण प्रतालेखनना आधारे कर्माथी नजीकना समयमा एटले के १७मी सदीमां लखायेली होवानी संभावना व्यक्त करी शकाय छे. पत्र परिमाण कुल २५.५०x११.५० छे. अने एमां कुल १४ लाईन छे अने एक लाईनमा ४१ जेटला अक्षरोनुं आलेखन थयु छे. कृतिगत दंड अने अंकस्थानो माटे लाल स्याहीनो उपयोग थयो छे. पत्रना मध्यभागे अक्षरालेखन विहिन चोरस तथा वापीकामय फुल्लिका छे. अक्षरो स्पष्ट अने बेठा घाटना सरळताथी उकेली शकाय एवा सुंदर छे. आ कृति अने एनी हस्तप्रतनी विगतो कैलास श्रुतसागर ग्रंथ सूचि भाग १४मां प्रकाशित थयेल छे.
For Private and Personal Use Only
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पृथ्वीचंद्र गुणसागर रास
प्रणमुं भगति भगवति भारती, जे तूठी आपई शुभमति। जस सेवइं सुर नर भूपति, जेहनइं नामइं सुख संपति ।।१।। सारद शुभमति पूरी आस, आपो मुझनई वचनविलास । तुं सरसति कविजननी माय. सेवक उपरी करो पसाय ।।२।। क्ली समरु मनि मंत्र नवकार, चउदइंपूरवनुं जे सार। श्रीगु केरं पागी नान, बोलिशुं पृथवीचंद्र आख्यान 11३11 सीलवंतमांहि अतिनलो, चंद्र तणी परि जस निर्मलो। तारा रास सज्जन सांभलो, सीलवंत कहीइ गुणनिलो ।।४।। सील विना सहु असुहागणुं, सुणयो तेहनां ओठां' भणु । चंद्र विहूणी जिम रातडी, मूरिख साथि जिम मोठडी ।।५।। पति पाखइ प्रगदा जेहवी, नरपति विण नगरी तेहवी। महाव्रत पाखई जिग अणगार, वस्त्र विहूणा जिम शणगार ।।६।। भोजन घृत पाखइ जेह, लोवन पाखई मुख तिम कवु। धोटिक' वेग विहूणो जेम, मयगल" दंत विहूणो तेम । ७ ।। जल पाखद सरोवर जरयं, देव पाखइ ते देवल कस्यु। विनय विहूणो जेह यो शिष्य, जेहवो छाया पाखई वृष्य ।।८।। कंठ विहूणो गाइं गीत, सर विण वाणी कवइ कवीत्त । वेटा मोटा जिग गुणहीन, प्रताप पाखई भूपति दीन ।।२।। खिमा विहूणो जेहायो यति. लाज विहूणी जेहवी सती। प्रीति विहूणी जिम दंपती, लूण विहूणी तिम रसवती ।।१०।। पांख विहूणो जिम पंखीओ, पुण्य विना मानव दुखिओ कुल नवि शोभई विना आचार, सत्य विना तिम मुख आकार ||११|| लक्ष्मी पाखइं पुरुषप्रधान, पृथिवीमां न लहई बहुमान। तिम सील विना शेभा नवि लहई, एह अरथ श्रीमुखि जिन कहई ।।१२।।
For Private and Personal Use Only
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAA
14
JULY - 2014 हवई ते पृथिवीचंद्रकुमार, कवण गामि ठामि अवतार । तेहनो तात कवण ते राय, राणी-कवण ते तेहनी गाय ।।१३।। कवण परिं वइंरागी थयो, संयम पाली मुगतिं गयो। सील बलिं केवल श्रीवरी, निसुणो भावि तेहनुं चरी ।।१४।। सुविनीतानगरीमुं नाम, ठाम अछइं ते अतिअभिराम | राज्य करइं राजा हरिसींह, न्यायवंत माहिं तस लीह ।।१५।। तस घरि राणी पद्मावती, स्त्रीलक्षणलक्षितगुणवती। नमणी-खगणी संशविशुद्ध, करि घणु ही परि गुणवंत मुद्ध ।।१६।। जे स्त्रीनइ गुह्य दक्षणभागि, दीसई तिलक कुंकुमनइ रागि। ते राजानी राणी थाय, अथवा पुत्र जणइं ते राय ।।१७।। मसो जेहनइं अतिरातडो, नासाग्रइं होई परगडो। ते पटराणी थाई सही, अथवा रायमाय ते कही ।।१८।। जे स्त्रीनइ जिमणइं स्तनिसार, रक्ततिलक लांछन अधिकार। तेहनइं कन्या होइं च्यार, ते प्रसवई वली अणि कुमार ।।१९।। जे नारिनई डालई कांनिं, हाथे कठि मसानई वानि । मसो तथा तिलक जो हुंति, पहिलई गर्भि से पुत्र प्रराति ।।२०।। इत्यादिक लक्षण गुणवती, राणी छइं से पद्मावती। रायराणी विलसइ ते भोग, पंचविषयसुख तणो योग ।।२१।। अनुक्रमि जायु पुत्र उदार, नामइं पृथिवीचंद्रकुमार। क्रमि क्रमि वाधई जिम ते बाल, तिम तिम महोच्छर करइ भूपाल ।।२१।। बालपणइं ते बुधे आगलो, विद्या चउद भण्यो गुणनिलो । सिलोक सुभाषित जाणइं सहु, धर्म तेणइं रसि रातो बहुं ।।२३।।
ढाल। एक दिन बइंठो यौवनवय ते गोखंडई रे, जोइ जगह सरुप। तीणइं अवसरि तिहां साधु एक देखी करी रे, देखई पूरवभव भूप 1॥२४ ।।
सील सोहामणो रे..
For Private and Personal Use Only
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
15
साधु राणा गुण समरई कुमर वइरागीउ रे, लीणो तेइं ध्यानिं । सारे (रि) पासे रमवानो रस छंडीउ रे, जाणई जाउं रानि ।। २५ ।।
जुलाई २०१४
सील सोहामणो रे...
वली तिई तान मान राग रंग रस छंडीया रे, छंड्या गीत कवीत्त । घोडा हाथी राम ते रमवी सहू तजी रे, उपशम आणी चित्त || २६ ॥ सील सोहामणो रे... जातीसमरण पागीनई ते जागीओ रे, भागी भवनी चांति' । सील सुधारसमां हे कुंयरजी झीलतो रे, संयमनी करई खांति ।। २७ ।। सील सोहामणो रे...
एमई अवरारि ते राजा-राणी चिंतवई रे, कुमर न राचई भोग । यौवनवय पागीनई वयरागी थयो रे, जाणे लीधो योग ।।२८।।
-
सील सोहामणो रे...
हवई ते राजा राणी साजन सहु मली रे, परठई परठ अपार । पाणीग्रहण करावो कुमरी आठनुं रे, पाडो पासि कुमार ( ? ) ||२९ ।।
सील सोहामणो रे...
राई तेडाव्यो कुमरनई तिहां भोलाववा रे, बोलावई धरि नेह । मीठे मीठे बोलडे बोलावीओ रे, तोहि न पल्लई तेह ||३० ।।
For Private and Personal Use Only
सील सोहामणो रे...
राय भई छ । यौवनवय छइं ताहरी रे, ताहरी नवली वेस । ए अवसर छइ भोग वणो भलो रे, तुं कांकरई कलेस
।।३१ ।।
सील सोहामणो रे....
गीयरस तियस्स तंति" तणा रस रुपडा रे, कछु कवित्तह भेय । ए पंचई जिण जगमाहिं नवि जाणीया रे, दैवई डंख्या तेय ||३२||
सील सोहामणो रे...
मई मंडाव्यामोट मंदिर मालीयां रे, ए ताहरु छइं र ज । आठई धरणी परणीनई भोगवो रे, पंचविषय सुख आज | |३३||
सील सोहामणो रे...
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
16
तात वचन निसुणीनई वलतुं इम भणई रे, पृथिवीचंद्रकुमार | हुं भवनाटिक नाची नाची ऊसनो रे, घात न रमुं वारवार ||३४ ।।
सील सोहामणो रे...
भई जोईन जोयुं ज्ञातजी एक मनां रे ए संसार असार । मन दढ करीनई तप संयम हुं आदरुं रे, स्त्रीसुख दुखभंडार ||३५||
सील सोहामणो रे....
ए नारी रुपई मुजनई पास ज मंडीओ रे, हुं न पडु ए एणई पासि । जन्म अनंता आगइं विगूता एंहथी रे, घणुं दशा गर्भवासि || ३६ ||
सील सोहामणो रे...
JULY 2014
वर वाघिणी बलगाडो मुझनई तातजी रे, पणि म बलगाडो नारि । एकवार वाघिणी होई दोहिली रे, पणि अनंतभव नारि ||३७||
सील सोहामणो रे....
वलि वलि तात वचन ते इम भणई रे, सुणि सुणि माहरा पूत । तुं जीव जीवन मुझ वल्लहो रे, कां भाजई घर सुत ||३८||
तातवचन ते पाछु बाली नवी शक्यो रे, लाज करी मनमाह । वली आठइं बहूअरनई प्रतिबोधवा रे, गूढई मान्यो विवाह ||
नील सोहाभणो रे...
For Private and Personal Use Only
नील सोहामणो रे...
|| चोपई ।।
कुमर विवाह मनाव्यो राय, अतिघणो उलट अंगी न मध्य । आठ राय तेड्या तिणि वार, मागी कन्या तेहनी सार ।। ३९ ।।
रुपइं त्रिभुवन मनमोहती, आठई कन्या ते गुणवती । निज पतिनई प्रेम परणवा, ते सिणगार करई नवनवा ||४०||
लगन लेईनई परणवीया, उच्छव मेरु समाणा कीया। हरख्यो मनमाहिं भूपती, वासुभुवनि पोहता दंपती ||४५ ||
आठ नारिस्युं ते परवर्यो, वास भुवनि वइंरागि भर्यो । बइंठो सिंहासन मनरली, ते सघली टोलई तिहां मली ।।४२ ॥
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
जुलाई - २०१४ मुख मोडइंनई मटका करइं, रंगरोल तंवोल वावरइं। देखाडइं परगट निज अंग, वांकी दष्टिं राखई रंग 1|४३ 11 एक चंदनस्युं चरचई अंगि, गाढो भीडई अंगोअंगि। एक रगणी रंगि राती रमई, नव नव रंग करती भमई ।।४४ ।। पाए लागी बोलावई एक, बोलई बोल विकार अनेक । दुखिणी आंसू पाडई रडई, दुख देखाडइनइं भुंइं पडई ।।४५।। मुखि मांडई एकदस आंगली, दीनवचन बोलई वलि-वलि । रवागी हवइं ग दाखो छेह, तुम साथि अह्मे मांड्यो नेह ।।४६।। एक दांतेस्युं तरणुं ग्रही, नयनबाण ताकीनई रही। एणी परि हाव-भाव बहु करी, विलविलती विलखी थई खरी ।।४७!। बहु शृंगार तणी ओरडी, थाकी ते आठई गोरडी। पतिव्रता ते आठई राही, दोय करजोडी आगलि रही ।।४८ | ! हवाइं ते पृथिवीचंद्र कुमार, निसुणी वयण अनेक अपार। वइरागी उपशम् भंडार, वलतो उत्तर भाखइं सार | ४९ ।। बूझो बूझो बूझो तहो, इंद्री वसि कीधा छई अहो। गोह राणी मति गूंको घणी, कषाय छंडो निजहित भणी ।।५० ।। भेद च्यार एहन छई प्रगट, एक एक पाइं ते विकट । क्रोध मांन मायानई लोभ, त्रिहुं जगनई उपजावई क्षोभ ।।५१।। सहजिं जीव सहू अतिविमल, ज्ञान दर्शन चारित्रई सकल | फटिकरत्न परि निर्मलजीव, कषाय च्यार पीड्यो करइं रीव ||५२ ।।
॥ पूराढाल । रे फरसराभ क्रोधइं करी, क्षत्री क्षय कीध। अनइं सभूमि बांभण हणी, नरग तणां फल लीध | ५३ ।। इम जाणी जीव जागीइं, तजीइं क्रोध कषाय। रागद्वेष वली टालीई, जिम शिवसुख थाय ।।५४ ।। ।।आंकणी।। रे हरिकेसी जति मद थकी, नीच कुलि अवतार | जाति विद्या कुल लाभ तणो, मद म करि गमार ।।५५।।
इम जाणी जीव...
For Private and Personal Use Only
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
यतः
SHRUTSAGAR
रे महावीर मरीयचि भविं, कुलमद कर्यो अपार । तिणि भव धणा भमी भमी, छेहडइं माहणकुलि अवतार ||५६ |
18
रे माया मूलथी टालीइं, मायाना बहु भेद । मल्लिनाथ माया थकी, पाम्या स्त्री वेद ||५७ ||
रे नवइं नंद लोभी थया, मेली कंचनकोडि । कालिं ते देवे हरी, पोत आवि खोडि | १५८ ||
रे पांचई इंद्री जीतीइं, जिम टलई कषाइं । एकेकइं ते मोकलई, जीव बहु दुख थाय ।। ५९ ।।
रे पांच इंद्री वसिकरो, मन आणो ठाणी । मोटुं कारण मन तणुं मन जीतइं निरवाणि ॥ ६० ।।
यथा आलिंग्य पत्नी, तथा आलिंग्यते सुता । मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः ||६१ ।। मुंड मुडाई कहा..
।।६२।।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
JULY 2014
इम जाणी जीव...
For Private and Personal Use Only
इम जाणी जीव...
इम जाणी जीव...
इम जाणी जीव....
इम जाणी जीव...
।।राम - आसाउरी ।।
आपण पोहता चार अनंती, देवलोक मझारि ।
जय जय नंदा जय जय भद्दा, जिहां करती सुरनारि ||६३ ||
पूजी परमेसरनी प्रतिमा, जाणूं नही सरुप ।
सहण विण समकित पाखइं, जोया विमान सरुप ||६४ ||
दीठउं देवलोक आनंदई, हीयडई हरख न माय । पडिया प्रमादि पूरण कीधां, सागरपल्यनां आय ||६५ ।।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
19
क्रीडा कीधी नाटक निरख्यां, अवर नही उपयोग । दुःख सवे मुंक्य' विसारी, विलशा (से) अमरीभोग ||६६ || परनी देवी देखी झूर्या, तृपति न पाम्यो जंत"। पूरी आय इसी परि आण्यो देवलोक भव अंत ॥६७॥
बली आपण पणि वार अनंती, आव्या माणसमाहिं । गर्भवासि बाला (ल) पणि बहुली, वेदन पडिया प्रचाहिं | १६७ ||
हुं नारी तुझे पुरुष सरूपिं, तुम्हे नारि हुं पुरुष ।
इम घरवासि वार अनंती, आपण भोगव्यां सुख ||६२ ।।
जुलाई २०१४
2
हुं नरग मझारि विगूतो नारी पडीओ सुरनई पासि । काल अनंत मोह वसि रलीओ, हवइं न रहु घरवारि ||७० ||
इम कर्म तणई वसि जीव रोलव्यो, तुम्हे विचारी जोओ ! माणसनो भव वोहिलो, लाधो ते कां आली" खोओ ।।७१ ।।
क्रोध मांन गाया मद छांडो, आणो मनि वइंराग । अंतरंग लोचन ऊघाडी, मुंको ममताराग ॥ ७२ ॥ ते गुणवंती आई गोरी, वरने बचने जागी।
दोय कर जोडीनई ते आठई, कुमरनई पाए लागी ।।७३|| बलिहारी जाउं मोरी सासू, जिणइं जायो तुं पिउडा । संसार तणां दुख छोडो स्वामी, आपो शिवसुख रूयडा ||७४ १
प्रतिबोधाणी आउई राणी, जाणी कुमर कहई वात । तुम्हे सील साधुं अंगि आदरो, जिहां न मलई मुज सात | ७५ ॥
// ढाल ||
कुमर वइंरागिं पूरीओ, उठ्यो साहसधीरो रे ।
राजसभामाहिं गयो, प्रह उगमतइ वीरो रे ।। ७६ ।। ।। आंकणी । ।
माडि गनि आश्या धणी, पुत्र पालशई राजो रे । आठ बहू करशई सही, सासूडीनां काजो रे ।।७८ ।।
For Private and Personal Use Only
कुमर वइंरागई....
कुमर वइंरागई...
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
20
JULY-2014 आंसू पाडइं दुःख धरइं, वली करई विलापो रे। तुं निसनेहो को थयो, कुण कीधां मई पापो रे ।।७९ ।
कुमर वइंरागई... वली वली माडी इम भणइं. वछ तुझ नवली वेसो रे। सकलकला गुण तं, भों, कीम दीजई आदेसो रे ।।८।।
कुमर वइंरागई... ताहरइं आठ अंतेहरी, सरखी राजकुमारों रे। विषय तणां सुख भोगवो, विषमो विषय विकारो रे ।।८१।।
कुमर वइंरागई... वछ! ए राज तुह्यारडु, अह्मे हुया व्रतयोगो रे। अवली गति तुह्मो का करो. ल्यो ए राज्यनो भोगो रे ८२।।
कुमर वइंरागइं... एणी परि मातपिता तणां, निसुणी वयण अगेको रे। नीरागी ते नवि दीइं, वलतो ऊत्तर एको रे ||८३।।
कुमर वइंरागई... इणई अवसरि नृप हार] खिओ, उलट अंगि न मायो रे। जोरइं पणि अणवांछतो, पृथिवीचंद्र को रायो रे ।।८।।
कुमर वइंरागई... राज देईनइं कुमरनइं, पहराव्या सणगारो रे। मरतकि मुकुट सोहामणो, उरवरि नवसर हारो रे ||८५।।
__कुमर पइंरागई... राजकुली सघली भली, प्रणमई राणा रायो रे। जय जयकार सह करई, माथइं छत्र धरायो रे ||८६ ।।
कुमर वइंरागई... मादल भुंगल भेरि-नफेरी, वाजइं ढोल नीसाणो रे। नगरमाहिं सघलई वरतावी, पृथवीचंद्रनी आणो रे ।।८७ !!
कुमर वइंरागई...
For Private and Personal Use Only
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
यतः
श्रुतसागर
21
जिम मयगल वनवासीओ, करतो केलि उल्हासो रे । तेह अजाडी" महिं पड्यो, तिम कुंयर घरवासो रे ।।८८ ।।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जिभ ईच्छाचारी हरिणलो, पड्यो पारधी पासो रे । झूर अहनिसि वापडो, तिम कुंयर घरवासो रे । ८९ ।।
एक दिन बईठो राजसभा, पूरी राय सुजाणो रे । सुधन सारथवाद आवीओ, भेटि करई बहुदाणो रे
जिम धीवर" सालई पड्यो, पाभई माछि (छ) लो त्रासो रे । जिम पंखी पंजरि पड्यो, तिम कुंयर घरवासो रे ।।१०।।
राय भाई सास्थपती, कहो को अपूरव वातो रे । तुम्हो थया देखाउरी, जाणो बहु अवदातो रे । ९२ ।।
जुलाई २०१४
कुमर वइंरागई...
कुमर वइंरागई...
।९१ ।।
For Private and Personal Use Only
दोय जीहा गय" वंकुडी तस रिपु स्वामी नारि । तिणी नारि जे परीहरया, भूला भमई संसारि ।। ९७ ।।
कुमर वइंरागई....
।। गाहा //
दीसई विविवरियं, जाणिज्जई सज्जण दुज्जण विशेषो । अप्पाणं च कलिज्जई, हिंडिज्जई तेण पुहवीए || १३ ||
-
कुमर वइंरागई...
// चोपई ।।
सारथपति कहई निसुणो राय, कांन तणो हवई को पसाय ! जो सांभलवानी छइं षांति", तो हुं पभणुं छंडी भ्रांति ||१४||
कुमर वइंरागई...
गजपुर नाम नयर सुविचार, गढ मढ मंदिर पोलि उदार । जिहां जिनमंदिर अतिहिं उतंग, परदेसी मनि पामई रंग ।। ९५ ।।
सेठ रयणसंचय विहां वसई, धनबलि जेह धनदनई हसइं । गरवंत नर गुंगा करइं, गरथ" विहूणो आंसू भर ||९६ ॥ ।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
22
JULY-2014 रामचंद्र जब वनि संचर्या, सीता लक्ष्मणस्युं परवर्या । गुरुवंदन करवा पनि गया, तब गुरु टलीनइं अलगा थया ।।९८ ।। पुनरपि रावण जीत करी, आव्या तिहां जयलक्ष्मी वरी।
तब गुरु ऊठी साहना वहइं, रामचंद्र पगि लागी कहई ।।९९!! रामचंद्र उवाच
स एवाऽहं स एव त्वं, तदेव कदलीवनं।
गमनावसरे नाभूत, सांप्रतं तु किमादरः ।।१००।। गुरुवाच
धनमर्जयकाऊस्थ(?), धनं मूलमिदं जगत्। अंतर नैव पश्यामि, निर्धनस्य मृतस्य च ।।१।।
॥ चोपई। धनवंतनइं कुलवंत सहु कहइं, पंडित पदवी धनवंत लहई। सगा-रागप्प(प)ण धन बलि थाय, धनवंत ते गुणवंत कहवाय ।।२।। हवइं ते सेठ छइं धननो धणी, रतनराशि तेहनई छई घणी। तस घरि नारि सुमंगला सती, कंत तणइं ते मनिभावती ||३!! गुणसागर नामई तास पुत्र, जाणइ धर्म कला तणइं सूत्र। यौवनवय पाम्यो ते सार, कन्या आठ जोई तेणी वार ||४|| तात वेवाही धरि उछाह, वारू६ केलवीइं२७ विवाह । मिली सवि अभरी अनुसारि, धवल-मंगल ते गाइं नारि ।।५।। ईणइं अवसरि गुणसागरकुमार, विचरई नगरमाहिं जिम अमर । मधुकरी करता दीठा यती, जेहनई पाप न लागइं रती ।।६ | ! तस दरिसन दीठाथी ठयों, लही जातिनइं भव सांभर्यो। आप काज करवानुं ध्यान, अंतरंग तस ऊघड्या कान ७ ।। थई वइरागी घरि आवीओ, मातपितानई मनि भावीओ। पाय लागीनइं मागई मान, मुझनई आपो संयमदान ||८|| चलतु मातपिता कहइं अस्युं, ताहरइं मनि एव॒स्युं वस्यु। आ अवसर छइं विवाह तणो, अह्म मनि उलट छइं अतिघणो ।।९।।
For Private and Personal Use Only
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
यतः
www.kobatirth.org
श्रुतसागर
23
अबला आठ कन्या सुकुमाल, अमरी सरखी कुमरी बाल । अबोल्या परणो तुझे पूत, तु सारू छई अह्म घर सूत ||१०|| तव कुंयर पगि लागी भई, निसुणो वीनती आदर घणई । ए संसार असार अपार, सगपण हूयां अनंतीवार ||9|| जिम जिम व्याप कुंटंबनो थाई, तिम तिम जीव नरगमां जाई । देवलोकि चली हूओ देव एकेंद्री थाथ ततखेव || १२ |
·
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वली वनस[प] तिगाहिं भग्यो, दुःख अनंत तिहां पणि खम्यो ।
इम योनि लाखचोरासीमाहिं जीवनई उपजवानी आहि ।।१३।।
जुलाई २०१४
जिम नाटकीओ नाटिक करइं, नव नव वेष करंतु फरई ।
जीव करई तिम नव नव वेस, फरसई चउदराज परदेस ||१४||
न सा जाईन सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं । न जाया न गया जत्थ, सव्वे जीवा अणंतसो ||१६||
आगई मई कीधा संभोग, परणी मेल्या कुटंब संयोग । गातपिता पुत्रादिक तणा, संबंध कीधा छइं अति घणा ||१५||
जे कन्या गुझ पर णावरयो, तेहनी कूखि हुं बहु वशो । जिनवर वचने ईम जाणीइं ते कन्या किम घरि आर्ण इं । ११७ ।।
तुं डाही माता सुणि मर्म, यो आदेश करुं जिम धर्म ।
खिण एक रहवुं न खमई हवई करो पसाय मोरई मनि गमइ ||१७||
वच्छ ! दसमासमई उअरिं धार्यो, पाली पोसी मोटो कर्यो । माहरई गनि छई ए उच्छाह, माहिरइं" बइंसी करो विवाह ||१९||
पूरि मनोरथ हवई मायनो, तुं सपुत्र भगतो उपनो ।
कयुं जो मानिसि जो गाहरु, तो हुं नवो दावो" नहि करु ||२०|| मात तणुं हवई वचन प्रमाण, करई कुमर अवसर नो जाण । संतोषाणो सहु परिवार, करई सवे ते जय जयकार
129/1
For Private and Personal Use Only
रासरानई कहवराव्युं वही परणी चारित्र लेस्युं सही । तव ते आठ विचारइं मली, वर बीजो जोस्युं मनरली ||२२||
२
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
24
बोलई कुमरी तव उडवडी वर अवर वरवा आखडी । एहवो निश्चय जाप्यो यदा, लेई लगन सहुं वलीओ तदा ।। २३ ।। हवई मोटा मांड्या मांडवा, बांध्या चंदरूआ नव-नवा । टोले टोले करती गांन, नारि मली केलवई पकवान ।। २४ ।।
JULY 2014
खाजां चुरमा सेव-लाडूया, गल्या गांठीया नही पाडूया" । मांडी मरकी मोदक जाति, झीणा फीणा दीधी पाति ।। २५ ।।
भली जलेबी घेवर घणा, मेवानी पणि६ नही तिहां मणा । खजूर खलहलां खारिकि द्राख, नीमजां पस्तांनी कुण भाख ||२६||
चारोली चारबी अखोड, खातां पोहचई मनना कोड । बदाम गोटा मोटा वली, साकर दूधमाहिं तिहां भली ।। २७ ।।
पापड पापडी अनई वडी वडां, शालि दालि धृत धोलपडवडां । स्वजन जम्या दिधा तंबोल, कर्या छांटणा अतिरंगरोल ।।२८ ||
गुणसागर वर तव संचर्या, माथइं गुगट मनोहर भर्या । विविध कुसम टोडर" उरि हार, पहर्या अवर सवे शणगार ।। २९ ।।
वरघोडइं सोहइं अतिभलो, वइरागी कुंअर गुणनिलो । अनुक्रम पोहतो ते 'रण बारि, जई वइंठो मांडवा मझार ||३०||
सवि शणगार तणी ओरडी, हरखी ते आवई गोरडी । कंत तणो कर झाली रही, हवई न जावा देसुं सही ||३१||
गुणसागर थई बइंटो धीर, भावई भावना एहवी वीर । जीव एकलो छई संसारि, को कहई नो नथी निरधारी ।। ३२ ।। सुख विहचवा मलई सहु कोई दुख विहचवा न आई दोय । सगासणीजा अनई कलत्र, मातपितानई वाहला पुत्र ||३३|| स्त्री कखि लीउं निःसंचल्यु, देखी नमि राजा एकलुं । प्रतिबोधाणो सुखीओ थयो, जीव एकलो ते गुगतिं गयो ||३४|| इम चीतवतो भाव चढ्यो, मोह मदन साथि अतिवढ्यो । पाप पखाल्यां समतानीर, जीत्या कर्म महाभडवीर ||३५|
For Private and Personal Use Only
उपनुं केवल झाकलमाल, सुर हरख्या आव्या ततकाल । कंचनकमल रची पाइं नमई, देवदुंदुभी वाजई तिणई समई | | ३६ ||
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
25
जुलाई - २०१४ ते कोतिक कुगरी देखती, वइंरागिणि हूई गुणवती। कर्म राणा गल सवि धोयती, केवल पामी आठइं सती ।।३७ ।। चरकन्या केवल सुर कहई, जे देखी सह मनि गहगहइं। मातपिता उपनो वइंराग, मोहतणो तेणे कीधो त्याग ।।३८ ।। भावई चढ्या आयुं शुभध्यान, ते पणि पाम्या केवलज्ञान । सकल कर्मनो आणी अंत, ते सतावीस थया भगवंत ।।३९ ।। वइंटो कनक कमलि केवली, रायराणा चंदई वली-वली। जे पूछई मनना संदेह, गुणसागर कहइं उत्तर तेह ।।४०।। बइंठो दीठो हुं सभा मझारि, केवली बोलाव्यो तिणि वार(रि)। सारथपति सांभ ले जे कहुं, 'तुं जाणई छई जाउ कई रहुं ।।४१ ।। ए कुतिग जोवा तुम भाव, तु उवझापुरी जाओ मान भाव | कुतिग दीखें इहा जेहएं, तिहां राजभुवनि देखशो तेहबुं ।।४२।। एह वचन निसुयां भई तिहां, कुतिग जोवा आव्यो इहां । पूछी तुहाो अपूरववात, तो मई को एह अवदास ।।४३ ।।
ढाल। वइंठो सिंघासण सजीओ मनमोहन, पृथिवीचंद्र पविः लाल गनगोहर | सारथपति पासई सुणइं मनमोहन, गुणसागर चरित्र लाल मनमोहन ।।।४४ ।।
गुणवंराना गुण सांभली मनमोहन, उलट अंगि • माय लाल मनमोहन । करई प्रसंशा ते घणी मनमोहन,
धन धन ए रुषिराय लाल मनमोहन ।।४५ ।। अहो ! एहनुं मनदृढपणु मनमोहन, अहो ! एहनो वइंराग लाल मनमोहन । मांहिं रइं केवल लही मनमोहन, साधिओ शिवपुरमाग लाल मनमोहन ।।४६ ।।
धन ते आठ अंतउरी मनमोहन, धन जननी धन तात लाल मनमोहन ।
For Private and Personal Use Only
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
26
JULY-2014
अउठकोडी रोम उल्लसई मनमोहन,
एह सांभलतां ए वात लाल मनमोहन ।।४७।। इम चिंतवतां रायनइं मनमोहन, आव्यु उत्तम ध्यान लाल मनमोहन। अनित्य भावना भावतां मनमोहन, पाम्युं केवलन्यान लाल मनमोहन ।।४८।।
तिणई अवसरि तिहां आवीया मनमोहता, सुर-असुरादिक वृंद लाल मनमोहन । कमल रच्युं सोवनमइं गनमोहन,
रिहां बइंठो पृथिवीचंद लाल मनमोहन ।।४९।। दुंदुभी वाजइं देवनी मनमोहन, वइंठी परषद जाण लाल मनमोहन । अतिमधुरई नादई करी मनमोहन, केवली करइं वखाण लाल मनमोहन ।।५० ।।
प्रतेबोधाणी कामिनी मनमोहन, आणइं मनि वइंराग लाल मनमोहन । उपशमरसमां झीलतां मनमोहन,
टाल्यो मनथी राग लाल मनमोहन । ५१ ।। भवनुं नाटिक निरखती मनमोहन, ते पामई शुभध्यान लाल मनमोहन । क्षपक श्रेणि चढ्या पछी मनमोहन, उपनु पंचम न्यान लाल मनमोहन ||५२।।
ते नरनारी केवली मनमोहन, नवजण दीठां जाम लाल मनमोहन। मातपिता भावई चढ्यां मनमोहन,
पाम्या केवल ताम लाल मनमोहन ।।३।। नवजणनां मातापिता मनमोहन, गणतां ते सतावीस लाल मनमोहन। कुटुंब कस्युं सहु केवली मनमोहन, पोहती मनह जगीरा लाल मनमोहन ।।५४ ।।
For Private and Personal Use Only
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
27
श्रुतसागर
जुलाई - २०१४ गरनारी सह लोमल्युं मनमोहन. आव्या राणाराप लाल मनमोहन । केवल महिगा सह करइं मनमोहन, दीठई आनंद थायई लाल गनमोहन ।।५५।।
इणई अवसरि पूछइं तिहां मनमोहन, सुधन सारथपति एम लाल भनमहन। तुम बिहुँ जण केवल तणो भनमोइन,
संबंध एक छई केम लाल मनमोहन ।।५६ ।। वलतुं भाखइं केवली मनमोहन, सुणि सारथपति धन्य लाल गनमोहन । अहो विहुं पूरवगविं मनगोहन, कीधा सरखा पुण्य लाल मनमोहन ।।५७ ।।
पुत्र पिता अहो हा मनमोहन, आठ आलए नारि लाल मनमोहन । सहु साथि संयम लीओ मनमोहन,
पाल्युं निरतीचार लाल मनमोहन ।।५८ ।। विहुं चारित्र आराधतां मनमोहन. कर्म कर्यां चकाचूर लाल मनमोहन। पोहुता सारशसिधि मनमोहन, सुख लाधा भरपूर लाल मनमोहन ।।५९ ।।
तिहां सागर तेत्रीरानुं मनमोहन, पूरण भोगवी आय लाल गनमोहा। गुणसागर व्यवहारीओ थयो मनमोहन,
हुं आधी हुओ राय लाल मनमोहन ।।६० ।। पूरव प्रेग तण: वरीि मनमोहन, आठ नारि संपत्त लाल मनमोहन । भोगकर्म नवि बांधीउं मनमोहन, शिणई हया टिषयविरत्त लाल मनमोहन ।।६१ ।।
For Private and Personal Use Only
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
28
SHRUTSAGAR
JULY-2014 पाम्यु केवल उजलं मनमोहन, दीठा चउदई राज लाल मनमोहन । साथिं शिवपुरि पोहबस्युं मनमोहन, सारी निज निज काज लाल मनमोहन । ६२ ।।
ए वृत्तांत सुणी तिहां मनमोहन, बहुजण चारित्र लीध लाल मनमोहन। सारथपति श्रावक थयो मनमोहन,
एह प्रश्न जेणई कीध लाल मनमोहन ||६३ ।। जिम उदयाचलि उनीओ मनमोहन, तिमिर निवारइं भाग लाल मतमोहन। तिम पृथिवीचंद्र केटली मनमोहन, टालई संदेह जाण लाल मनमोहन ।।६४ ।।
विहार करइं भूमंडलिं मनमोहन, बुमवई जाण अजाण लाल मनमोहन। दया मूल जिनधर्मर्नु मनमोहन, नित नित करई वखाण लाल मनमोहन ।।६५।।
चोपाई।। इम ते पृथिवीचंद्रकुमार, गुणसागर बेहु करई विहार। प्रतिबोधी नरनारी कोडी, मुगतिं पोहता पाप विछोडि ||६६ । । ते चोपन जण केवत लही, साधिउ शिवपुर संयम ग्रही। सीलिंइ नित-नवला शिणगार, सीलिंइ राज रमणिभंडार ।।६७ || सील वडु दीराइ संसारि, पालो सील राहू नरनारि। सीलवंतनइ धइं सह मान, सीलवंत घरि नवइ निधान ।।६८ ।। सीलवंतमांहि जस लीह, सील पालवा हया सीह । ते तो पृथवीचंद्रकुमार, गुणसागर पणि बीजो सार !।६९।। सावलीनगर रही चौमासि, संवत सोलछन्नइ उल्लासि । फागुण सुद एकादशि धारि, वार कहु ते हवई विचारि |७० ।।
For Private and Personal Use Only
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रुतसागर
१. ओठां - दृष्टांत
विना
२. पाखइ
-
सायरसुतभगिनीपतिपुत्र, वयरीसुतवाहनभख्यसत्रु ।
तेहनी गति जिहां तेहनुं रत्न, तेह वार जाणो कविरत्न | ७१ ॥
=
कबुं : केधुं (?)
४. घोटिक = घोड़ो
हाथी
पुष्य नक्ख्यत्रि कीधो रास, सीलवंत नो हुं हुं दास । उपगछपति गुरु गोयम समान, विजयदेवसूरि युगहनधान ।। ७२ ।। तास पाट प्रगट्यो जिम भांण, विजयसिंहसूरि युगहप्रधान ! वाचक भानुचंद्रनो शीस देवचंद्र प्रणमई निशदीश । ७३ ।। ॥ इति श्री पृथ्वीचंद्रकुमार रास संपूर्णम् ।।
कठिन शब्दार्थ
५. मयगल
६. सारे (रि) = सोगलांवाजी
७. रामति
रगत
८. चांति = ( चिंता ?)
९. परट
-M
=
=
१०.
तिय
११. तंति एक प्रकारनुं वार्जित्र
१२. ऊसनो = खिन्न, क्षीण १३. विलविलती विलाप विलखी
१४.
=
शरत
स्त्री
=
१५. रीव
१६. जंत
१७. आलि
१८. अजाडी = माया
१९. धीवर
माछीगार
= लाचार, अनुपाय पोकार
जीव फोगट, व्यर्थ
-
—
२०.
देसाउरी २१. खांति
www.kobatirth.org
=
परदेशी
29
= क्षमा
२२. गरवंत
= धनवान
२३. गरथ - धन, नाणुं
२४. गय = गति
२५. वंकुडी = बांकुं
३०. दाव =
मांगणी
२६. वारु = सुंदर, उत्तम
२७. केलवइ = तैयार कर, रचचुं २८. आहिं = स्थान
२९. माहिरइ (माहेरुं) = लग्नविधिनो
मंडप
=
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जुलाई २०१४
३१. वही
हिमां
३२. मनरली = मनना उमंगथी ३३. पडवडी = जाण
३४. आखडी = नियम, बाधा नठारु, हलकुं
३५. पाडूया
३६. पणि
दुकानमा
३७. पस्तां = पीस्ता
३८. टोडर
For Private and Personal Use Only
आग्रह, आग्रहपूर्वकनी
=
३९.
विहचवा
४०. सणीजा
-
=
=
उमरानी कलगी
वहेंचवा
स्नेहीजन
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्री जिनप्रभसूरिकृत फारसी भाषामां ऋषभदेव स्तवन
श्री जिनविजयजी
आ नीचे आपेलुं स्तवन जैन साहित्यमां एक नवी वस्तु छे. जैन ग्रंथकारोए भारतवर्षनी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, गुजराती, पंजाबी, कानडी, तामिळ, तेलुगु वगेरे आर्य अने द्रवेडीय भाषाओमांनी घणीक भाषाओ मां पोतानी अनेक कृतिओ करेली छे ते तो सुविदत ज छे, पण फारसी जेवी म्लेच्छोनी भाषायां पण जैनाचार्योए कांइ रचना करी हशे एनी कल्पना भने आ स्तवन जोयां पहेलां थइ शके तेम न हती.
जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरिना शिष्यो अकबर बादशाहना दरवारमां विशेषपणे रह्या हता तेथी तेमने बादशाहातनी राजभाषानो सारो परिचय थयो होवो जोइए ए देखीतुं छे अने तेना पुरावाओ पण तपास करतां मळी आहे तेम छे.
भक्तामर स्तवननी टीकामां के बीजे क्यांए मारा बांचवामां आवेलुं छे के सिद्धिचंद्र पंडित फारसी भाषा जाणता हता. पण ए विद्वाने फारसी भाषामां कांइ रचना पण करी हती के केम तेनो पुरावो अद्यापि मारी जाणगां आव्यो नथी. पण प्रस्तुत स्तवन तो एकरी घणुं जूनुं कहेवाय. कारण के आना कर्ता श्रीजिनप्रभसूरि १४ मा सैकामां थएला . तेओ अलाउद्दीनना जमानाना छे.
दिल्ली अने तेना असपासना प्रदेशोमां ते घणो समय वित्रर्या होय एम तेमना रांधे मळी आवती हकीकत उपरथी समजाय छे. अला उद् दीन पछी दिल्लीनी गादिए आवनार महमूदशाह बादशाहना दरवारमा ते सूरिव जता आवता हता अने ए बादशाहने पोतानी चमत्कृतिओ बतावी एनी जैन धर्म तरफ कांईक सहानुभूति मेळवी, मुसलमानोना हाथे थता जैन मंदिरोना नाशने केटलेक अंशे अटकाववागां तेमणे सफळता मेळवी हती.
आ विगत जोतां, नेमने फारसी भाषानो परिचय थाय अने तेमां कुतुहलनी खातरी आवी प्रभुस्तुति बनाववा प्रेराय ते प्रसंगप्राप्त छे. जिनप्रभसूरि समर्थ विद्वान् हता ए वात तो तेमना बनावेला विविधतीर्थकल्प, विधिप्रपा, संदेह विषौषधी, स्मरणटीका वगेरे जे केटलाक ग्रंथो मळी आवे छे ते उपरथी जणाइ आवे छे.
ए ग्रंथो उपरांत, संस्कृत प्राकृत भाषामां तेमणे अनेक स्तुति स्तोत्रो रवेलां छे, जेओमांनां केटलांक प्रकट थएला अने केटलांक अप्रगट रहेलां दृष्टिगोचर थाय छे. एम संभळाय छे के जिनप्रभसूरिने प्रभुस्तुतिओ रचवानो एक प्रकारनो जाणे नियम ज होय के प्रति दिवस तेओ कोई न कोइ नानी मोटी प्रभुस्तुतिनी
For Private and Personal Use Only
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
31
जुलाई २०१४
रचना करता त्यारे ज तेओ मुखमां कोइ वस्तु लेता. कहेाय छे के आ नियमने लइने तेणे प्रायः ७०० जेटली स्तुतिओ वगेरेनी रचना करी हती.
जिनप्रभरिनी आवी उत्कट प्रभुभक्तिए, फारसी जेवी म्लेच्छभाषाने पण भगवान ऋषभदेवनी स्तुतिद्वारा पवित्र करी तेने जाणे जैनमुनिजना मुखमां प्रवेशवानो, जैन मंदिरोगां बोलवानो, अने जैनग्रंथ भंडारोमां स्थान पामवानो हक्क-परवानो करी आग्यो नहिं तो "न वदेद् यावनी भाषां प्राणैः कंठगतैरपि" आ जातना यापनी भाषा न बोलवा माटे राख्त करी राखेला रूढीपोषक शिष्ट नियमनो भंग करवानो अन्य प्रसंग तो मळवो ज कठिण हतो.
खरेखर भाषाविषयक जैन विद्वानोनुं उदार आवरण आखी हिंदुप्रजाने अनुकरण करवा लायक हतुं जेनाचार्योए ब्राह्मणोनी माफक कोईपण भाषानी अवगणना करी नथी तेग ज कोइपण भाषाभाषी मुमुक्षुजनने माटे ज्ञाननां द्वार बंध राख्यां नशी. एल्लुं ज नहिं गण अनेक अति सामान्य भाषाओने पोतानी प्रतिभावाळी कृतिओथी अलंकृत करी, जैनसंतोए उच्च अने प्रगतिशील भाषाओमां स्थान मेळववानी अधिकारिणी बनाची दीधी छे.
-
वर्तमान आर्यप्रजा हिंदी, गुजराती, मराठी, बंगाळी अन पंजावी वगेरे जे देश भाषाओ द्वारा पोतानो जीवित व्यवहार चलावी रही छे से भाषाओनी मूळ जननी प्राचीन प्राकृतने जो जैन विद्वानोए न पोषी होत तो आजे आपणा निकट-पूर्वजोनी पूज्यवाणीनो भरगावशेष पण आपणे न मेळवी शक्या होत. आपणा पूर्वजोनी मातृभाषाने अगर बनानवानो संपूर्ण श्रेय जैन ग्रंथकारोने ज छे. अस्तु.
जेग, प्राचीन वस्तुओंना संग्रह स्थानमा दुर्लभ्य जणाती कोई वस्तु वधारे महत्वनी अने विशेष ध्यान खेचवा लायक होय छे तेम जैन स्तवन, स्तुति, स्तोत्रो, आदिना संग्रहमां आ स्तवन पण वधारे महत्त्वनुं अने विशेष वस्तु जेवुं छे. आ स्तवननुं मूळ पानुं प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजी महाराजना भंडारमांथी मळी आव्युं छे.
ए पानुं, जेम एनी अंते लखेलुं छे, पं. लावण्यसमुद्र गणिना शिष्य पं. उदयसमुद्र गणिए लख्ख्युं हतुं पानुं पंचपाटीना रूपमा लखेलुं छे. एटले के बच्चे मूळ स्तवन लखेलुं छे अने आसपास तथा ऊपर नीचे एम चारे बाजुए टीका लखेली छे.
For Private and Personal Use Only
टीकानी अंते पं. लावण्यसमुद्र गणिनुं ज नाम छे तेथी एम लागे छे के प्रथम मूळ स्तवन पं. लावण्धरामुद्रना शिष्य उदयसमुद्रे लखी लीधुं हतुं अने पछी ते उपर टीका तेमना गुरुए लखी दीधी हती. लख्यानी साल जो के छे नहिं तेथी पं. लावण्यसमुद्रनो समय जाणी शकवानुं वन्धुं नहिं, पण अक्षरानुं वळण अने पानानी स्थिति जोत ते १७मा सैकाथी अर्वाचीन तो नहीं होय तेम लागे छे.
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
32
SHRUTSAGAR
JULY - 2014 आ स्तवनमां फारसी आरबी ने देशी-अपभ्रंश ए त्रण भाषाना शब्दोनो प्रयोग थएला छे. एम ए स्तवननी संस्कृत टिप्पणी लखनारनुं कथन छे अने ते बराबर छे. काम (कडी ३जी), छोडिय (कडी ६), जिम (कडी १०), वगैरे शब्दो अपभ्रंशगुजराती छे अने बीजा फारसी-आरबी छे.
ए फारसी-आरबी शब्दोने पण स्वभाषाना प्रत्ययो लगाडी अर्ध देशी जेवा बनावी लेवामां आव्या छे, दाखला तरीके खिदमत, रहमान, रालाग, हराम, जानवर वगेरे शब्दोने बदले खतमथु (कडी ३), रहमाणु (कडी ५), सलामु, हरामु (कडी ७), जानूउरु (कसी ८) इत्यादिरूपमा लखेला शब्दो लइ शकाय. वळी केटलाक शब्दो तो एवा पण छे के जे आजे गुजराती भाषामां खूब प्रचार पामेला होइ जाणे गुजरातीना ज रूढ शब्दो न होय सेवा लागे छे. उदाहरण तरीके, हकीकत, दोस्ती (कडी २१. खुदा (कडी ३). फरमान (कडी ५), जंग (कड़ी ६), अगर (कडी ७), वगेरे शब्दो आपणने तो अतिपरिचित होइ ते विदेशी छे एम भास पण थवो कठिण छे.
जिनप्रभसूरिना जमानामां-आजथी ६०० वर्ष पहेलाना वखतमां-तो आपणा लोकोने आ शब्दोनो नवो ज परिचय थयो हतो तेथी ते वखते तो आ शब्दो शुद्ध फारसी आरची भाषाना ज शब्दो तरीके स्पष्टपणे ओळखाय अने गणाय ए सगजाय ते छे.
जिनप्रभसूरिनी आ कृतिने फारसी भाषानी कोइ शुद्ध कृति तरीके तो आपणे न ज गणी शकीए. कारण के एमां कांइ ए भाषा विषयक पांडित्यनुं सूचन तो जराए ज नहि. पण कुतुहलोत्पादक कृति तरीके, एनुं स्थान आपणा स्तवनादि संग्रहमा अवश्य राखवा लायक छे.
___ फारसी-आरबी-गुजराती भाषानी काची खीचडी जेवी आ एक वस्तु छे. एवी उपमा आपीए तो ते बरावर बंध वेसती जणाशे. अगर, देशी छंदो रूप सूतरना दोरामां शीखाउ माळीए जेमतेम गुंथेली फारसी-आरची-अपभ्रंश शब्दरूप गुलाब गोगरा अने चंपाना फूलोको आ एक माळा छ, एम पण आ रतुतिने कहीं शकीए तो ते पण योग्य लेखाशे.
आ स्तुतिनी कुल १ कडीओ छ, जेमा पहेली वे कडीओ गाथा छंदमा बनावेली छे. पछीनी ६ कडीओ दुहा छंदमां, अने ते पछीनी एक कडी चतुष्पदी एटले चउपाइ छंदमां बनावेली छे. १०मी कडी, छंद घराबर ओळखातुं नथी. छेल्ली कडी इंद्रवज्रा छंदनी छे,
वांचकोना ज्ञाननी खातर आ स्तवनो सरल गुजराती रार अहिं आपी देवा ठीक थइ पडशे.
For Private and Personal Use Only
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्री जिनप्रभसूरिकृत फारसी भाषामां ऋषभदेव स्तवन
अल्लाल्लाहि तुराहं कीम्वरु सहियानु तुं मरा ष्वांद ! दुनीयक समेदानइ घुरमारइ बुध चिरा नह्यं ||१||
संस्कृत व्याख्या : अल्लाला हे पूज्य ! तवाहं कर्मकरः । त्वं च पृथिवीपतिर्मम स्वामी | वसुधालोकान् जानासि । हे देव! चिरा कस्मात् अस्मान्न संभालयसि । यतस्त्वं मेदिनीं सर्वागमि वेत्सि, ततो मां दुःखिनं [ कथं ] न वत्सीत्यर्थः ।
गाथार्थ :- हे पूज्य ! हुं तारो सेवक नोकर छं अने तुं पृथ्वीपति जेवो मारो स्वागी छे. तुं तो जगत्ना बधा लोकोने जाणे छे-ओळखे छे तो पछी मने शा माटे लांबा समयथी संभारत नथी ?
येके दोसि जिहार पंच्य शस ल्ल्य हस्त नो य दह । दानिशमंद हकीकत आकिलु तेयसु तुरा दोस्ती ॥२॥
संस्कृत व्याख्या : एको द्वौ त्रयश्चत्वारः पंच षट् सप्त अष्टौ नव दश वा वे एव नरा गुणिनो मध्यस्थाः साधवो येषां त्वदीया मैत्री । कोऽर्थः एको वा द्वौ वा यावत् दश वा त एव गुणिनो येषां त्वय्यनुरागो नापरे । गाथाद्वयं ।
गाथार्थ :- जगत्मां, एक वे त्रण वार पांच छ सात आट नव के दश जे कांई तारी साथे मैत्री धरावनारा, नरो छे ते ज गुणवान अने साधु पुरुष छे.
आनिमानि खतमथु खुदा बिस्ताव किंचि बिवीनि । माहु रोजु सो जामु मुरा ये कुछ दिलु विनिसीनि ||३||
संस्कृत व्याख्या : हे स्वामिन्! अस्मदीयां भक्तिं किंचित् अल्पमात्रां शृणु आलोकय । विज्ञप्तिको शृणु विनयं च विलोकय इत्यर्थः । मासं दिवसं रात्रिं यामं एकमपि मम दिलु हृदये विनसिनी उपविश इत्यर्थः ।। खतमथुर्भक्तिर्यथा
आलोवोमसुआरदुः खतमथुर्भक्तिः सुराद्गायनं नृत्यं स्याद्रकुर्नयश्च हथमु रूढिस्तदा काइदा | अन्यायोपि हरामु सोगतिरथो दिव्यादिका जूमला
संघातस्य स यातनिहोरक इति स्याद्विक्रयः व्योध्वनी । । *
टीप्पणकारे आ पद्य- कोइ कोश ग्रंथमांथी अहिं आपेलुं छे. आभाना शब्दोनो खयाल बराबर नथी आवतो. पण आ पद्य उपरथी ए वात जणाय छे के आगळना बखतमां फारसी अने संस्कृत एम द्विभाषाकोष आपणा विद्वानोए बनाव्या हता.
For Private and Personal Use Only
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
34
JULY - 2014 गाथार्थ :- हे स्वामेन! अगारी सेवा-भक्ति तरफ जरा-तरा पण जो अने मास, दिवस, रात्री के छेवटे एक प्रहर पण आवीने अमारा देलमां निवास कर.
तुं मादर तुं फिदर बुध तुं ब्रादर तुं आम्। नेसि विहेलिय तइं अवरि बीजे मोरइ कामु ।।४।।
संस्कृत व्याख्या :- त्वं.... माता त्वं विमुच्य अपरेण बीजे किगपि मम कार्य नेमि नास्तीत्यर्थः।
गाथार्थ :- हे प्रभु! तूं ज मारी माता, मारो पिता आने गाइ छे. तने छोडीने बीजा कोईनी साथे मारे कशु काम नथी.
महमद मालिम मंतरा ईब्राहिम रहमाणु। इंहं तुरा कुताबीआ मेदिहि मुक्यल्फरमाणु ।।५।।
संस्कृत व्याख्या :- त्वं महमदो विष्णुः, इब्राहिमो ब्रह्म., रहमानो महेश्वरः त्वमेव । अथ रहत्यागे इति चौरादिको विकल्पे सो धातुः । रहति रागद्वेषो त्यजतीत्येवं शक्तः । शक्तिवयरताच्छील्ये इति शान। आन्गोत आने मोतः णत्चे कृते रहगाण इति रूपं । सर्वेपि देवार वमेव । मालिगः पंडितो गग त्वं । एषोऽ, तुरा तव कुताबीआ लेखशालिकः । मे मेदिहि मग फुरमाण आदेशं देही, किंकर-वाणि अहं! पंडितो हि शिष्यस्यादेश ददातीति भावः ।
गाथार्थ :- हे प्रभु! तुं ज महमूद-विष्णु छे, तुंज इब्राहीम-ब्रहाा छे अने तुं ज रहेमान-महेश्वर छे. सर्व देव ते तुंज छे. तुं ज पंडित छे. अने हुँ तारो लहीओ छु. तेथी तुं गने तारुं फरमान लखवा आप.
फरमूद तुरा जु मेकुनइ मेचीनइ न सुधंग। खोसु शलामय आदतनु अर्जदि छोडिय यंग ।।६।।
संस्कृत व्याख्या :- फरमूद तुरा तव आदिष्टं यो मेकुनइ करोति, सधंग दुःखानि न मेचीनइ न चुंटयेत्। खोसं सुखं, शलामथ कुशलं, आदत साहायं, नु नव्यं, अजदि लभते । कथंभूतः छोडिययंगः मुक्तकलह इति संबोधनं गतद्वेष इति भावः ।
गाथार्थ :- दुनियाना जंग-झगडाथी पर थयेला हे मालिक! जे तारा फरमान प्रमाणे नथी वर्ततो ते दुःखोमांथी छूटवानो नथी अने सुख, सौभाग्य, अने सहायता मेळववानो नथी.
सादि न खस्मि नवा अगर तं कुय तुरा सलासु। बंदि पलात सु मे दिहइ वासइ न हर हरामु ।७।।
For Private and Personal Use Only
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
35
श्रुतसागर
जुलाई - २०१४ संस्कृत व्याख्या :- सादिति तुष्टोन वा मेति । अगर यद्यपि, त्वं कुय क्वापि, तुरा सलामु तव नमस्कारः, दित्ति ईदृशः। किं च, पलात राजप्रसादः, स मेदिहइ ददाति। हर इति प्रत्यर्थे रवां प्रतिनमस्कारो हरामु व्यर्थं, निवासइ न भवति । कोऽर्थः यदि न तुष्टो न रुष्टोऽसि ततस्तव नमस्कारो राजप्रसादं कथं ददाति, कथं व्यर्थो । रयादित्यर्थः।
गाथार्थ :- हे प्रभु! मारा नमस्कारने लइने तूं जो तुष्टमान न थाय अने मने जो कोइ वक्षीरा न आपे तो पछी ए मारो करेलो नमरकार हराम-व्यर्थ नहि थइ जाय?
जानूउरू यो भेकुसइ मिदिहदि सो न विहस्ति। बुचिरुक बिल्लइ दोजखी धंग बहुत तसु हस्ति ।।८।।
संस्कृत व्याख्या :- जानूररु ति जीवान, यो मेकुराइ हंति, स विहस्ति स्वर्ग, न गिदिहदिन प्राप्स्यति । किं तु बिल्ल इति निश्वितं, बुचिस्क् स्थूलानि, दोजखीधंग नरकदुःखानि प्रभूताने, तस्य हरित भवंति । अतएव तव सेवकों जंतून हंतीत्यर्थः। दूहक पटक।
गाथार्थ :- हे प्रभु! जे मनुष्य जनावरोने पशुओने मारे छे ते स्वर्गमां नहि जाय पण धोक्करा रीते ते दोजखमां-पर्कग ज जाय छे. रोथी नारो जे सेवक छे ते कोइ जीवने मारतो नथी.
अरतारां तेरीखु वदानु साले साते दीग सरानु। चिरमदीदयं बुध रू तुरा बूदी कार सऊ बस मरा ।।९।।
संस्कृत व्याख्या :- अरतारा क्षत्र, तेरीखु तिथि:, छ, (छ?) इति भाषाविशेषे, दातु शरीरं, साले र वत्सरः, साते घटिका, दीग प्रभातं. नु वाक्यालंकारे। सरात (?) व्यं एतानि स्थानानि, भव्यानि अद्य गम जानाति, र. यतः, चिस्म नेत्रदयेन, तुरा तव रू मुखं दीद दृष्टं, कार प्रयोजनानि, राउ सर्वाणि कार्याणि संपूर्णागि बभुरिति भावार्थः । चतुष्पदी छन्दः । दीद इति विलोकित । तथा च
आदिष्ट फरा इति वस्तुलिखितं गृल' गृहीतं नतं रल दीर विलोकित्तः परिहा हिरतुं जुड़ा योजितं । दतं दाद तिपीदमध्य चरितं जहं यदभ्याहितं गुर। कृतं च कर्तु तदहो भग्नं च इस्किस्तयं ।।
गाथार्थ :- आ क्षत्र, आ तारीख, आ साल, आ घडी, आ प्रभातः बधी वस्तुओ आजे मारे माटे सफळ थई छे कारण के एमां में मारी बे आंखोथी तारा दीदारनां दर्शन कयां छे. बरा, मारां बधां कामो पूरां थयां छे.
For Private and Personal Use Only
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
36
JULY -2014 माही उस्तुरु गाज गाउनर खू (ग) पलंगो। आहू मुरवा मुरुगु रोरु गामेसि कलागो। मगस सितारक मारु वाजु गावसु ताउसग। ऊयजकु मखलु कतानु खइख सगु वत वुज मूसग। दुजस्व उसार नकासु जनि दरजी उ जरी हजाम्। ते वासइं जिम मेकुनई सिरिजिन तुरा सलासु 11१०।।
संस्कृत व्याख्या :- मही मत्स्यः, उरतुरु उष्ट्रः, गाउ गौः, गाउनर बलीवर्दः, खूग शूकरः, पलंगश्चत्रकः, आहू कृष्णसारः, गुरुवा मार्जारः मुरुग कुर्कुटः, रोरु व्याघ्रः, ग्रामेसि महिषी, कुलग काकः, मगस मक्षिकाः, सितारिका कावरिः, मारु पन्नगः, वायु (बाजु) श्येनः, गावसु ऋक्षुः, ताऊसग मयूरः, ऊबजकु गृह गोधीका, मखलु तीड, कुतान मत्कुणः, खयख चंचटः, सगु श्चा, बत हराः, बुज अजा, मूसग मूषकाः, एतैः शब्दैः तिर्यंचः प्रतिपादिताः। राग्नितं, कुभानुषयोनयः-दूर्जयो खउसार चर्का (चर्ग?) करः, नकासु चित्रकारः, जनि महिला, दरजीउ सूचिकः, जरी सुवर्णकारः, हजाग नापित इत्यादि अन्या अपि विकृ तेजातयो ग्राह्याः । जातिग्रहणे राज्जातीयस्यापि ग्रहणमिति वचनात् । हे जिन! ते वाराई भवति ये तव नमस्कारं (न) कुर्वति । कोऽर्थः-तव नमस्कारमकृत्वा तिर्यग्योनो पूर्वोत्तरवरूपेषु सत्वेषु कुमानुषत्वे च जीठा उत्पद्यंत इति भावः।।
गाथार्थ :- जे तने नथी नमता ते मत्स्य, ऊंट, गाय, बळद, सूअर, चित्रा, हरण, बीलाडी, मरघडा, वाघ, भेंस, कागडा, माखी, काबर, सर्प, बाज, रीछ, मोर, घरोळी, तीड, माकड, चांचड, कुतरा, बतक, वकरा, मूषक आदि तिर्यधनीपशु, पक्षिनी योनिमां, तेम ज चमार, चितारा. दरजी, सोनार हगाम के स्त्रीआदिनी नीच मनुष्यजातिगां पेदा श्राय छे.
शहरु दिह उलातु छत्रु स्वाफूर ऊदु मिसिकि जरु नवातु ष्वांद रोजी दरास । कराव पिसि तुरा इं नो सरा मेखुहाइ रिसइ हथमु दोस्ती वंदिने मेदिहीति ।।११।।
संस्कृत व्याख्या :- शहरु पत्तनं. दिह ग्रामः, उलात देशः, छन्नु छन, छत्र ग्रहणात् राज्यं ज्ञेयं । खापूरु कर्पूरं, ऊदु अगुरुः, मिसकि कस्तुरी, जरु सुवर्ण नवातु शर्करा, ष्वांद स्वानिन्, रोजी विभूतिः, दरास विस्तीर्णः, कसव ईक्षुः, पिमि (सि?) पार्श्वे, तुरा तव, ई एष मल्लक्षणो जनः । नो नैव, शरामज्ज . पूर्वोक्तं वरतुजातं, मेषुहीई याचेत, किंतु हे ऋषभ हथमु न्यायं, दोस्ती सर्वस्यापि मैत्री
For Private and Personal Use Only
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
37
श्रुतसागर
जुलाई - २०१४ वंदिने इयदेव त्वं मे दहीति देयाः । कोऽर्थः अहं अ (न्य) त किमपि न याचे किंतु त्वं मम न्यायं मैत्रीमेव देया इति भावार्थः ।
अरिभस्तवने क्व चेत् पारसी क्वचित् आरब्दी क्वचिदपभ्रंशो ज्ञेयः । तुरा मरा इति सर्वत्र संबंधे संप्रदाने च ज्ञातव्यं । तथा च कुरानकारः
अजइच्य त्वया दानसंबंध संप्रदाययोः । रा सर्वत्र प्रयुज्येतान्यत्र वाच्यं सू रूपतः ।। आनि मानि अस्मदीयं किं चि कियच्चं दिरीदृशं । चुनी हमचुनीन् तादृक् वंदिनं इयदेव च ।।। जेि किगपि इत्यादि कुरानोकं लक्षणं सर्वत्र विज्ञेयं संप्रदायाच्च ।
गाथार्थ :-हे जिन! हं तारी पासे शहर, गाग, देश, सोनू, अगर, कस्तुरी, कपुर, खांड, रोलडी आदि एवी कोइ सारी नरसी वस्तुनी पाचना नथी करतो. तुं तारा बंदाने-सेवकने एक मात्र न्याय्य भरेली मैत्री आप-अथात् आ सेवकने तुं तारी मित्रतानी बक्षीस आप, एटलुं ज हुँ तने पीनवु छु.
॥ इति श्री रामदेव रततनं राटीकमिदमदारिख ।। ।। श्री जिप्रभरिकृतिरियं ।। पं. लावण्यसमुद्रगणि नजाराग्रागे । ॥ इति श्री प्रिभारिकृत-पारसीभाषया श्रीऋषभदेवस्तवनं समाप्तगिति ।। ।। गं. लावण्यसमुद्रगजिशिष्य उदयरागुद्रगणि लिखितं । छ । छ ।।
| कठिन शब्दार्थ ]
आ स्तवनगां ज फारसी-आरबी शब्दो आपेला छे से अपभ्रष्टरूपमा छे. कारण के एओनां शुद्धरूप अने शुद्ध उच्चार तो जे ए भाषाओनो पूरो पंडित होय ते ज जाणी-करी शके. कर्णोपकर्णथी सांभळीने कोइ पण भाषा, शुद्ध ज्ञान थइ शकतुं नथी.
ए ज्ञान माटे तो ते भाषानां व्याकरण, कोष अने साहित्यग्रंथोनो खास अभ्यारा थयो जोइए. केवळ कोइ भाषा बोलनारा लोको ना उपलक परिचयथी जाणी लीधेलो अने कर्णोपकर्ण सांभळी लीधेली भाषा यथार्थरूपमां अवगत थइ शकती नथी. ए रीते जे भाषानुं ज्ञान थाय छे ते प्रायः अपभ्रष्ट स्वरूपर्नु होय छे,
जिनप्रभसूरिनुं फारसी-आरबी भाषाना शब्दोनुं ज्ञान पण अर्थात् आवाज स्वरूप, होवु जोइए. कारण के जे शब्द प्रयोगो आ स्तवनगां करेला छे ते पोताना मूळस्वरूप करता विलक्षण रूपमा ज दृष्टिगोचर थाय छे. जे रूपमा ए शब्दो आ
For Private and Personal Use Only
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
38
JULY - 2014 स्तवनमां गोठवेला छे ते रूपमां तो ए भाग्ये ज, ए भाषाना अभ्यासीने ओळखाय तेम छे. आ स्तवन उपर संस्कृत टिपण आपेलुं छे. ते जो न होत तो आ स्तवननो भावार्थ समजवो पण कठ थई पड़त.
परंतु संस्कृत टिप्पणमां आपेला ए अपभ्रष्ट शब्दोना संस्कृत पर्यायोना लीधे एओर्नु मूळ स्वरूप जाणी लेवामां सारी गदद मळे छ अने ए मददना योगे, जेटला शब्दोनां यथार्थ स्वरूप समजी शकाय रोटलां रामजी लेवा अमे पुरातत्त्व मंदिरनी समितिना सभ्य अध्यापक श्री नदवी, जेओ फारसी-आरवीना पूर पंडित छ, तेमनी पारो केटलोक प्रयास को हतो. ए प्रयासना परिणामे जे शब्दो बरावर समजाया ते बधा शुद्ध रूपमां नीचे आपीए छीए. जे केटलाक शब्दो बराबर नथी समजाया, तेओनी आगळ (?) आवां शंकाचिन्हो भूक्यां छे. बधा शब्दो कडीवार लीधा छे. कडी क्रमांक :
अल्लाल्लाहि = अल्लाह इल्लाही, मारा इश्वर, तुरा = तारो अगर तने. कीम्बरु = (?) सहियानु = शाहजहान् अथवा शाहान्, जगतनो मालिक मरा = मारो अगर मने, चिरा = शा माटे. ख्वांद = खाविंद, स्वामी. कडी क्रमांक १:
येके = यक, एक, दो = बे. सि = रो. त्रण. जिहारि = च्हार, च्यार. पंच्य पंज = पांच. शस = छ. लय = सात (सपा?). हस्त = आठ. नोय-नोह = नव. दह = दस. दानिसिमंद-दानिशमंद = बुद्धिमान. हकीकत = इकीगत. आकिलु = आकिल, होसिआर. दोस्ती = मित्रता. कडी क्रमांक ३ :
आनिमानि = आमन्, ते मारो. खतमथु = खीदगत, सेवा. विस्नवि = बिश्नवि, सांभळो. बिबीनि = बिबी, जुओ. माहु = माह, महिनो. रोजु = रोज, दिवस. सो = शब, रात्र. जाम = (याम?-सं.), मुरा = मारा. दिलु = दिल, हृदय. बिनिसी = बेसो. कडी क्रमांक ४:
मादर = माता. फिदर = पिदर, पिता. ब्रादर = भाइ. आमु = आम, सर्व. नेसि = नेस्त, नहि. कड़ी क्रमांक :
महमद = महम्मूद, ईश्वर. मालिम = मुअल्लीम, उस्ताद = शिक्षक, कुताबीआ = कातिब, लखनार. मेदिहि = मिददेह, मने आप. मुल्यलू = म्यकवाल, कहेलुं. फरमाण = फरमान, आज्ञा.
For Private and Personal Use Only
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
___39
जुलाई - २०१४ कड़ी क्रमांक ६:
फरमूदतुरा = तार कहेलुं, मेकुनइ = मेकुनि, न करयु. मेचीनई = (?). सुधंग = खधंग, तीर, जखम. खोसु = खुश, सुख. शलामथ = सलामत. आदत = अर्जदि (अर्ज?), यंग = जंग, लडाइ. कडी गांक :
सादि = शादी, खुशी, खस्मी = दुश्मनावट. क्रय = कोई. बंदि = बदिन, आयुं, खलात = खलसत, भेट. वासदि = वासद, थq. हत्तामु = हराम, व्यर्थ. कड़ी क्रमांक ८: ___ जानूउरू = जापर, पशु. मेकुसइ = गिकुशी, मारवू, मिदिहदि = मिददेह, मेळवयु. विहरित = बेहरत, स्वर्ग. बुचिरुक = बुजुर्ग, मोटा. बिल्लई = बल्ल, वलके. हस्ति = हयाती. कडी ९: ___ अरतारां - सितारा, तारा. तेरीखु = तारीख, तिथि. बदानु = बदन, शरीर. साले = शाल. वर्ष. साते = राससडी. चिरमदीदयं = चरमदीदं, जोवू. बूदी = थ. कार = काग. फडी क्रमांक १० :
माही = गाछलुं. उस्तुरु = उार, उंट. गाउ = गाच. गाउनर = गौनर, वळद. खूगु = खोक, सुअर. पलंगो - पलंग, चित्रो. आहु = हरण. गुरुबा = गुरव, चीलाडी. मुरुग := मरधुं. सेरु = शेर, वाध. गामेसि = गोमेश, भेस. कुलग - फला ग, कागडो, मगस = मांखी, सितारक = (?). मारु = मार, सर्प. बाजु = वाज. गाबसु = (?), ताउसग = ताउस, मोर. मखलु = र ई जीवधारी वस्तुओ. सगु = सगू कुतरूं, बत = हंस. बुज = पकरी. मूसग = मूर, उंदर. दुज = दुर्ज, तीतर. नकासु = नवलाश, चित्रकार. कड़ी क्रमांक ११:
शहरु = शहर, गर. दिह = गाम. उलात = विलायत, देश. खाफूर = कापूर, कपूर, ऊदु = ऊद, अगर. मिसिकि = मिशूक, कस्तूरी. जर = सोनुं. नवातु = नबात्, साकर. दरास = दराझ. फेलाएलुं. कराब = कस्ब, साकर. इ = आ. सरा = शरह, सर्व. मेखुहाई = मिख्वाही, चहावं.
(जैन साहित्य संशोधक, वि.सं. १९९३, खंड-३, अंक-१)
For Private and Personal Use Only
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
ग्रंथ लिपि : एक अध्ययन
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
डॉ. उत्तमसिंह
ग्रंथ लिपि हिंदुस्तान की प्राचीन लिपियों में से एक हैं। इसका उद्भव लगभग सातवीं-आठवीं सदी में ब्राह्मी लिपि से हुआ। जैसा हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं कि हिंदुस्तान की समस्त प्राचीन लिपियाँ ब्राह्मी लिपि से ही निःसृत हुई हैं अतः ब्राह्मी को समस्त लिपियों की जननी कहा गया है। कालान्तर में बाही लिपि के दो प्रवाह हुए एक उत्तरी ब्राह्मी तथा दूसरा दक्षिणी ब्राह्मी । उत्तरी ब्राह्मी से शारदा, गुरुमुखी, प्राचीन नागरी, मैथिल, नेवारी, बंगला, उडिया, कैथी, गुजराती आदि विविध लिपियों का विकास हुआ। जबकि दक्षिणी ब्राह्मी से दक्षिण भारत की मध्यकालीन तथा आधुनिक कालीन लिपियाँ अर्थात् तामिळ, तेलुगु, मळ्याळम, ग्रंथ, कवडी, कलिंग, तुळु, नंदीनागरी, पश्चिमि तथा मध्यप्रदेशी आदि लिपियों का विकास हुआ। अतः ग्रंथ लिपि को शारदा लिपि के समकालीन कहा जा सकता है। इसका चलन विशेषरूप से दक्षिण भारत के मद्रास रियासत, विजयनगर, कांचीपुरम्, त्रिचनापल्ली, मदुरई, त्रावनकोर, वक्कलेरी, वनपल्ली, तिरुमल्ला आदि प्रदेशों में अधिक रहा। जिस समय उत्तर भारत में विशेषकर काशमीर प्रान्त में शारदा लिपि फल-फूल रही थी उसी समय दक्षिण भारत में इस लिपि का विकास हुआ।
ग्रंथ लिपि ताडपत्र पर लिखने के लिए सबसे उपयुक्त लिपि मानी गई है। विदित हो कि यह लिपि ताडपत्र पर शिलालेख, ताम्रलेख आदि की तरह नुकीली कील द्वारा खोदकर लिखी जाती थी। तत्पश्चात उन अक्षरों में काली स्याही भरने का विधान था । इस लेखन पद्धति का सबसे बडा फायदा यह है कि यदि उन ताडपत्रों की स्याही फीकी पड जाये अथवा उड जाये तो भी अक्षर विद्यमान रहते हैं । उन अक्षरों में पुनः स्याही भरी जा सकती है। आज भी कई ग्रंथागारों में ग्रंथ - लिपिबद्ध अनेकों ग्रंथ ऐसे मिलते हैं जिनके अक्षरों में स्याही नहीं भरी है, केवल ताडपत्र पर अक्षरों को खोदकर लिख दिया गया है। लेकिन उन्हें पढ़ा जा सकता है, विषय-वस्तु का लिप्यन्तर भी किया जा सकता है। संभवतः ग्रंथ लिखने अथवा लिखवाने वाले के पास स्याही का अभाव रहा होगा, जिस कारण ताडपत्रों पर ग्रंथ लिखकर छोड़ दिया गया होगा और अक्षरों में रयाही नहीं भरी जा सकी होगी। क्योंकि उस समय ग्रंथ लेखन हेतु स्थाही ताडपत्र, भोजपत्र,
१. देखें श्रुतसागर, अंक-३८-३९. (ब्राह्मी लिपि एक अध्ययन), मार्च-अप्रेल २०१४.
For Private and Personal Use Only
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
41
जुलाई २०१४
कागज, कपडा, कलम आदि ग्रंथ लेखन सामग्री एकत्रित करना इतना सरल नहीं था । अर्थात् साधन-सामग्री का बहुत अभाव था । आज भी श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोवा के आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ग्रंथागार में ऐसे अनेकों ग्रंथ-लिपिबद्ध प्राचीन ताडपत्रीय ग्रंथ विद्यमान हैं जिनके अक्षरों में स्याही नहीं भरी है, लेकिन उन्हें पढा जा सकता है ।
विदित हो कि तत्कालीन स्याही अथवा विविध रंग आदि बनाने के लिए प्राकृतिक वस्तुओं जैसे भांगुरा, गोंद, लोह, विविध वृक्षों की छाल, पुष्प, पत्ती, गुठली आदि क स्तेमाल किया जाता था। जिसके कारण ये रंग अथवा स्याही चिरकाल पर्यन्त स्थाई रह सकें। इसका प्रमाण हमारे ग्रन्थागारों में विद्यमान प्राचीन पाण्डुलिपियों को देखने मात्र से मिल जाता है। विविध प्राचीन ग्रंथों में स्याही, ताडपत्र, कागज आदि लेखन सामग्री तैयार करने विषयक उल्लेख भी मिलते हैं। जिनमें काला भांगुरा तथा बबूल के गोंद का वर्णन करते हुए तो यहाँ तक कहा गया है कि- 'गोंद संग जो रंग भांगुरा मिले तो अक्षरे अक्षरे दीप जले'। आज भी इस बात के पूर्णतः स्पष्ट साक्ष्य विद्यमान हैं। हमारे ग्रंथागारों में ऐसे अनेकों ग्रंथ संगृहीत हैं जिनका आधार (कागज या ताडपत्र) पीला पड़ गया है अथवा पूर्णतः जीर्ण हो चुका है लेकिन उस पर उत्कीर्ण अक्षरों की स्याही आज भी चमकती हुई दिखाई पड़ती है। ऐसा लगता है मानो कि प्रत्येक अक्षर दीपक की तरह चमक रहा हो ।
ग्रंथ-लिपिबद्ध ताडपत्रों की एक खासियत यह है कि, यदि इन ग्रंथों पर लंबे समय से बेदरकारी के कारण अत्यन्त धूल-मिट्टी अथवा कालिख जमा हो गई हो तो इन्हें पानी से धोया भी जा सकता है। विदित हो कि ऐसा करने से लिखे हुए अक्षरों को किसी प्रकार की हानि नहीं होती है। लेकिन ऐसा करते समय पाण्डुलिपि विशेषज्ञों का मार्गदर्शन लेना चाहिए। क्योकि इस प्रक्रिया में विशेष ध्यान रखना होता है कि उन पत्रों को धोने के बाद सुखाने के लिए आवश्यकतानुसार योग्य ताप एवं नमी प्रदान किया जाये ।
अस्तु प्राचीन भारतीय इतिहास एवं सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण, संपादन एवं पुनः लेखन में ग्रंथ - लिपिबद्ध साहित्य की अहम भूमिका रही है। इस लिपि में लिखित सामग्री मूल पाठ के निर्धारण एवं कर्तुः अभिप्रेत शुद्ध आशय तक पहुँचने में प्रामाणिक और महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रस्तुत् करती है। इसके नामकरण एवं उद्भव और विकास विषयक विविध अवधारणाएँ निम्नवत् है
For Private and Personal Use Only
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
42
SHRUTSAGAR
JULY .2014 ग्रंथ लिपि नामकरण विषयक अवधारणा :
ग्रंथ लिपि का निर्माण दक्षिण भारत में संस्कृत के ग्रंथ लिखने के लिए हुआ। क्योकि वहाँ प्रचलित तामिळ लिपि में अक्षरों की न्यूनता के कारण संस्कृत भाषा लिखी नहीं जा सकती। प्राचीन तामिळ लिपि में सिर्फ अठारह व्यंजन वर्णों का चलन है, जिनसे तामिळ भाषा का साहित्य तो लिखा जा सकता है लेकिन संस्कृत भाषाबद्ध साहित्य लिखना संभव नहीं। अतः संस्कृत के ग्रंथ लिखने के लिए इस लिपि का आविष्कार हुआ। संभवतः इसी कारण इसे ग्रंथ लिपि (संस्कृत ग्रन्थयों की लिपि) नाम दिया गया। इरा लिपि के अक्षरों का लेखन करते समय एक ग्रन्थि (गांठ) जैसी संरचना बनाकर अक्षर लिखने की परंपर। मिलती है, जिसके कारण भी इसका नाम ग्रंथ लिपि पड़ने की संभावना है। विदित हो कि दक्षिण क्षेत्र के लेखक अपने अक्षरों में सुन्दरता लाने के लिए अक्षर-लेखन में प्रयुक्त होनेवाली लकीरों (खडीपाई एवं पड़ीपाई) को वक्र और मरोडदार बनाते थे। इन लकीरों के आरंभ, मध्य या अन्त में कहीं-कहीं ग्रन्थियाँ भी बनाई जाती थीं। इन्हीं कारणों से इस लिपि के अक्षरों की संरचना ग्रन्थि (गाँठ) के समान बनने लगी और धीरे-धीरे इसके अक्षर अपनी मूल वापी लिपि से भिन्न होते चले गये। ग्रंथ लिपि की विशेषताएँ . * यह लिपि ब्राह्मी तथा अन्य भारतीय लिपियों की तरह वायें से दायें लिखी
जाती है। * ताडपत्रों पर लिखने के लिए यह लिपि सर्वाधिक उपयोगी. सरल और सटीक
लिपि मानी गयी है। * यह लिपि ताडपत्रों पर शिलालेख एवं ताम्रलेख आदि की तरह लोहे की
नुकीली कील द्वारा खोद कर लिखी जाती है। * इस लिपि में शिरोरेखा का चलन नहीं है। विदित हो कि ब्राह्मी तथा गुजराती लिपियाँ भी शिरोरेखा के बिना ही लिखी जाती हैं। लेकिन शारदा, नागरी
आदि लिपियों में शिरोरेखा का चलन है। * इस लिपि में समस्त उच्चारित ध्वनियों के लिए स्वतन्त्र एवं असंदिग्ध चिह्न
विद्यमान हैं। अतः इसे पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि कहा जा सकता है। * इस लिपि में अनुस्वार, अनुनासिक एवं विसर्ग हेतु स्वतन्त्र चिह्न प्रयुक्त हुए
हैं, जो आधुनिक लिपियों में भी यथावत् स्वीकृत हैं। * इस लिपि में व्याकरण-सम्मत उच्चारण स्थानों के अनुसार वर्णों का ध्वन्यात्गक विभाजन है।
For Private and Personal Use Only
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
43
जुलाई - २०१४ • इस लिपि का प्रत्येक अक्षर स्वतन्त्ररूप से एक ही ध्वनि का उच्चारण प्रकट
करता है, जो सुगम और पूर्णरूप से वैज्ञानिक है। * इस लिपि के अक्षरों का आकार सगान है व शलाका प्रविधि से टंकित करने
का विधान मिलता है। : अक्षरों की बनावट ग्रन्थि के आकार की है। प्रत्येक अक्षर में एक सूक्ष्म ग्रन्थि
बनाकर लिखने की परंपरा है। • इस लिपि के अक्षर लेखन की दृष्टि से सरल माने गये हैं, जिन्हें ताडपत्रों पर
गतिपूर्वक लिखा जा सकता है। • इस लिपि के समरत अक्षर सलंग सगानान्तर और अलग-अलग लिखे जाते हैं। * इस लिपि में अनुरवार को अक्षर के ऊपर न लिखकर उसके सामने लिखा
जाता है। ब्राही लिपि में भी यही प्रक्रिया अपनाई गई है। * इस लिपि में 'आ, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ' की मात्राएँ अक्षर के आगे या पीछे समानार लगाई जाती हैं। अर्थात् उपरो) मात्राओं में से कोई भी
मात्रा अशः ले ऊपर या नीचे नहीं लगती है। * इस लिपि में संयुक्ताक्षर लेखन हेतु अक्षरों को ऊपर-नीचे लिखने की परंपरा मिलती है । अर्थात संयुक्ताक्षर लिखते समय जिस अक्षर को पहले वोला जाये या जिरा अक्षर को आधा करना हो उसे ऊपर तथा बाद में वोले जानेवाले दूसरे अक्षार को उसके नीचे लिखा जाता है। ब्राही लिपि में भी संयुक्ताक्षर लेखन हेतु यही परंपरा मिलती है। प्राचीन नागरी -लिपिबद्ध पाण्डुलिपियों में
भी कुछ संयुकावार इसी प्रकार ऊपर से नीचे की ओर लिखे हुए मिलते हैं। : इस लिपि में रेफ सूचक चिह्न उस अक्षर के नीचे से ऊपर की ओर लगाया
जाता है। जबकि दीर्घ 'ई' की मात्रा आधुनिक नगरी लिपि में प्रचलित रेफ की तरह लगती है तथा ह्रस्व इ की मात्रा आधुनिक नागरी में प्रचलित दीर्घ 'ई की मात्रा की तरह लगती है। * इस लिपि का ज्ञान हिंदुरतान में प्रचलित अन्य प्राचीन लिपियों को सरलतापूर्वक
सीखने-पढने एवं ऐतिहासिक तथ्यों को समझने में अतीव सहायक सिद्ध होता है। * इस लिपि में लिखित ग्रंथसंपदा को शुद्ध पाठ की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
माना गया है। क्योंकि यह लिपि कागज पर लिखने की परंपरा से प्राचीन है तथा इसमें पाठान्तर की संभावना कम रहती है।
For Private and Personal Use Only
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
44
SHRUTSAGAR
JULY - 2014 * इस लिपि में विपुल साहित्य लिखा हुआ मिलता है। आज भी हिंदुस्तान का
शायद ही कोई ऐसा ग्रंथागार होगा जिसमें ग्रंथ-लिपिवद्ध पाण्डुलिपियों का संग्रह न हो। * इरा लिपि में निबद्ध ग्रंथ अमूल्य निधि के रूप में माने गये हैं, जो अपने
संग्रहालय की शोभा में चार-चाँद लगा देते हैं। * इस लिपि में संस्कृत, कृत, पालि, अपभ्रंश आदि भाषागद्ध साहित्य को
शतप्रतिशत शुद्ध लिखा जा सकता है। ग्रंथ लिपि की वर्णमाला :
शिलाखण्डों, ताडपत्रों ताम्रपत्रों एवं लोहपत्रों आदि पर उत्कीर्ण इस लिपि में प्रयुक्त स्वर एवं व्यंजन वर्णों की संरचना निम्नवत है
रवर वर्ण लेखन प्रक्रिया
आ
तृ
| | 2|26 |3|883
ए । ऐ ओ | औ | अं | अः ள ஸ3 வன னெ ஔ
त्यंजन तर्ण लेखन प्रक्रिया
018
621960
| एक
L02023
6007
2 |
----
-------
6600 6m 602
w
lu
|
|
| UU
0960 smo 5
612
For Private and Personal Use Only
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रुतसागर
क् + ष् = क्ष
क + 5 = 507
www.kobatirth.org
45
संयुक्ताक्षर लेखन प्रक्रिया
जैसा कि हमने ऊपर ग्रंथ लिपि की विशेषता वर्णित करते हुए कहा है कि इस लिपि में संयुक्ताक्षर लिखने हेतु ऊपर से नीचे की ओर लिखा जाता था । आर्थात् जिस अक्षर को आधा लिखना हो उसे ऊपर लिखकर दूसरे अक्षर को उसके नीचे या किंचित समानान्तर लिख दिया जाता था । अतः इस प्रक्रिया के तहत इन संयुक्ताक्षरों को निम्नवत् लिखने का विधान है
ख्
त् + र् = त्र
f1f= 5+
च् छ
प् फू
M SiMMTU
வ
ह
கு
हलन्त चिन लेखन प्रक्रिया
इस लिपि में शुद्ध हलन्त के लिए (६) चिह्न प्रयुक्त हुआ है ।
विदित हो कि यह बिहन अक्षर के ऊपर लगाया हुआ मिलता है । अर्थात् नागरी लिपि में जिस प्रकार किसी वर्ण के ऊपर रेफ का चिह्न लगाया जाता है, उसी प्रकार ग्रंथ लिपि में यह हलन्त चिह्न लगाया जाता है। उदाहरण स्वरूप यहाँ कुछ वर्षों में हलन्त बिन लगाकर इस प्रक्रिया को निम्नवत् समझा जा सकता है
थ् स् हू प्
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जुलाई २०१४
ट्
त्
न्
L2 | 5) स े
-
ल
ज्
द
ण्
uf nf f श ल 5 6of
For Private and Personal Use Only
ज् + ञ् = ज्ञ
र्भु -
=
इसके अलावा 'क् ट् त् न् म्' आदि इन पाँच वर्णों में अपवादस्वरूप हलन्त चिह्न लगाने का विधान उपरोक्त चिह्न से कुछ भिन्न है, जो निम्नवत् है
म्
2
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
SHRUTSAGAR
आ इ ई
π17
বে
軍
अवग्रह चिह्न लेखन प्रक्रिया
इस लिपि में अवग्रह के लिए ( 2 ) चिह्न प्रयुक्त हुआ है। यथा
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानम् =१ or &"zTzzz"58
मात्रा लेखन प्रक्रिया
इस लिपि में मात्रा लेखन हेतु विशेषतः निम्नोक्त चिह्नों का प्रयोग हुआ है
अनुश्वार | विसर्ग
क का कि की कु
சூ
赤
र्किं
க கா க
उ
क
我 ऋ ए ऐ ओ औ
चणा च 0 00 0 IF T
इनमें से 'आ, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अनुस्वार तथा विसर्ग' की मात्राएँ वर्ण के आगे या पीछे समानान्तर लगाई जाती हैं । अर्थात् उपरोक्त मात्राओ में रो कोई भी मात्रा उस वर्ण के ऊपर या नीचे नहीं लगती है। जबकि ह्रस्व 'इ' की मात्रा नागरी लिपि में प्रयुक्त दीर्घ 'ई' की मात्रा की तरह लगती है तथा दीर्घ 'ई'
की मात्रा नागरी लिपि में प्रयुक्त 'रेफ चिह्न' की तरह लगती है। तथा 'रेफ चिह्न' उस वर्ण के आगे (दायीं ओर) नीचे से ऊपर की ओर लगता है। यथा
ग्र
重 कृ के के को कौ कं कः
(
கூ கூ கூ கூ கூ கூ க கறிககை ள்கள் கள க க
.G
www.kobatirth.org
ऊ
रेफसूचक विश्न
इस लिपि में रेफ के लिए (1) चिह्न प्रयुक्त हुआ है। यथा
श्र
46
1 왜
श्री
र्कु
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
可
UDUO G
来
ह
JULY 2014
c) 8 9
ज
笨
For Private and Personal Use Only
0
Я
he
*
स
ঙ ु ஓ ஹ ஹ
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रुतसागर
下
綠
F
is
कस कि
कौ के कः
(0
கூ கூ கூ
க க ச ககை கை கொ ககூ. க.
ख धा श्रि
बी
बु सू मृ
खै खो सौ सं खः
வ
வா வி வீ வா வவை அவை வடிவ வாவ வ
गि गी
गु गू
गृ
गे गो गौ गं गः
மா நி த ம தல து ஆர்ம தை மொ மா ம். ம.
प धे
घो घौ घं
यें
3132333
च
9.1
ट्र
தூ
ज
as
झ
Fe
मा
கு
2
ta
115,
4 चि श्री
घा धि घी श्रु धू घृ
ஜாஜி
झा
ப வா யி ஷி n வ வவை வைபா வா வ
द ङा 佞 ङी
डो
हौ
चा चि ची
त्रु
उ थी। श থ
আ
43
47
ग्रंथ लिपि की बारहखडी
कु
as
شرو
झि झी
45
Mix
10
لك
जु
हू
NG
ञ
www.kobatirth.org
छू
te
لكي
जू
Jiv
لكي
hin
ढ
कॄ
नू चू 귤
लू
لكم
牙
गृ गे
इ
के
खे
N
te
ज्
शु
থते গী হধ থক 25020 2200 20 থ ০ থঃ
20
உன்
जा जि जी
जे जै जो
Ais
बल
this
ने ! ने
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
to
जुलाई २०१४
है 2:
चो चौ चं चः
For Private and Personal Use Only
"ltr
ha
देड
字
1 জ% রাখ? অ ঃ
ने छै छो
न्द्री
भूक % % z 2 21
झु
झू
श् झे झै झो जौ अं झः
माझी) Fed Fed Fy| FyoFc mFenfen Fert feo Fe:
त्रि
ञ श्रृ
श्रो चौ ञं
தி தீ தணூ குதா ஞ னு.ரூ.
21.
-
जौ जं
2:
51.
ङः
12.
F
जः
मः
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
JULY - 2014
பட
பாடடை பட
|o or o| 8 os os on yoo to Por
22
2 2 23 24 2லயை என் |
3 204 205 2 ராம் 02
ण |
णा | णि
୬୪
ணா ணி
ணீ
ண ண
ண ண கண கண கண ண ண.
த தா தி தீ த தத தத தை தொ தா
!
या
--
-----
யி யீ யய யயயா யாயாய
.
உஉ உஉஉ உஉஉ உ உ உஉ
யாயி யீய
ய யயா யாயாய:
| ந ந நி நீ ந ந ந ந ந ந ந ந ந ந
For Private and Personal Use Only
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org/
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
49
जुलाई - २०१४
|
17
|
t
|
|
4:
விஉ உஉ வடிவவடிவா உவ.
சி. | P
வ வா வி st) வா வா வா
வா
T | R | 4 | 7 | 1 | 1 |
|
| +
1
-
வவா வி வீ ஸா ஸா ஸாவரவாவா வாஸ். ஸ:
லுஹஹி ஹீ ஹவஜவாஹ வாஹ:
*
222
222 -2ஜா 27 2.2.
ய யா யி யீ ய யா யூ யூயே ய யா யா ய ய:
--
--------
-
UP ரீக ரகளையை எUT U U
@ @ Do as @ @ @am »@ + @f mr @ / m;
வி வவவ வவவ வொ வாவ வ:
UT UU பரி ரீ ரு பான் பர பருபாலா பொா
UT- UT | UUR
For Private and Personal Use Only
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
SHRUTSAGAR
4
쇠
வ
षी
श्रृ पे पै
67 চ$ $ $ | 697 69 66 67 ত$ $ $ 7 ঃ
सि सी सु सू सृ
ச ஸ வர
४ त्र
क्ष
घा
ह हा
त्र
सा
சூ
F
ज्ञ ज्ञा
A
器
द्व
षि
रह
n
हि ही
वक्
NE
A
發
छ
छ १ व हे
য| যস যা? যD যেড় থক আ আথে mombUেDH যেগ য য
क्षा क्षि क्षी क्षु क्षू कॄ
क्षो
क्षौ
க்ஷ க்ஷி க்ஷி க்ஷலக்ஷக்ஷ க்ஷக்க்ஷக்ஷ க்ஷடக்ஷக்ஷ, க்ஷ
त्रि
त्री
ནཱ། རཱ ། སྡ
அ அ அ தீ க அக காகுசக்குந் தூககு
ज्ञी
जु
झै जो जौ
भ শ
سی
शु
भु
त्य
م
न्द
bark
द्ध
!!
www.kobatirth.org
नू
A
ग्रंथ लिपी में संयुक्ताक्षर लेखन अभ्यास
ग
Heart
50
fj
स
फ
ટ્
***
स से नै सो
வலுஸை
ܠ
활
து
प
अ
8
क्षे
ज्व
ومیه
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
G
For Private and Personal Use Only
षो
त्रु त्रे त्र त्रो श्री श्रं त्रः
འི་ཚ་ན་
ஸவொ ட் ஸ் ஸ
है हो हो | हं हः
3
H
षी
UO
ov
सौ
JULY 2014
य
4.
छ जन
फु
24.
A
"म
A
अ
21:
जः
क्ष
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रुतसागर
तीर्थंकर
अरिहन्त
सिद्ध
| आचार्य
ब्राह्मी
सुन्दरी
कनिष्क
मुग्ध
चर्चा
अर्चना
| प्रार्थना
अर्जुन
लज्जा
निरञ्जन
ईश्वर
खङ्ग
वित्त
भक्त
ग्रंथ
पद्म
श्लोक
ज्वलन्त
f wo foro
To মেf
শরী
சூஉாயூ
ஜாங
লটবधु
Ho
ধ
ग्रंथ लिपि में संयुक्ताक्षरयुक्त शब्द लेखन अभ्यास
अा
கூஉநா
1 [T] [49] 13.17
ras
@2/27
1000 upto
ল
লা
H
15
www.kobatirth.org
2
Gous
บริ
n to
भूक
51
भविष्य
क्षत्रप
उज्ज्वल
ज्वलन्त
चिक्कण
क्लेश
वक्तृत्वम्
स्ववनम्
शक्ति:
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सल्लकी
| गुञ्जारव
रूपम्
रुष्ट
वञ्चना
उत्थान
शुद्धिः
! द्वयम्
जुलाई २०१४
দধ याउँछु
ী:
पाण्डुलिपि 2115 का
For Private and Personal Use Only
থথা
குட 22. ू क
n vo
உ
हस्तप्रतभु फु
பனி
ববশ
rom zi8 10248
roat
-
الله
117
உதயாந்
রীঃ
अफ
क्रय
छु पर
विक्रय
भी कुछ
चञ्चलाली এ1পথबहुत मझ
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
SHRUTSAGAR
प्रतिध्वनि
धीरेन्द्र
दर्शन
ल
स्मृति
nodtod
की कैवल्यम् ०६ ज्ञानविन्दुक विद्यालय श्रीक्षा न
मम्मटाचार्य 88774
अर्चट
24
कुशाद
पुदीও
आहलाद
| पश्चिम
सरस्वती
पङ्कज
क्वचित
शान्ति
तथ्य
खान
वह्नि
25
forg
उत्कृष्ट
प्रशिष्य
नृपेन्द्र
व्याख्या
শযবলষ
ঙ্ক
கூவிகு
for की
தய
15
ফী
OJAR
की
2
ছাত
www.kobatirth.org
গT
52
बुद्धि
विद्वान
आज्ञा
पन्या
प्रन
पत्रा
कन्नौज
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पूज्य
पुण्यम्
JULY 2014
झुण्ड
उत्तर
2 फुल
मार्ग
कृत शु
अर्धम
Fwl छ
वञ्चना
வங்நா
द्वन्द्वम्
শछ
यज्ञः
ஐரும் লাঃ
विष्णुः
कल्याणम् Q & to mm
अञ्जनश्लाका | Gd
कार्यालय
For Private and Personal Use Only
sper
விலுாரு
Buा मा
ฟ
पल्लव
காஜாலய பழங் बल्लभेन्द्र बनकर
บ
துஜா
21 goi
N
21 85 1T
#522
2
লইা 210 छ
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रुतसागर
?
२
2
३
53
अथ लिपि के अंकों का विकासक्रम
ங
.
www.kobatirth.org
B
५
ரு
5
{$
A
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
८
அ
जुलाई २०१४
१
க
ग्रंथ लिपि में नमस्कार महामंत्र लेखन अभ्यास
ணமிரை கரிஸுதாண.
ணவா ஸியாண. ணவர சய யரியான ணவொ உஉவஜ் ாயானை ணஜொக@ான்வது வார -ணெ
ஸைா 2! ணாஸா ஸஒ ாவ பூணாஸாணா 8. @ாண. உ ஸவை 221 2220 ஹவஐ Joy @o
itless Hester su
◄
7.
ய
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
54
JULY-2014
SHRUTSAGAR ग्रंथ-लिपिवद्ध एक शिलालेख
Dhave phraigrai
प्राचीन भारतीय श्रुतपरंपरा को जीवित रखने में इस लिपि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। दक्षिण भारत के अनेकों राजवंशों का इतिहास ग्रंथ-लिपिवद्ध पुरालेखों के आधार पर ही रचा गया है। आज इस लिपि का पठन-पाठन पूर्णतः लुप्त हो चुका है। और इस लिपि के जानने वाले भी गिने-चुने ही रह गये हैं। जबकि इस लिपि में संरक्षित प्राचीन साहित्य हमें प्रचुर मात्रा में प्राप्त हो रहा है। विदित हो कि इस लिपि का चलन तो विशेषकर दक्षिण भारत में रहा लेकिन इसमें निवद्ध साहित्य हिंदुस्तान के समस्त भण्डारों में मिल जाता
है। आज हिंदुस्तान का शायद ही कोई ऐसा ग्रंथागार होगा जिसमें ग्रंथ-लिपिवद्ध साहित्य रांगृहीत न हो। इससे पता चल जाता है कि यह लिपि अपने समय में कितनी अधिक प्रचलिज और प्रामाणिक रही होगी।
यद्यपि राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन-नई दिल्ली द्वारा भारत के विविध शिक्षाकेन्द्रों में समय-समय पर आयोजित होनेवाली 'पाण्डुलिपि एवं पुरालिपि अध्ययन कार्यशालाओं' के माध्यम से इस लिपि को जीवित रखने के प्रयास किये जा रहे हैं, जो सराहनीय हैं। लेकिन इस क्षेत्र में यदि और भी शिक्षण संस्थाएँ एवं समाजसेवी विद्वान् आगे आये तो भारतीय श्रुतपरंपरा को सदियों तक जीवित रखनेवाली इस पुरातन धरोहर को लुप्त होने से बचाया जा सकता है।
अस्तु हमने यहाँ ग्रंथ लिपि का किंचित् परिचय प्रस्तुत् करने का प्रयास किया है। आशा है विद्वान् गवेषक इस प्राचीन भारतीय धरोहर को युग-युगान्तरों तक जीवित रखते हुए आगे आनेवाली पीढियों तक सुरक्षित पहुँचाने का प्रयास करेंगे। धन्यवाद!!
For Private and Personal Use Only
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रुतसागर
www.kobatirth.org
55
-
संदर्भ ग्रन्थ
१. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, संपा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा
२. अशोक कालीन धार्मिक अभिलेख, संपा. - गौरीशंकर हीराचंद ओझा एवं
श्यामसुन्दरदास
एम.पी.त्यागी एवं
३. प्राचीन भारतीय लिपिशास्त्र एवं मुद्राशास्त्र, लेखक आर. के. रस्तौगी
१५.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४. अशोक अने एना अभिलेख, लेखक - गंगाशंकर शास्त्री
भरतराम भानुसुखराम महेता
५. अशोकना शिलालेखो, लेखक ६. भारतीय पुरालिपि विद्या, लेखक
दिनेशचंद्र सरक र
19.
लिपि विकास, लेखक राममूर्ति मेहरोत्रा एम. ए. ८. भारतीय पुरालिपि विद्या, लेखक - दिनेशचंद्र सरकार ९. ब्राह्मी लिपि का उद्भव और विकास, संपा. डॉ. ठाकुरप्रसाद वर्मा १०. अशोक की धर्मलिपियाँ (भाग - १) - काशी नागरीप्रचारिणी सभा
१५. अशोकना शिलालेखो ऊपर दृष्टिपात, लेखक श्री विजयेन्द्रसूरि
जुलाई २०१४
१२. भारतीय पुरालिपि शास्त्र, लेखक - जार्ज व्यूलर
१३. वातायन (भारतीय लिपिशास्त्र एवं इतिहास के कुछ नवीन संदर्भ), लेखक - डॉ. विन्ध्येश्वरी प्रसाद मिश्र 'विनय'
१४. संस्कृत पाण्डुलिपिओ अने रागीक्षित पाठसंपादन - विज्ञान प्रो. वसंतकुमार एम. भट्ट, नियामक भाषा साहित्य भवन, गुजरात विश्वविध्यालय, अहमदाबाद प्राचीन भारतीय लिपि एवं अभिलेख, लेखक - डॉ. गोपाल यादव ब्राह्मी सिक्के कैसे पढें, लेखक - श्री प्रदीप दत्तुजी वनकर
१६.
१७. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, लेखक- भुनिश्री पुण्यविजयजी म.सा. १८. ग्रंथलिपि वर्णनाला - डॉ. एस. जगन्नाथजी, अड्डीयर पुस्तकालय, मैसूर
For Private and Personal Use Only
१९. पाण्डुलिपि विज्ञान, लेखक - डॉ. सत्येन्द्रजी, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी जयपुर से प्रकाशित
२०. शारदा मंजूषा, संपा. डॉ. अनिर्वाण दास, वाराणसी से प्रकाशित
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सम्राट् संप्रति संग्रहालयना प्रतिमा लेखो
संकलन - हिरेन के. दोशी आजे आपणी पासे परंपरा अने श्रमण संस्कृतिनो क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नथी, इतिहासना अप्रकाशित केटलाय तत्त्वो ग्रंथ भंडारो, ताम्रपत्रों, शिलालेखो, अने प्रतिमालेखोमां धरबायेला छे. प्रतिलेखन पुष्पिकाओ, ताम्रपत्रो, शिलालेखो, अने प्रतिमालेखो आवी केटलीय ऐतिहासिक सामग्रीओथी ऐतिहासिक तत्त्वनुं अनुसंधान करी शकाय छे. आवी ऐतिहासिक साधन सामगीओमां प्रतिमालेखो अग्रता क्रमे छे,
प्रतिमा लेखोमा सामान्यथी बे प्रकार मळे छे. १ पाषा प्रतिमा लेखो २ धातु प्रतिमा लेखो, धातु प्रतिमानी अपेक्षाए पाषाण प्रतिमामां लेखो बहु ओछा प्राप्त थाय छे. प्रतिमा लेखोमां श्रमण परंपरा अने तत्कालीन श्राद्ध परंपरा अखंड रूपे प्राप्त थाय छे.
श्रमण परंपराना इतिहासमां खूटती कडीओन अनुसंधान करवामां प्रतिमा लेखो बहु महत्वनो भाग भजवे छे. पूज्यपाद् गुरुदेव श्रीगद् आचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज प्रभु शारानना आवा ऐतिहासिक मूल्योनी काळजी अने जतन माटे रातत उद्यमशील अने कांईक करी छूटवानी भावना धरावी, प्रभु शासननी शान अने गरिमाने हृष्ट पुष्ट करता रहे छे. पूज्य गुरुमहाराजना अथाग प्रयत्नथी निर्मित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर अने सम्राट संप्रति संग्रहालयमा आवी केटलीय ऐतिहासिक सामग्रीओ संकलित, संग्रहीत अने सुरक्षित छ. संग्रहालयगां रहेला धातु अने पाषाण प्रतिमाना लेखो अहीं प्रस्तुत छे. आ लेखोने उतारी आपवानुं पुण्यकार्य परम पूज्य शासनसम्राटश्री नेमिसूरिजी म.सा.ना समुदायना आचार्य भगवंत श्रीसोमचंद्रसूरीश्वरजी महाराज साहेब अने एमना शिष्य परिवारे करी आप्पुं छे. संग्रहालयमा जे क्रमांके धातु-प्रतिमाओ नोधायेल छे. ते क्रमानुसार ज प्रतिमाना लेखो प्रकाशित करीए छीए.
१. विभागीय नं. ११६, सिद्धचक्रजी, एकलतीर्थी
।। संवत् १९०७ना माघ सुकल ३ वार सोमे श्रीश्रीमालज्ञाति लघुशाखायां सा. करमचंद ततपुत्र सा. मोतीभाई स्वश्रेयोर्थ श्रीसीधचक्र कारापितं प्रे.(प्र.) श्री तपागछे श्री सौभाग्यवीलेजीः ।।
For Private and Personal Use Only
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
श्रुतसागर
२. विभागीय नं. १४१, चंद्रप्रभस्वामी भगवान, पंचतीर्थी
संवत् १५२९ वर्षे ज्येष्ठ शुक्ल ५ तिथौ श्रीश्रीमालज्ञातीय
भार्या उ पुत्र खेताकेन... श्रेयसे श्रीचंद्रप्रभबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीनागेंद्रगच्छे श्रीकमलचंद्रसूरिणांपट्टे श्रीहेमरत्न सूरिभिः...
३. विभागीय नं. १६२, आदिनाथ भगवान, एकलतीर्थो
संवत् १४१८ फाल्गुन शु. १३ सोमे श्रीकाष्ठासंघे श्री विमलसेनहेवाः ।। लंगकंप्रकान्तवेसा सीलण भार्या मेहपो पुत्र संवना तद्भार्या मूल्हा तयो पुत्र होले भार्या नतो तयोः पुत्र आनंदः । आत्मकर्मक्षयनिमित्ते प्रतिष्ठापिता । ।
57
सं. १४
श्री पार्श्वनाथबिंबं कारितं ||
७. विभागीय नं. १६६, जिनप्रतिमा, एकलतीर्थी
श्रीश्रीमालज्ञाति.
श्रे
सूरिभिः ।।
ज्ञातीय आंचलिक
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४. विभागीय नं. १६३, सुविधिनाथ भगवान, पंचतीर्थी
संवत् १६६७ वर्षे वैशाख वदि २ गुरौ पूज्यश्रीअंचलगच्छं श्रीधर्ममूर्तिसूरिस्वराणां आचार्य श्रीकल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन सूरतिवास्तव्य सा. तेजपालसुत सा. राजपालेन सुविधिनाथः ।।
५. विभागीय नं. १६४, शांतिनाथ भगवान, एकलतीर्थी
सं. १४४१ वर्षे फागुण शुद्धि १० सोमे प्राग्वाट व्य. कडूआ भार्या सावल पुत्र....... नाकेन पित्रोः श्रेयसे श्रीशांतिनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीरत्नप्रभसूरीणामुपदेशेन || शुभं ||
६. विभागीय नं. १३७, पार्श्वनाथ भगवान, एकलतीर्थी
जुलाई २०१४
For Private and Personal Use Only
·
निज ....... श्रेयोर्थ
८. विभागीय नं. १६७, शांतिनाथ भगवान, एकलतीर्थी
सं. १४५७ वर्षे वदि ९ ऊपकेश ज्ञा. श्रे सीधर भा. पाल्हणदे पु.
.? श्री शांतिबिं. उपकेशगच्छे श्रीसिद्धाचार्यसंताने प्रति श्रीकक्क
. का रेत प्र. श्रीबलभद्रसूरिभिः
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
सा. = साह, शाह
व्यवहारी
श्रेष्ठी
व्य. =
श्रे.
www.kobatirth.org
SHRUTSAGAR
58
९. विभागीय नं. १६९, पार्श्वनाथ भगवान, पंचतीर्थी
सं. १३५४ वर्षे मा..... श्रेयसे श्री श्री ५ श्रीबिंवं कारितं प्रति. तपागछे श्रीश्रीश्रीश्री रत्नशेखरसूरिसरैः । । श्रीलक्ष्मी (सागर) सुरिभिः ।। १०. विभागीय नं. १७५, जिनप्रतिमा, एकलतीर्थी
सं. १६२२ पोष वदि १ भदाकेन ||
=
पु.
पुत्र
प्रति, = प्रतिष्टित
संकेतसूचि
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्र. = प्रतिष्ठितं
ज्ञा. - ज्ञातीय
भार्या
भा. =
बिं. = बिंब
सं. = संवत
JULY 2014
* धर्मप्राप्ति माटेनी योग्यताने जाणवा माटे...
* जीवनमां धर्म अने धर्ममां जीवन उतारवा माटे...
* जीवनने अशांति, असमाधि, अने अंतरायधी उगरवा माटे...
* जीवनने सद्वांचन, समता, अने सौम्यता प्रगटाववा माटे...
प्रकाशित थई रह्युं छे, श्री प्रियदर्शननी मीठी कलमे लखायेलुं पुस्तक... जीवन धर्म
For Private and Personal Use Only
लेखक :- पू. आचार्य विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी म. सा. प्रकाशक : श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उपा. श्रीसमयसुंदरगणिकृता यतिअंतिमआराधना
सा. जिनरत्नाश्रीजी प्रस्तुत संपादनमा उपा. श्रीसमयसुंदरजी कृत 'यतिअंतिमआराधना' प्रस्तुत छे. तेनुं बीजुं नाम साधुआराधना छे. मरणसमय पहेलां साधुभगवंतोए आत्मशुद्धि माटे केवा प्रकारनी आराधना करची जोइए तेनुं वर्णन आ शास्त्रमा छे. तेनी भाषा राजस्थानी छे. आ लघुकृतिनी रचना राजस्थानना रिणि गाममां थइ छ. बीकानेर प्रांतना सरदारशहर पारो राजगढ़ स्टेशनथी ४१ माइल दूर रिणिगाम छे.
ते रिणी तारागर नामे प्रसिद्ध छे. गाममा शिखरबद्ध देरासर छे. मूळनायक श्रीशीतलनाथजी १००० वर्ष प्राचीन छे. प्रतिमा पर सं. ११५८ नो लेख छे. ६० वर्ष पहेला अहीं जैनोना चार धर हतां, देरासरनो वहीवाट यति श्री पनालालजी संभाळता हता. उपा. श्रीसमयसुंदरजीए अहीं चोमासुं कर्यु छ तेथी पूर्वे अहीं घणां घर हशे तेवू अनुमन थइ शके.
उप. श्री रामयसुंदरजी से विदग्ध विद्वान हता. तेमणे अनेक शास्त्रोनी रचना करी छे. तेमनो परिचय अने तेमनी रचनाओ विषे महो. विनयसागरजी म.नो लेख वांचवा भलागण छे.
आ लेखमां गनी रचनाओमां 'यतिअंतिमआराधना नुं नाम नथी तेथी आ कृति अप्रगट छे एम् कही शकाय. महो. समयसुंदरजीन! गीतो माटे राजरथानमां उक्ति प्रचलित हती
'राणा कुंभारा भीतडा और समयसुंदररा गीतडा'
महाराणा कुंभाराए राजस्थानने गोगलोना आक्रमणथी बचाववा किल्लाओ बनाव्या हता, तेनी भीतो अभेद्य हती, अने एथी ज आ उक्ति आखा राजस्थानमा प्रचलित हती. तेनी जेम ज महो. समयसुंदरजीना गीतो पण घेर-घेर गवातां.
प्रस्तुत कृतिमा उपा. श्रीसमयसुंदरजीए साधुभगवंतने अंतिमसमये करवानी आराधनानुं वर्णन कार्यु छे. साधुजीवनमां वडीदीक्षा अने पदवी जेटलां महत्त्वना छे तेटली ज महत्वनी अंतिम आराधना छे.
भगवाननी प्रतिष्ठा माटे श्रेष्ठ मुहूर्त जोवाय छे. वड़ीदीक्षा पदवी माटे श्रेष्ठ मुहूर्त जोवामां आवे छे तेम अंतिम आराधना माटे पण श्रेष्ठ मुहूर्त पसंद करवामां आवे छे. प्रतिष्ठा, वडीदीक्षा अने पदवी श्रेष्ठ गुरुनी निश्रामां करवामां आवे छे तेम
For Private and Personal Use Only
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
SHRUTSAGAR
www.kobatirth.org
JULY 2014
अंतिम आराधना माटे श्रेष्ठ गुरुनी निश्रा अपेक्षित छे. उपा. श्रीसमयसुंदरजीए आ यात उपर भार मूक्यो छे.
साधुओनी अंतिम आराधनाना छ प्रकार कह्यां छे. एटले के भरण पूर्वे समाधि इच्छता साधुए छ काम अवश्य करवानां छे. उत्तराध्ययनसूत्रमां कह्युं छे सोहि उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठइ |
—
60
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जे शुद्ध छे ते ज धर्मनो अधिकारी छे. अंतिम समये समाधि ते ज राखी शके जेनो आत्मा शुद्ध होय छे. आत्मशुद्धिना छ पगथियां छे. तेने ज अंतिम आराधना कहे छे. अंतिम आराधनाथी आत्मा शुद्ध थाय छे. आत्मशुद्धिशी समाधि मळे छे. ते छ अधिकार आ प्रमाणे छे
-
१) सम्यकत्वनी शुद्धि.
२) अढार पापस्थानकनो त्याग.
३) चोराशीलाख जीवयोनिनी क्षमापना .
४) संयमनी विराधनानुं मिच्छामि दुक्कडं. ५) दुष्कृतनी गर्हा.
६) सुकृतनी अनुमोदना .
अंतिम आराधनाने स्वीकार करवानो विधि आ प्रमाणे बताव्यो छे. सारा मुहूर्तमां भोजन करी लीधा पछी शरीरने पवित्र करं. एटले शरीरथी बाधाओ टाळी देवी. चतुर्विध संघने बोलाववो. सामे भगवाननी प्रतिमा स्थापवी.
इरियावहियं करवी चैत्यवंदन करतुं मुहपत्तिनुं पडिलेहण करवुं, वे यांदणा आपवा अने गुरुने आराधना सूत्र संभळाववानी विनंति करवी त्यारपछी गुरु छ अधिकारने विस्तारथी स्भळावे.
१) सम्यकत्वनी शुद्धि: सम्यक्त्व मोक्षसाधनानो पायो छे. सद्गतिनुं कारण छे. एथी सर्वप्रथम तेनी शुद्धि करवामां आवे छे. अरिहंत मारा देव छे. सुसाधु मारा गुरु छे. भगवाने कहेलुं तत्त्व ज सत्य छे. आ वातने याद करी सम्यक्त्वनी शुद्धि करवी.
२) अढार पापस्थानकनो त्याग : अढार पापस्थानकनुं विस्तारथी वर्णन करीने, विशेषरूपे तेनो ज्याग करवाथी प्रेरणा गुरु करे छे.
For Private and Personal Use Only
३) चोराशीलाख जीवयोनिनी क्षमापना : त्रीजा अधिकारमां चोराशीलाख जीवयोनिना भेद अने तेनी १० प्रकारे थयेली विराधनानुं मिथ्यादुष्कृत गुरु करावे छे. १० प्रकारनी विराधना इरियावहियं सूत्रमां दर्शावी छे.
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
61
जुलाई - २०१४ ४) संयमनी विराधनानु मिच्छामि दुक्कडं : आ अधिकारमा पांच महाव्रत अने छट्ठां रात्रिभोजनविरमणव्रतनी विराधनानं विस्तारथी वर्णन छे.
५) दुष्कृतनी गर्दा : पांचमां अधिकारमा भिक्षाना ४२ दोष, पांच आहारना दोष, साध्वाचारना अतिचार, पंचाचारनी विराधना, १० प्रकारना यतिधर्मनी विराधना, धरणसित्तरी अने करणसित्तरीनी विराधना वगेरे दुष्कृत्योनी गर्दा करावे छे.
६) सुकृतनी अनुमोदना : जीवनमां करेलां सुकृत याद करावे छे. पांच महाव्रतोनो रवीकार कर्चा, अष्टप्रवचनमाता- पालन कर्यु, अ गमशास्त्रोनो अभ्यास कों-कराग्यो, शास्त्र लख्यां, शुद्ध कर्या, बीजाने वांचवा प्रत आपी, अरिहंतनी, साधुनी, ग्लाननी, तपस्वीनी, गुरुनी, वाचनाचार्यनी वैयावञ्च करी, योग वहन कर्या, तीर्थयात्राओ करी, अनेक प्रकारनां तप कर्या, कारस्सग्ग कर्या, भावना भावी, नवकार गण्या, चरणसित्तरी अने करणसित्तरी सारी रीते पाळी, आ बधा सुकृतोनी अनुमोदना शुरु करावे. ते पछी विशेष रूपे पच्चवरखाण. आपे. अभिग्रह आपे, चार शरणनो स्वीकार करावे. आ रीते अंतिम समयनी आराधना गुरु संभळावे छे.
कृतिनो रचनासंवत वि. सं. १६६८५ छे. आ कृतिनी एकमात्र प्रत प्राप्त थइ छे. ते कया भंडारनी छ, तनी खबर नथी. प्रतनी लंबाइ २२.५ से.मी. अने पहोळाइ १२ से.मी. दरेक पत्र पर १४ पंक्ति छे. अने दरेक पंक्तिमा ३९ अक्षर छे. तेनो लेखनसगय संवत् १८५९ पोष वद-३ सोमवार छे.
आ प्रत पं. दुलीचंदे विक्रमपुरमां लखी छे. प्रत घणे भागे शुद्ध छे. तेनी पहेली प्रतिलिपि अगृतभाई पटेले करी छे. प्रतनी भाषा जून राजस्थानी छे. मोटे भागे समजी शकाय तेची छे. अशुद्ध पाठने संपादन समये सुधारी लेवामां आव्यां छे. अस्पष्ट पाठनी सामे(?) चिन दर्शाव्यु छे. अधूरा पाठने पूरा करी पादटीपमा दर्शाव्या छे. एकंदरे आ कृति अंतिम आराधनामां खूब सहायक बने तेवी छे.
सामवार छ.
यतिअंतिमआराधना
स्वस्तिकल्याणकर्तारं नत्वा श्रीशीतलं जिनम। अहमाराधनां वधि यति(ती)नामात्मशुद्धये ।।
तत्रास्यां यत्याराधनायां षडधिकारा ज्ञेयाः। तथाहि - (१) पूर्वं सम्यक्त्वशुद्धिः (२) ततोऽष्टादशपापस्थानकपरिहारः (३) ततः चतुरशीतिलक्षजीवयोनिक्षामणम् (४) संयमविराधनाया दुष्कृतदानं (५) ततो दुष्कृतगर्हा (६) ततः सुकृतानुमोदना ।
For Private and Personal Use Only
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
JULY - 2014 तत्रादौ आराधनाविधिः प्रोच्यते-तथाहि शुगसौग्यवारे शुभवेलायां भोजनानन्तरं देहं शुचिं कृत्वा सर्वसङ्घमाकार्य अग्रस्थापितश्रीवीतरागप्रतिम या अग्रे सम्मुखीभूय ईर्यापथिकी प्रतिक्रम्य चैत्यवन्दनां कृत्वा मुखवस्त्रिका प्रतिलेख्य वन्दनकद्वयं दत्त्वा आराधनाकृद् भणति ‘भगवन्! आराधनासूत्र सुणावौ। गुरूर्भणति - विधिपूर्वक सांभलौ। तथाहि
अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिणपन्नत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहियं ||१||
देव तौ श्रीवीतरागदेव अढारै दूषणें करी रहित, देवतां कोडि तिणे महित, चौतीस अतिसय विराजमान, पैंतीस वाणीगुणकरी सौभित, आठ महाप्रातिहार्य तिणे करी युक्त, अनन्तगुणनिधान, सर्व देवमांहे प्रधान, देवाधिदेव ते माहरे देव एहवो सरदहज्यौ (१) गुक्त तो सुसाधु जे पंचमहाव्रतरा धरणहार, बयालीस आहार दूषणना टालनहार, छजीवनिकायना पीडाहर, अढारै सहस्र शीलांगरथना धारक, संसारसमुद्रतारक, पांचे सुमिते सुमिता, त्रिहुं गुप्ते गुप्ता, ज्ञानदर्शनचरित्रकरि मोक्षमार्गसाधक, वीतरा देवनी आज्ञारा आराधिक, क्रियाकलापसावधान, सदा धर्मध्यानकुक्षीसंबल, चरित्रपात्र, निर्मलगात्र एहवा साधु भगवंत माहरे गुरु एहवो सरदहिज्यौ (२) धर्म तो श्रीकेवलीभगवंतनो भाख्यो आज्ञारूप, दयामयी, दुर्गति पडतां प्राणीयांने धारे, जे करै ते संसार समुद्रने तरै एहवो टोतरागदेवनो धर्म ते माहरे धर्म (३) इतनें सुध समकित तुमनें उचरायो ।1911
हिवै अढारै पापरथानक कहै छै ते सांभलीने सरदहिज्योआसवकसायबंधणकलहाभक्खाणपरपरीवाओ। अरइरइपेसुन्नं मायामोसं च मिच्छत्तं ||१|| पांचे आश्रव वारंवार सेव्या हुवै।
तिहां पहिलो आश्रय प्राणातिपात कीधो हुवै। ते किम? पृथवी' अपर तेउ' वाउ वनस्पति' बेंद्री तेंद्री' चौरेंद्री' पचेंद्री ए नवविधि जीव अभिहया वत्तिया इत्यादि दशप्रकारे करी इणभ परभ3 जाणतां अजाणतां मनवचनकायायै करी दुहव्या हुवै (दुहाव्या हुवे) दुहवतां अनुमोद्या हुवै ते अरिहंतनी साखि सिद्धनी साखि' देवनी साखिं' आत्मनि साखि गुरुनी साखि मिच्छामि दुक्कडं ।।१।।
बीजौ आश्रव मृषावाद बोल्यौ हुदै । ते किम? हासें करी, क्रोधे करी, माने करी, मायाए करी, लोभे करी बोल्यौ हुवै । वलै कन्यालीक' गवालीको भौमालीक थापणमोसो कीधो हुवै। कुडी साख दीधी हुवै। इणभव परभव जाणतां अजाणतां ते मिच्छामि दुक्कडं ।।२।।
For Private and Personal Use Only
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
63
जुलाई - २०१४ तीजो आश्र. अदत्तादान लागो हुवै। ते किम? पारकी वस्तु चौरी हुवै चौरावी हुबै चौरतों अणुगोदी हुदै । इणभव परभव जाणता अजाणतां ते मिच्छामि दुक्कडं ।।३॥
चौथो आश्रव मैथुन रोव्यो हुवै। ते किम? देवसंबंधी, मनुष्यसंबंधी, तिर्यंचसंबंधी रोव्यौ हुदै । आपणी पारकी स्त्री. आपणो पारको पुरुष तेहनी कायाने विषै लोलुपता कीधी हुवे। इणभव परभव जाणतां अजाणता ते मिच्छामे दुक्कडं ।।४।।
पांचमो आश्रय परिग्रह राख्यो हुवै। ते किम? ते कहै छै-चवदै उपगरण। कहया छै तेहथी अधिका राख्या हुवै अथवा पाछले भव अथवा गृहस्थावास वसतां धन्य-धान्य-क्षेत्र-वास्तु-रूप्य-सुवर्ण-कूप्य-द्विपद-चतुःपदादिक नवविध परिग्रह अपरमित राख्या हुवै ते ऊपर घणी मूर्छा कीधी। इणभव परभव जाणतां अजाणतां मिच्छामि दुक्कडं ।।५।। वली क्रोध' मान' गाया' लोभ घणा कीधा हुवै।
चली राग धणौ कीधौ हुवै ते राग त्रिहुं भेदें। ते किम? स्त्रीने पुरष उपर राग, पुरषने स्त्री उपर राग. पुरषने पुरष ऊपर राग. (स्त्रीने स्त्री उपर राग.) ते कागराग कुटुंब परेवार ऊपर राग ते सनेहराग आपणे मति ऊपर कदाग्रह ते दृष्टिराग 1|१०||
इम द्वेषना पिण त्रिण भेद ||११|| वले लोकासु वेढवाड कीधा हुयै ।।१२।। वले लोकांने कूडा कलंक दीधा हुवै ।।१३।। वले छत्ता अछता दूषण प्रकासने पारकी निंदा कीची हुयै ।।१४।।
वली दुःख पामीने आकुलव्याकुलता कर अरइ वेई हुवै अनै सुख पामीने रइ वेई हुवै ।।१५।।
क्ली पैशून्य कीधौ हुवे, राजा हजूर चाडी खाधी हुवै, केहनै दंडाया मुंडाया हुचै ।।१६।।
वली माया राहित मृषावाद बोल्यो हुयै अथवा धापणि मोसो कीधो हुवै 11१७।।
वली महामाई, चामुंडा, चौसठी, नगरकोटी, गौरदेवी प्रमुखः वली यक्ष, गोगा, क्षेत्रपाल, विनायक, पश्चिमाधीश, हरिहर प्रमुख कुदेवने देव मान्या हुवै। वली जोगी, सन्यासी, कडी, कापडी, तापस, दरवेस, शेष मुल्ला, मुंडिया, सोफी, आचारभ्रष्ट पासत्थ ओसन्ना प्रमुख कुगुरु ने गुरुबु माया हुवै । वली मिथ्यात्वी
For Private and Personal Use Only
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
64
JULY - 2014 प्ररूप्यो हिंसारूप अधर्म ते धर्मबुद्ध मान्यौ हुवै १८ एवं अढारै पापस्थान यतीपणमै अथवा ग्रहस्थपणामै सेव्या हुवै ते इणभव परभव जाणतां अजाणतां मिच्छामि दुक्कडं ।।२।।
हिवै चौरासी लाख जीवाजोनि कहै छै। ते खामज्यौ । सात लाख पृथवीकाय तेहना ए भेद-स्फटिक, मणि, रत्न,प्रवालि, हिंगुल, हरिताल, मणिसाल, पारो, सुरमौ, सोनो, रूपौ, तांबो, लोह, कथीर, जसद, सीसो, साते धात, गेरु, खडीवांनी, अरणेटो, पलेवा, अभ्रक, तुरी, वस्त्र रंगणरी माटी, ऊखरखेत्ररी माटी, पाषाण, खर पृथवी प्रमुख भेद । एह पृथवीनो खर प्रमुखनो बावीस हजार वरस उत्कृष्टो आउखो, आंगुलरो असंख्यातमो भाग देहमान, शणिना फूल जे पृथवीना खंडमाहे जे जीव छै ते जीव पारेवा जेहवी जे काया करे तो जंबूद्वीपमाहै समावै नहीं। ते पृथवीकाय रूपैं रसैं गं, फरसें करी सातलाख जोनि जाणवी। ते पृथवीकायना जीवाने जाणतां अजाणतां आरंभादिकै करी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जाता(जाणता अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं ।।१।।
हिवै अप्काय कहै छै। ते अप्कायना अनेक भेद । ते किग? आकासनो पाणी, धरतींनो पाणी, ओस, हिम, करहा. त्रेह, धुंहर, घनोदधि प्रमुख। एह अप्कायनो सात हजार वरसरो उत्कृष्टो आउखो, आंगुलरे असंख्यातमे भाग देहमान। एक पाणीरा बिंदु में असंख्य ता जीव सरसुं जेहवी काया करै तो जंबूद्वीप माहैं भावै नहीं। ते अप्काय जीवनी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जाता(जाणता अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं ।।२।।
हिवै अग्निकायरा भेद कहै छै । अग्नि, अंगारा, मुग्मुर, झाल, भोभर, अंगीठी, कोडु, दीवी, चराक रोहि में अग्नि लगावै चकमक, विजली प्रमुख । एह अग्निकाय चिणोठी जित्नी मांहे असंख्याता जीव ते खस-खस जेवडी काया करै तो जंबूद्वीपमाहे नहीं मावै। इणारी सात लाख योनि, तीन अहोरात्र उत्कृष्ट आउखो। अग्निकाय आरंभादिकै करी विराधना कीधी हुवै इभव परभव जातां ते मिच्छामि दुक्कडं ।।३।।
हिवै वायुकायरा भेद कहै छै । ते कुण कुण? गुंजपात, उद्भ्रामकवात, उत्कालिकावात, मंडलवात, महावात, शुद्धवात, भूतेलियो, वातोलियो, कोरण, वाउलि, धनुवात, तनुवात प्रमुख । वायुकायनो तीन हजार वरसरो उत्कृष्टो आउखो, अंगुल प्रमाण आकास भागवर्तिमांहे असंख्याता जीव ते लीख सरीखी काया करै तो जंबूद्वीपमाहे न मावै। सात लाख जोनि । ते वायुकाय आंरभादिकें करी विराधना
For Private and Personal Use Only
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
65
जुलाई - २०१४ कीधी हुवे इणभव परभव जातां ते मिच्छामि दुक्कडं ||४||
हिवै वनस्पतिकायरा भेद कहै छै। ते वनस्पति विहुं भेद-प्रत्येक अने साधारण । ते प्रत्येकना अनेक भेद ते कुण कुण? आंबा, नींबू, कदंब, असोग, नाग, पुन्नाग, धव, खदिर, वड, पीपल, करीर, बोरटी, खेजडा. फोग, आक, धत्तूरा, केला, खडतृण, हरीवेलि, पान, फूल. वीज, छाल, कमल प्रमुखा। प्रत्येक वनस्पतिरै मूलमाहे असंख्याता जीव ।।१।। कंदमाहे असंख्याता जीव । २|| संधमांहे असंख्याता जीव ।।३।। छालमांहे असंख्याता जीव ।।४।। शाखमांहे असंख्याता जीव ।।५।। पडिशाखामांहे असंख्याता जीव ।।६।। पानमांहे एक जीव ।।७।। फूलमांहे अनेक जीव ।।८।। फलमांई जितरा बीज तितरा जीव ।।९।। सिंघोडा बि जीव । तेह हजार जोजन झाझेरा पद्मद्रहादिकमें कमल छै तेहनो देहमान दस हजार वरसनो उत्कृष्टो आउखो । दश लाख योनि । प्रत्येक वनस्पतिनी अरंभादिकें करी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां(जाणतां अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं ।।५।।
हिवै साधारण वनस्पति अनंतकाय। तेहना अनेक भेद। कंदमूल, अंकुर, किरालय, सेवाल, भूफोड, पांचवरणी फूगण, गाजर, पंचांग, मूला. सूरण, लसण, तेज, आदो, थोहर, कुवारपाठो, गुग्गल, गिलोय, गोथ, लीली, हलदर, रत्तालू. पिंडालू प्रमुखएह वनस्पतिमाहे राइरा अग्रभागमांहे अनंताजीव जघन्य अने उत्कृष्ट पिण अंतर्मुहुनो आउखो, चवदै लाख जीवयोनि । एह साधारण वनस्पतिनी आरंभादिके करी विराधना करी हुदै इणभव परभव जाता(जाणतां अजाणतां) से मिच्छागि दुक्कडं । ६।
हिवै बेइंद्री जीव कहै छ। जेहने रपर्शन अने जीभ ए बे इंद्री ते संख, कवडा, गंडोला, जलोक, अलसीया, लद्द, कृमिया, पुरागाडर, घडेल, तंबोलिया, वाला, काष्टकीट, चंदणग जीवविशेष प्रमुख अनेक भेद। बार जोजन संख प्रमुखरो देहमान, बारै वरस उत्कृष्ट आउखो, दोय लाख योनि । बेइंद्री जीवनी आरंभादिकें करी विराधना कीधी इणभव परभव जाता(जाणतां अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं ।७।।
हिवै तेइंद्री जीव कहै छ। जे जीवनें स्पर्शन, रसन, घ्राण ए तीन इंद्री ते तेंद्री। कुण? कानशिलायो, माकण, जूं, लीख, कीडी, मक्कोडा, उदेही, घीवेल, ईली, चर्मजू, गोंगीडा, जात, गदहीया, चोरकीडा, गोबरता कीडा, धानरा कीडा, कुंथुवा, गोपालिका, चिंचड, ईलका, ममोला, जलौक प्रमुख । तेइंद्रीनो उगणपचास दिनरो उत्कृष्टो आउखो, त्रिण कोस काफानसलाया प्रमुखो देहमान, दोय लाख
For Private and Personal Use Only
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
66
JULY 2014
जांनि । एह तेइंद्री जीवनी आरंभादिके करी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां(जाणतां अजाणतां । ते मिच्छामि दुक्कडं ||८||
हिवै चौरेंद्री जीव कहै छै । जे जीवने स्पर्श न रसन, घ्राण, चक्षु ए च्यार इंद्री ते चौरींद्री । ते कुण कुण? वीछू, ढिकुण, भमरा, भगरी, तीडी, माखी, डांस, मसक, भणहणा, कूंता, पतंगीया, कंसारी, खडमांकडी, गोगा, गावडी प्रमुख ! तेहनो छ मासनो उत्कृष्टो आउखो, एक योजन प्रमाण भमरादिकनो देहमान, दो लाख जोनि । ए चौरिंद्री जीवनी आरंभादिके करी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ||९||
हिवै पंचेद्रीना भेद कहै छै । जेहने स्पर्शन, रसन, घ्राण चक्षु, श्रोत्र ए पांच इंद्री जेहने ( जेहने) ते पंचेद्री । तेहना च्यार भेद- नारकी, देवता, मनुष्य, तिर्यंच ४ । नारकीना चवदै भेद स्वेतांवरकारी सात परजाप्ता सात अपरजाप्ता । ते नारकीनो तेतीस सागरनो उत्कृष्टो आउखो। दस हजार वरसनो जघन्य आउखो। पांचसै धनुष देहमान उत्कृष्टो । चार लाख नारकीनी योनि । ते नारकी जीवांने परमाहम्मी देवता करी छेदन, भेदन, ताडन, तर्जना, क्रक्रच, विदारण, त्रपुपान, कुंभीपाक पाचन, कदर्थनादिके विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ||१०||
देवताना च्यार भेद कहै छै । भवनपति' व्यंतर' ज्योतिषी' वैमानिक' । तेहनो जघन्य दसहजार वरसनो आउखो । उत्कृष्टो तेतीस सागरोपम आउखो। सात हाथ देहमान । च्यार लाख जीवा योनि । देवतानें मंत्र, मंत्र, तंत्र करी आकर्षण कीधा हुवै, दुख दीधा हुवै, दीसता नहीं छे ते भणी छतां अछता थाप्या हुवै, इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कलं ।।११।।
तिर्यंचना पांच भेद । ते कुण कुण? जलचर ते माछला, काछवा प्रमुख । तयां समूच्छिम गर्भिज बिहुंरो उत्कृष्टो पूर्वकोडिवर्षनो आऊखो । हज्जार योजन स्वयंभूरमणना माछला प्रमुखनो देहमान । थलचर ते कुण? सीह, वाघ, चीतरा, अष्टापद, हाथी, घोडा, खचर, ऊंट, बलद, गाय, खर, भेरा, छाली, हिरण, रोझ, ससीया, सूयर, रींछ, सांबर, कूतरा, सियाल, बिल्ली प्रमुख । ते युगलीयानो तीन पल्योपम उत्कृष्टो आऊखो। तीन कोस देहमान अने संख्याता आऊखाना धणी । तियांरो पूर्वकोड उत्कृष्टो आऊखो । छ कोस देहमान । खेचर उ पंखी । ते कुण कुण? हंस, बगला, सारस, सींचाणा, सामली, गृध, काग, गृघू, कबूतर, चिडकला, नीलटांस सूवटा, मोर प्रमुख तिणांरो पल्योपमरो असंख्यातमो भाग उत्कृष्टो
For Private and Personal Use Only
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
67
जुलाई २०१४
आउखो । धनुषपृथक्त्व देहगान । उरपरसर्प ते कुण कहियै ? स्वाले उ सर्प प्रमुख । तिणांरो पूर्वकोडि उत्कृष्टो आउखो । हजार जोजन देहमान । भुजपरसर्प ते कुण? गोह, नउलीया, गिलोइ, वांभणी प्रमुख तिणांरो पूर्व कोड उत्कृष्टो आउखो । कोस प्र ( पृथक्त्व देहमान । इयां पांचारी च्यार लाख योनि । इयां तिर्यंचानें छेदन, भेदन, कदर्थन, अंगावयवकर्तन, नासाविधन, अतिभारारोपण, पृष्ट (ष्ठ) गालन, डांभदान, कर्कसप्रहारदांग, चारपांणीनिषेध, विस्मरण, तापन, पीडन, व्यथोत्पादनादिके करी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कर्ड ||१२||
हिवै मनुष्यना भेद कहै छै । त्रिण सय तिडोत्तर ३०३ । ते किम ? पेंतालीस लाख जोजन मनुष्य क्षेत्रमांहे पांच भरत (५) पांच एरवत (५) पांच महाविदेह ( ५ ) एपन कर्मभूमि | पांच हेगवत (५) पांच एरन्नवत ( ५ ) पांच हरिवर्ष (५) पांच रम्यक (५) पांच देवकुरु (५) पांच उत्तरकुरु (५) एस अकर्म्मभूमि | छप्पन अंतरद्वीप एक सो एक (१०१) गर्भज पर्याप्ता, एक सो एक (१०१) गर्भज अपर्याप्ता, एक सो एक (१०१ ) समूर्च्छिम ए सर्व भेला कीधां त्रिणसयतीन भेद (३०३) । ते केइ अनार्य, केइ ब्राह्मण, केइ क्षे(क्ष) त्रिय, केइ वैश्य, केइ शूद्र, केइ राजा, केइ रंक के दृष्ट, केइ अदृष्ट, केइ ज्ञात, केइ अज्ञात, केइ श्रुत, केइ अश्रुत, केइ स्वजन, केइ परजन, केइ शत्रु केइ मित्र, केइ प्रत्यक्ष, केइ परोक्ष, अनेक भेद । ते युगलीया मनुष्य छै तिणांरो तीन पल्योपमरो उत्कृष्टो आउखो । तीन कोस देहमान । बीजा मनुष्यारो पूर्वकोडि उत्कृष्टो आउखो। पांचसे धनुष देहमान । इयां मनुष्याने ताडन वर्जन, छेदन, भेदनादिकं करी पीडा करी हुदै अथवा अभिया बत्तिया इत्यादिक दश प्रकारे करी विरधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ||१३||
अथ संयम विराधना मिथ्यादुः कृ (ष्कृतं । तत्र पञ्चमहाव्रतानि रात्रिभोजनविरमणसहितानि गृहीत्वा विराधितानि भवन्ति । कथम् ? तथाहि - सचित्त पृथवी, माटी, मुरड, खडी, खांणि, खुणी हुवै अथवा ए ऊपर पग आया हुवै। सचित्त लूण सेंधव खाधा हुवै अथवा उसामांहे घाल्या हुवै । वली सचित्त हरीयाल, हींगलू प्रमुख वांद्या हुवै। नगरगांहे पेसतां पग न पूंज्या हुवै। इत्यादिक प्रकार करी पृथवीकाय जीवांरी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ||१|| सचिन पाणी अथवा मिश्र पाणी पीर्या हुवै। सचित्त पाणीसुं वस्त्रडील धोया हुवै। नदी वा (ना) हला लंघ्या हुवै। वरसतै मेहने चाल्या हुवै । धुंहरमाहे
For Private and Personal Use Only
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
68
SHRUTSAGAR
JULY - 2014 अंगोपंग हलाया हुवै। इत्यादिकें करी अप्पकायरी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं |२|| वली सचित्त अग्निकाय आभडतै विहस्यो हुवै| अंगीठी कीधी हुवै। कोउ ताप्या हुवै। दीवा कीधा हुवै। आग उलंगी हुवै। दावानल लगाया हुवै। चकमकसुं अथवा आक अरणीसुं अग्नि पाडी हुवै। वीजली दीवा प्रमुखनी उजेही लगाई हुवै। इत्यादिक प्रकारे करी अग्निकाय जीवरी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं ||३||
वली वायुकाय विराध्या हुवै। ते किम? वीजणासुं छेहडासुं वायरो घाल्यो हवै। फूंक मारी हुवै। उघाडै मुंहडै बोल्या हुवै। वस्त्रादिक झटकाया हुवै। इत्यादिक वायुकाय जीवरी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जाता (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं ।।४।।
वली प्रत्येक वनस्पति साधारण वनस्पति स्वादै खाधी हुवै। फल, फूल, पान हरी त्रोड्या हुदै । नील, फूलण, सेवाल विराध्या हुवै। जडीबुटी त्रोडी काढी हुवै। आक भांजी आकदूध लीधो हुवै। धातुर्वाद पारो कमावत उषधीयारा रसरी पुट दीधी हुवै। इत्यादिक प्रकार करी वनस्पति जीवांरी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ले मिच्छामि दुक्कर ।।५।।
हिवै बेंद्री विराध्या हुवै। ते किम? । अणगल्यौ पाणी वावर्यो हुवै। जुलाव लेइ क्रमगिंडोला पाड्या हुवै। अंगउपंगै जोकदराई (जडो देवरावी) हुवै। पग हेठ अलसीया, चूडेलि गाडर, प्रमुख पीडाणा होवै (हुवै)। पग हेट आया हुवै। पाला टंकाया हुवै। इत्यादिकें करी बेंद्री जीवनी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जाला (जाणतां अजाणतां। ते मिच्छामि दुक्कडं ||६||
हिवै तेंद्री जीवना भेद कहै छ। ते किम? मांकण पाटमाहेथी काढ्या हुवै। दूहाणा हुवै। जूं लीख काढी हुवै। धूपदराणी हुवै। छपीलो (?) गमाङयो हुवै। कीडी, मकोडा, उदेही, घोवेलि, ईली, गदहीया, कुंथुवा, जउआ. पग हेठ आया हुवै। इत्यादि प्रकारे करी तेंद्री जीव विराध्या हुवै इणभव पर भव जाता(जाणतां अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं |७||
हिवै चौरिंद्री जीव विराध्या हुवै। ते किम? | माखी, डांस माछर डील लागा उडाया हुवै। हरताल वाटतां माखी मूइ हुवै। ठाम रंगतां रेगन, अलसी, तैल उपर माखी, कूत, माछर, पतंगीया प्रमुख जीव मूआ हुवै । कंसारी, भमरा, तीड.
For Private and Personal Use Only
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
69
जुलाई २०१४
विछू, प्रमुख दुहच्या हुवै। इत्यादिकै करी चौरेंद्री जीव विराध्या हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजागतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ||८||
-
हिवै पचेंद्री जीव विराध्या हुवै। ते किम ? कूता, बिल्ली, गाय, भैंस, घोडा, उंट (ऊंट), प्रमुखनौ घा ( डउ ) उ प्रहार घाल्यौ हुवै। चिड़कला, काग, पारेवा प्रमुख उडाया, बीहाव्या, त्रासव्या हुवै । एहना गाला पाड्या हुवै। साप अजगर उलारी नांख्या हुदै । रूपा, चिडी, हिरण प्रमुख डावा जीमणा आण्या हुवै। ऊंट, घोडा, बलद, खर, हाथी ऊपर चढ्या हुवै। मांदा असकत थकां अथवा इयां उंठ (ऊंट) प्रमुख ऊपर उपगरण पोथी प्रमुख भार घाल्या हुवै। ओषध देइ गर्भ पाड्या हुवै। मूत्र, विष्टा, श्लेषम, वात, पित्त, रूधिर, वीर्य, प्रमुख अंतर्मुहूर्त मांहे वोसराव्या नहीं हुवै। असंख्यात समूर्च्छिग पंचेंद्री जीव अपर्याप्ता ऊपना हुवै। क्रोधें करी चेला गुरुभाई अनेरा यती, गृहस्थनें चुंहटी, डोरा बूस्ट, टुबो, चपेट, डांडा मार्या हुवै। वली इर्या सोझो नहीं हुवै । राति चाल्या हुवै। पच्चखांण करी सुंस लेइ भांग्या हुवै | आरंभ - समारंभ करी प्राणातपात करी पहिलो व्रत विराध्यो हुवै। इणभव परगव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ||१||
हिवै बीजो व्रत विराध्यौ हुवै। ते किम ? क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, हास्थ, रति, अरति, करी: मृषा भाषा करी सावद्य भाषा बोली हुवै। पारकी निंदा कीधी हुवै । उत्सूत्र वांल्या हुवै। तूं जाव तूं आद ए काम करि इत्यादि अवधारणी भाषा बोली हुवै। आंधाने आंघो कहयो, कांणानें कांणो कहयो, कोढीयाने कोढीयो कहै. देवालीयाने देवालीयो, चोरनै चोर, जारने जार, इत्यादि वचने करी परनै असाता ऊपजावी ते साची भाषा पिण चोली हुवै। वली मृग गया पूर्व दिस, आहेडी पूछयां कह्यो 'पश्चिम दिस गया । मलेछादिक देहरो उपासरो पाडिवा आवै छै, यतीने मारवा आवे छे, पूछे 'अटै देहरो उपासरो जती छे? ति वारै कहै 'नही छै' एहवे कारण ए जूठ बोल्यो हुवै। इत्यादि प्रकारै करी बोजो व्रत विराध्यो हुवै इणभव परभव जातां( जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ॥२॥
For Private and Personal Use Only
हिवै तीज व्रत विराध्यो हुवै। ते किम ? स्वामिअदत्त' जीवअदत्त' तीर्थंकरअदत्तः स्वकीयगुरु अदत्त ए चतुर्विधि अदत्त लीधों हुवै। त्रिण, छार, डगल, पाषाण, थंडिला भूमि 'अणुजाणइ जररावग्गहो होत्ति' एहवुं वचन कह्यां विना संग्रहा हुवै। साधु-साधवी - गृहस्थना राछ, पीछ, पातरा, लूगडा पाटि, पाटला, अन्न, पाणी, ओषध प्रमुख अणकहयां वपराया हुवै। इत्यादिक प्रकारै त्रीजो व्रत विराध्यौ हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ||३||
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
70
JULY 2014
हिवै चोथो व्रत विराध्यो हुवै ते किम ? साधवी मथेणनी(?) बीजी पिण कोइ भेखधारणी, कुंवारी, बुधवा, सूहव (वा), वैश्या, स्त्रीसुं, कर्मविशेष सराग बात कीधी, संघट्टो कीधो, आलिंगन दीधो हुवै। जाणतां अथवा स्वप्न मांहे इतरा थोक (?) कीधा हुवै । वली नव ब्रह्मचर्य वाडि भांजी हुवै। स्त्रीपशु संसक्त वसति भोगवी हुवै ।।१।। स्त्रीसुं सराग वात कीधी हुवै ॥२॥ बिघडी मांहि स्त्रीने आसण बेठा हुवे ||३|| स्त्रीनां अंगोपंग कुच कक्ष - उदर प्रमुख सरागपणे जोया हुवै ||४|| कुनै आंतरे स्त्री-पुरुष काम क्रीडा करतां दीठा, सांभल्या हुवै ।।५।। गृहस्थावास मांहे काम क्रीडा करी हुवै ते संभारी हुवै || ६ || प्रणिताहारउ घीना चूवता कवल सरस आहार लीधा हुवै ||७|| शरीरनी विभूषाउ फूटरा दीसवा भणी अंगोल कीधी हुवै, मूंछ कतराबी हुवै, कांने पट्टा रखाया हुवै ||८|| सखरा वस्त्र, केसरिया वस्त्र सखरी कांबल पहिरीने वरणांगी कीधी हुवे | ९ || मकार चकार भकार प्रमुख गाल दीधी हुवै। देवांगणारी वंछा भोग मनमे धारी हुवै। इत्यादि प्रकार करी चौथा व्रतनी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां ( जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ।।४।।
हिवै पांचो व्रत विराध्यो हुवै। ते किंग? थिवर कल्पना चवदे उपगरणथी कारण विना मूर्च्छा करी अधिका उपगरण वस्त्र, पात्र, डांडा, डंडासणा, दोहणा, कुंडा, ढांकणी, प्रमुख राख्या हुवै। लोभनें बाह्य द्रव्य राख्या हुवे । लोभनें मोती, मांणक, मुंगीया, छुरी, कतरणी, नहरणी, सूइ, नखलो, पाछणो, अरगतीसार, चींपडी, चीपीयो, वाटको वाटकी, थाली, धातुरी सिली, त्रांवारी स्याहीरी डवी, मसरी, वावरी, प्रमुख सात धातुरो कोइ राछ पीछ राख्यौ हुवे । पोथी पाना प्रमुख धर्मोपगरण न्यानको उपगरण छै तो पिण ते ऊपर ममता अधिकी कीधी हुवै। इत्यादि प्रकार करी पांचमा व्रतनी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ||५||
हिवै छट्टो रात्रिभोजन विरमण व्रत विराध्यो हुवै ते किम ? असन' पान खादिम) स्वादिम चतुविध आहारनो रात्रिं परिभोग कीधो हुवै। लगवगती वेला आहारपाणी की हुवै । राति विहरीनें दिनें खाधो हुवै। संनिधी राखी खाधो हुवै। झोली ठाम खरड्या राख्या हुवै। गोचरी पडिकमतां चोविहार न कीधो हुवै। करीनै भाग हुवै। इत्यादि प्रकार करी छठ्ठा व्रतनी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ||६||
।। इति संजम विराधना मिथ्या दुःकृ (ष्कृत दानं ॥
For Private and Personal Use Only
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
71
जुलाई २०१४
अथ दुःकृ (ष्कृतगर्हा आहारना वै( बै) तालीस दूषण लागा हुवै। ते किम ? साधुने अर्थे सचित वस्तु अचित्त कीधी हुवै ते आधाकर्मी कहीजै ||१|| ते पहिलो । लाडूनो चूर्ण प्रमुख फासू (फ) हुतो अनै गुडादिक तवाचीन संस्कार कीधो ते उद्देसक कहीजै ||२|| जे आधाकर्मी आहार ते अवयव मिश्रित ते पूतकर्म्म कहीजै ||३|| जे साधु असाधु प्रमुख निमित्त नीपायां ते मिश्र कहीजे ||४|| साधु निमित्ते दूध, दही प्रमुख राखी मुंक्यौ ते थापना कहीजै ||५|| काज क्रिया वर उपगरण साधु निम(मि)त पहिलो पछे करे ते आहार प्राभूत (प्राभृत) कहीजे ||६|| अंधारे आहार छे अने गोख बारी प्रमुख साधु निमत्ते उघाडी उजवालो करने आहार के प्रादुःकरण कहीजे ||७|| द्रव्यादिक देर मोल आंणीनें द्ये ते क्रीतक कहीजै ||८|| साधु निमित्ते ओछीने आणी ते पाडिच्च ( पामिच्च) कहीजै ||१|| साधु निमित्ते कोद्रव प्रमुख देईने शाल प्रमुख आणीने विहरावै ते परिवर्तित कहीजे ||१०|| घरथी उपासरे आणीने द्ये ते अभ्याहृत कहीजै ||११|| गोबर प्रमुख करी कोठी, कलो प्रमुख भाजन मुद्रित कीधो छे ते मुद्रा उखेलने
ते उद्भिन्न कहोजे ||१२|| मालादिकनै विषये उंचो आहार छे ते नीसरणी प्रमुख करी उतारनें हो वे गालाहृत कहीजे ||१३|| दासदासीना हाथ प्रमुखथी खोसी थे ते उछेद कहीजे ||१४|| सामान्य श्रेणि समुदाई भक्ति छै ते एक साधुने
ते अनिसृष्ट कहीजे ||१५|| पोतारै अर्थे आधण दीघो छे अनें साधु निमित्तें पांशुली चावल प्रमुख अधिका ऊ (ओ) रे ते आहार अध्यतपूरक कहीजे ||१६|| ए सोले पिंडोद्गम दोष कहीजै ।
हिवै सोलै उत्पादना दोष कहै छै । गृहस्थारा छोकराने रमाय के साधु आहार ले ते धात्री पिंड दोष ||१|| दूतनी परै ग्रामग्रामना देशदेशना समाचार कहीने आहार ले ते दूतीपिंड कहीजै ||२|| निमित्त प्रकासने आहार ल्यै ते निमित्त पिंड कहीजै ।। ३ । । आपणी जात गोत प्रकासनै आहार ल्यै ते आजीवकापिंड कहीजे ||४|| दातारनी जेहने विषै भक्ति छै तेहनी प्रसंशा करीने आहार ल्यै ते वणीमगपिंड कहीजे ||५|| गृहस्थनै उषध, भेषज, चिकित्सा कर्म्म करीने आहार ल्यै ते चिकित्सादोष पिंड ||६|| क्रोध करी आहार ल्यै ते क्रोधपिंड ||७|| मान अभिमान करी आहार ल्यै ते मानपिंड ||८|| माया केलवीनें आहार ल्यै ते मायापिंड || ९ || लोभै करी आहार ल्यै ते (लोभपिंड ) ||१०|| पूर्व संस्तवना करी ल्यै ते) पूर्व संस्तवदोष कहीजै ||११|| पछे संस्तवना कसे ल्यै ते पुच्छा संस्तवपिंड कहीजै ||१२|| विद्या प्रजुंजीने आहार ल्यै ते विद्यापिंड || १३ || मंत्र प्रजुजीन
For Private and Personal Use Only
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
SHRUTSAGAR
आहार ल्ये ते मंत्रपिंड साडी - पाडी आहार ल्यै ||३२||
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
72
JULY 2014
19४|| चूर्ण देइने आहार ल्यै ते चूर्णपिंड | १५ || गर्भ ते मूल कर्म्मपिंड ||१६|| ए सोलह उत्पादना दोष एवं
दश वली एषणा दोष । आधाकर्मादि दूषण करी संकित आहार ||१|| आधाकर्मादिक दूषण करी ग्रक्षत आहार ||२|| सचित्त उपर निक्षप्ति मुंक्यौ आहार ।।३।। फासू आहार ऊपर सचित्त मुंक्यौ ते पिहत ||४|| सचित्त पृथवीयादिकनें विषय संहरी दीघो ते संहत ||५|| अतिबालक अतिवृद्ध अयोग्यदायक तिण दीघो आहार ||६|| सचित्त मिश्र आहार ||७|| सम्यक अपरगत आहार ||८ ॥ वसादि लिप्त आहार || ९ || छर्द्दित परशाट आहार ||१०| एवं ।। ४२ ।।
पांच मांडलना दूषण क्षीर, खांड, घृत जुदा विहर्या जीमतां भेला करी जीम्या ते संयोजना ||१|| बत्तेस कवलांथी अधिको जीमै ते अप्रमाण ||२॥ आहारनै विषये गृद्ध को जीमै ते अंगारदोष ||३|| अंतत्रांत अनिष्ट आहार जीमतो द्वेष आंणे ते धूगदोष ||४|| वेदनादिक छर्दि कारण विना आहार ल्यै ते अकारण दोष ।।५।। एवं रोतालीस दोषमांहिलो जे कोइ दोषण लागो हुवै इणभव परभव जातां ते मिच्छामि दुक्कडं ।
वली सज्जातरनें घरें विहर्यो हुवै। अग्रपिंड लीधो हुवै। गृहस्थनै भाजने आहार कीधो हुवै। गृहस्थनै सखर पंचामृत आहार जीमतां देखीनें वांछा कीधी हुवे । एकै पातरै सगलां धरांनी एकठी भिक्षा अरस विरस विहरी देखीने दुगंछा कीधी हुवै । आपणो विहर्यो आहार पासत्यादिक पांचने अथवा अन्यदर्शनीने अथवा गृहस्थ दीधो हुवै। अंधोल कीधो हुवे । दाढी मुंछ गाथैरा काबरा केस कतराया हुवै, मुंडाया हुवै। साबुसु लुगडा धोया हुवै। इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां ) ते मिच्छामि दुक्कडं ।
वली ग्यानरा आठ अतीचार लगाया हुवै। ते किम ? कालवेलायें सिद्धांत भयो नहीं हुवै अथवा अकालै सिद्धांत भण्यो हुवे ||१|| भणावणहाररो विनय न को हुवै ||२|| भणाव्णहारने बहुमान अंतरंग प्रीत नहीं धरी हुवै || ३ || योग तप उपधान विना सिद्धांत वांच्या हुवै | १४ || विद्यागुरु ओलव्यो हुवे ||५|| सूत्र ||६|| अर्थ ||७ || सूत्रार्थ ॥१८ || बेहुं खोटा भण्या कहया हुवै। भणतां गुणतां सूत्र अर्थ लेतां देतां किणहीनुं अंतराय कीधो हुवै। छती परत भणवा लिखवा न दीधी हुवै।
For Private and Personal Use Only
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
73
श्रुतसागर
जुलाई - २०१४ ज्ञानद्रव्य खाधो हुवै । पुरतक प्रमुख वेच्या हुवै । सूक्ष्म अर्थ सरदह्या न हुवै। इत्यादि प्रकार तरी ज्ञान विराधना (जाणतां अजाणतां) इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं ।।१।।
हिवै दर्शनना आठ अतिचार ते किम? देवगुरु 'धर्मने विषै संका कीधी हुवै ||१|| अन्य अन्य दर्शनां ऊपर अभलाषा वांछा कीधी हुवै ।।२। साधु साध्वीनी दुगंछा कीधी हुवै ।।३।। सर्व देव, सर्व गुरु, सर्व धर्म सरीखा मान्या हुवै ।।४।। साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका गुणवंत चतुर्विध श्री संधनी प्रसंसा न कीधी हुवै ।।५।। सीदाता साधर्मी साहमीनें द्रव्यत भावत स्थिरता न कीधी हवै ।।६ || साधर्गिक साधुनी भक्तवत्सलता कीधी न हुवै ।।७।। श्री जिनशासण तणी प्रभावना उद्दीपना न कीधी हुवै ।।८।। इत्यादिक प्रकार करी दर्शननी विराधना कीधी हुवै इणभव परभव जात(जाणतां अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं ।।२।।
हिवै चारित्रना आठ अतिचार लागा हुवै ते किम? इर्यासमति' भाषासमति' एषणासमति' आदांनभंड-निखेवणारामति' उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाण पारठावणीयासमति गनोगुप्ति ववनगुप्ति' कायगुप्ति एवं पांच सुमति(समति) त्रीणि गुप्ति विराची हुबै । इणभव परभव जातां (जाणता अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं ।।३।।
वली उभयकाल पडिकमणो कीधो न हुवै। अथवा कालवेला टाली अकालै कीधो हुवै। अथवा छती सत्तें बैठां पडिकमणो कीधो हुवै। वांदणा बारह आवर्त्त भली परै साचव्या न हुवै । प्रभातनो पडिकमणो आगासै कीधो हुवै । पडिकमणांमांहे निद्रा विकथा कीधी हुवै । दिवरामाहै पांच बार सिल्झाय ध्यान न कीधो हुवै। अहोरात्रगांहे सात पार चैत्यवंदन न कीधा हुवै। पच्चखाण पार्या न हुवै] पउण पडिलेहण आघीपाछी कीधी हुवै । ओधा, मुंहपत्ती, वस्त्रपात्र पडलेह्या न हुवै । सांझे बारह १२ बाहिर. बारह १२ मांहे, एवं २४ थंडला, च्यार कालग्रहणना मंडल एवं २८ मांडला कीधा न हुवै। राइ संथारा मुंहपती डिलेही न हुवै। आवरराहि निस्सिहि प्रमुख दसविध चक्रवाल समाचारी साचवी नहीं हुवै। सूत्रपोरसी, अर्थपोरसी साचवी नहीं हुवै। कारण विना दिवस निद्रा कीधी हुवे। रात्रे पोहर उपरंत निद्रा कीधी हुवे। राइ प्रायश्चित न कीधो हुवै। थापना पडिलेहवी वीसर गइ हुवै । थांनक बै(पै)सतां 'अणुजाणह जस्सवग्गहो होइ त्ति' एहईं वचन न कहयुं हुवै। रात्रे अकाले थंडलै गयो हुवै । कालातीत, क्षेत्रातीत अनपाणी प्रमुख भोगव्या हुवै।
For Private and Personal Use Only
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
74
SHRUTSAGAR
JULY - 2014 छती शक्ते अणसण' उणोदरी वृत्तिसंक्षेप' रसत्याग कायक्लेस' संलीनता ए बाह्य तप; फेर गुरु समीपै पाप लागैरी आलोयण लेवे ने प्रायश्चित तप ते आलोयण न लेवै ।।१: विनय वडा साधुरो साचव्यो न हुवै ।।२।। वेयावच्च बाल, वृद्ध, ग्लान, तपरची, गीतार्थगुरु, असमर्थ साधु प्रमुखनो न कीयो हुवै |३|| सज्झाय वाचना' पृच्छना' परावर्तना' अनुप्रेक्षा' धर्मकथा" पांच प्रकारे न कीधी हुवै। पिंडरथ' पदरथ' रूपस्थ रूपातीत' ए च्यार ध्यान न कीधा हुवै । आर्तध्यान रौद्रध्यान कीघा हुवै। काउसग्ग दुःखक्षय, कर्मक्षयनो कीधो न हुवै। इत्यादिक प्रकार करी चारै भेदै तपस्या साचवी न हुवै इगभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ते निच्छामि दुक्कडं ।।३।।
वली गनोवीर्य वचनवीर्य' कायवीर्य धर्मस्थानकै फोरव्या न हुदै ! नोकारगी' पोरसी' साढपोरसी' परमहा अवड' एकासणो च्यासणो' नीवी विल एकलठाणो उपवास११ गंठसी २ मुठसी प्रमुख छती शक्ति कीधा न हुवै। अथवा करीने भागा हुवै । अथवा पारवा वीसर गया हुवै । इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं कृतं देयं ।।४।।
वली यतीनो दशविधे धर्म विराध्यौ हुवै । ते किम? क्षमा न कीधी मार्दवअहंकार कीधो हुवै आर्सव-कपट कीधो हुथै' मुक्ति-लोभ कधो हुये परया न कीधी हुदै सतरै भेदे संजम पाल्यौ न हुवै सत्य बोल्यो न हुये सोच-अदत्तादांन निषेध न कीधो हुवै आकिंचण-निःपरिग्रहनो निषेध न कीधो दुवै ब्रह्मचर्य पाल्यो न हुवै इत्यादि प्रकार करी दशविधि यतिनो धर्म विराध्यो हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं ।।५।।
वय समणस्स धम्म संयम"वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तवो२ कोहनिग्गहो चरणमेयं तु ||१|| ए वरणसत्तरी। पड(पिंड)व(वि)सोही समिई भावण१२ पडिमा य इंदियनिरोहो । पडिलेहण५ गुत्तीओ' अभिग्गहा चेव करणं तु ||१|| ५ करणसतरी।
एवं चरणसत्तरी करणसत्तरी १४० बोल विराध्या हुवै। इणभव परभव जाता (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छामि दुक्कडं ।।
|| इति दुष्कृतगर्दा ।।६।।
For Private and Personal Use Only
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
75
श्रुतसागर
जुलाई - २०१४ अथ सुकृतानुनोदना। थोड़ी घणी वेला पंच महाव्रत पाल्या हुवै। पांच रामिति, त्रिणि गुप्ति आठ प्रवचन पालवानी खप कीधी हुनै । आहार विहरतां खप कीधी हुवै। सूत्र सिद्धांत विध(धि)सु भण्या-भणाया हुवै । परति पानां सोझ्या हुवै । भगवा भणी परत कोधो हुवै। अरिहंतनो वेयावच्च कीधी हुवै । साधुनौ, ग्लाननौ, तपसीनौ, आवार्यनी उपाध्यायनौ, वाचनाचार्यनौ विनय-वेयावच्च कीधौ हुवै। विधसुं उपधागयोग चुहा हुवे। शत्रुजय, गिरनार, अष्टापदजी, आबूजी, सम्मेतसिखरजी, चंपापुरी, पावापुरी, राजग्रही, जेशलमेर, रांणपुरो, थंभणो, गाडी, फलोधी, अंतरीकजी प्रमुख तीर्थजात्रा कीधी हुवै । चौदस. पांचम, बीज, आठम, इग्यारस, वीसस्थानक, कल्याणकतिथि, प्रमुख तिथि तप कीधो हुवै। दुःखक्षय, कर्मक्षय निमित्त कावसग्ग कीधो हुदै । चारह भावना भावी हुदै। लाख नोकार ]ण्या हुवै। गंठी, मुंठी, नवकारसी, पोरसी, साढपोरसी, पुरमड्ड, आंबिल, उपवास, एकासणो, ब्यासणो, नीवी, दिवराचरम प्रमुख पच्चखाण दासगुंसावा कीधा हुये। चरणसत्तरी करणसत्तरी भली परे पाली हुदै । इणभव परभव ते अणुमोदज्यौ ।
इसरे करी पहलो राम्यक्त्व सूधो उवरायो' पछै अढारै पापस्थानक वोसराया' पछै चौरासीलाख जी पाजोनि खमाधी ५ रायगविराधना गिच्छामि दुक्कडं दिरावी' पछै दुष्कृत गहाँ करावी पछै सुफतअनुमोदना करावी । वली अराधना करावी तिवार विशेषपणे करावीजै रावर आखडी पच्चखाण विशेष च्यार सरणा कराईजै] गंठी बंधावीजै।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ।।१।। इत्यादि।
वाणाष्टरसभौमाब्दी (१६८५) रिणीनगरसंस्थितैः । यत्यन्त्याराधना चक्रे समयादिमसुन्दरैः ।।१।।
यद्यत्याराधनां त्वा पुण्यस्योपार्जनं कृतम्। तेन प्रान्तवेलायां ममोदयगुपै। सा ।।२।। ॥ इति यत्याराधनाभापा श्रीसमयसुंदरविरच(चिता तिधिरांपूर्णम् ।।
।। ग्रंशमान ३७१ संख्या ।। ।। सं. १८:९ मिति पोहनदि र सोमवारे लि.पं। दुलीचंद
श्रीविगगुरमध्ये चतुर्मासी कृतायाम् ।।श्री:11
For Private and Personal Use Only
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
-
कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची
एक संक्षिप्त परिचय
• ग्रंथ नाम - कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची
: प्रकाशित होनेवाले कुल भाग
• अब तक प्रकाशित कुल भाग
• प्रत्येक भाग के कुल पृष्ठ - ६०८
६२०० से ६८००
: प्रत्येक भाग में प्रकाशित हस्तप्रतों की संख्या : प्रत्येक भाग में प्रकाशित कृति लिंकों की संख्या * प्रत्येक भाग में हस्तप्रत सूचनाओं के कुल पृष्ठ ४०० से ४५० : प्रत्येक भाग में कृति सूचना परिशिष्ट के कुल पृष्ठ १२० से १७० विशेषता अप्रकाशित व अशुद्ध प्रकाशित साहित्य को शुद्ध व बहु उपयोगी बनाने पूर्वक संशोधन - संपादन क्षेत्र में कार्यरत व इतिहास एवं ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं के अभ्यासु तथा वर्तमान की अनेक समस्याओं का हल ढूंढने वाले प. पू. साधु-साध्वीजी भगवंतों एवं विद्वानों के लिए यह ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी है.
-
-
५५
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१६
३००० से ३५००
-
For Private and Personal Use Only
-
अन्य सूचीपत्रों की तुलना में इस सूचीपत्र में हस्तप्रत, पेटा हस्तप्रत और उनमें पाई जानेवाली कृतियों की ८० से अधिक प्रकार की सूचनाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं.
जिनमें प्रत नाम, प्रतिलेखन वर्ष, प्रतिलेखक, गुरु परंपरा, प्रतिलेखन स्थल, पूर्णता, हस्तप्रत विशेषता, हस्तप्रत लक्षण, दशा, पृष्ठ, लंबाई-चौडाई, पंक्तिअक्षर, पेटांक नाम, पेटांक पृष्ठ, कृति नाम स्वरूप, भाषा, कर्ता, आदिवाक्य, अंतिमवाक्य, परिमाण, रचना वर्ष आदि मुख्य रूप से हैं. इनके अलावा अनेक सूचनाएँ जो केटलॉग में स्थल संकोच के कारण छप नहीं सकती है उन्हें कम्प्यूटर प्रोग्राम में ही खूब ही सुसंकलित रूप से संजोई जाती हैं.
ग्रंथ के अंत में छपे परिशिष्टों में कृति परिवार का परिचय तथा प्रत्येक कृति से जुडी एकाधिक हस्तप्रतों की जानकारियाँ सरलता से प्राप्त हो जाती हैं. ये सारी सूचनाएँ ज्ञानमंदिर में कार्यरत विविध भाषाओं के जानकार पंडितवर्यों द्वारा
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
77
जुलाई - २०१४ प्रत्येक हरतप्रत का सूक्ष्म अवलोकन व निरीक्षण कर, आवश्यकता पड़ने पर सन्दर्भ ग्रन्थों आदि की सहायता से प्रविष्टि की जाती हैं.
सूचीकरण का काम महज सूची बना कर छाप देने मात्र तक सीमित नही है. अस्त-व्यस्त बिखरी व जीर्ण-शीर्ण दशा में आए हस्तप्रतों के पन्नों का खूब ही सूझबूझ व धीरज पूर्वक मिलान करके ग्रंथों को पूर्ण बनाना, उन पर वेष्टन आदि लगा कर उन्हें सुरक्षित करने का बड़े ही श्रम-समय साध्य आधार कार्य भी सूचीकरण कार्य का ही हिस्सा है.
वितरण व्यवस्था - इन ग्रंथों की एक-एक कॉर्प भारत भर के प्रमुख ज्ञानभंडारों एवं साधु-साध्वीजी भगवंत जो हस्तप्रत के क्षेत्र में संपादन-संशोधन कार्य कर रहे हों, उन्हें भेंटस्वरूप भेजी जाती है.
इसके अतिरिक्त पुरतक विक्रेताओं के माध्यम से विश्वभर की इस क्षेत्र से जुड़ी युनिवर्सीटियों, संस्थाओं या व्यक्तियों को उनके व्य गित उपयोग के लिए लागत मूल्य पर विकय किया जाता है.
इन ग्रंथों की ई-फाईल (पीडीएफ) बनाकर वेबसाइट पर अपलोड की जाती है, इसके अतिरिक्त यदि किसी विद्वान को इसकी Soft Copy चाहिए हो तो (उन्हें ई-मेल द्वारा की भेजी जाती है.
दाता का चतुरंगी पृष्ट - केटलॉग के भाग को प्रकाशित करने का लाभ जिस श्री संघ, परिवार या दाता ने लिया हो. उनका परिचय. यदि श्री संघने लाभ लिया हो तो संघ का नाम, संघ के जिनालय के नूलनायकजी का फोटो, ट्ररटीश्रीओं की सूची आदि मुद्रित किए जाते हैं.
किसी व्यक्ति या उसके परिवार की ओर से दान प्राप्त हुआ हो तो उनके परिवार के सदस्यों के फोटो तथा यदि परिवार के मुख्य व्यक्ति को समर्पित किया हो तो उनके फोटो व नाम मुद्रित किए जाते हैं. ये सारी सूचनाएँ एक चतुरंगी पृष्ठ के रूप में, दाता ने जिस भाग का लाभ प्राप्त किया हो, उस भाग में प्रकाशित किया जाता है.
श्रुतप्रेमी गहानुभाव कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूचि में डोनेशन हेतु कार्यालय से संपर्क करें.
For Private and Personal Use Only
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
धर्म कला व श्रुत-साधना का आह्लादक धाम
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ
अहमदाबाद- गांधी नगर राजमार्ग पर स्थित साबरमती नदी के समीप सुरम्य वृक्षों की घटाओं से घिरा हुआ यह कोबा तीर्थ प्राकृतिक शान्तिपूर्ण वातावरण का अनुभव कराता है. गच्छाधिपति, महान जैनाचार्य श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. की दिव्य कृपा व युगदृष्टा राष्ट्रसंत आचार्य प्रवर श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी के शुभाशीर्वाद से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की स्थापना २६ दिसम्बर १९८० के दिन की गई थी आचार्यश्री की यह इच्छा थी कि यहाँ पर धर्म, आराधना और ज्ञान-साधना की कोई एकाध प्रवृत्ति ही नहीं वरन् अनेकविध ज्ञान और धर्म-प्रवृत्तियों का महासंगम हो. एतदर्थ आचार्य श्री कैलासस गरसूरीश्वरजी की महान भावनारूप आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का खास तौर पर निर्माण किया गया.
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र अनेकविध प्रवृत्तियों में अपनी निम्नलिखित शाखाओं के सत्प्रयासों के साथ धर्मशासन की सेवा में तत्पर है.
(१) महावीरालय : हृदय में अलौकिक धर्मोल्लास जगाने वाला चरम तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी का शिल्पकला युक्त भव्य प्रासाद 'महावीरालय' दर्शनीय है. प्रथम तल पर गर्भगृह में मूलनायक महावीरस्वामी आदि १३ प्रतिमाओं के दर्शन अलग-अलग देरियों में होते हैं तथा भूमि तल पर आदीश्वर भगवान की भव्य प्रतिना, माणिभद्रवीर तथा भगवती पद्मावती सहित पाँच प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं. सभी प्रतिमाएँ इतनी मोहक एवं चुम्बकीय आकर्षण रखती हैं कि लगता है सामने ही बैठे रहें.
मंदिर को परंपरागत शैली में शिल्पांकनों द्वारा रोचक पद्धति से अलंकृत किया गया है, जिससे सीढियों से लेकर शिखर के गुंबज तक तथा रंगमंडप से गर्भगृह का हर प्रदेश जैन शिल्प कला को आधुनिक युग में पुनः जागृत करता दृष्टिगोचर होता है. द्वारों पर उत्कीर्ण भगवान महावीर देव के प्रसंग २४ यक्ष, २४ यक्षिणियों, १६ महाविद्याओं, विविध स्वरूपों में अप्सरा, देव, किन्नर, पशु-पक्षी सहित वेल-वल्लरी आदि इस मंदिर को जैन शिल्प एवं स्थापत्य के क्षेत्र में एक अप्रतिम उदाहरण के रूप में सफलतापूर्वक प्रस्तुत करते हैं.
For Private and Personal Use Only
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
श्रुतसागर
79
जुलाई २०१४
महावीरालय की विशिष्टता यह है कि आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के अन्तिम संस्कार के समय प्रतिवर्ष २२ मई को दुपहर २ बजकर ७ मिनट पर महावीरालय के शिखर में से होकर सूर्य किरणें श्री महावीरस्वामी के ललाट को सूर्यतिलक से देदीप्यमान करे ऐसी अनुपम एवं अद्वितीय व्यवस्था की गई है. प्रति वर्ष इस आह्लादक घटना का दर्शन बड़ी संख्या में जनमेदनी भावविभोर होकर करती है.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
·
(२) आचार्य श्री कैलाससागरसूरि स्मृति मंदिर (गुरु मंदिर ) : पूज्य गच्छाधिपति आचर्यदेव प्रशान्तमूर्ति श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी के पुण्य देह के अन्तिम संस्कार स्थल पर पूज्यश्री की पुण्य स्मृति में संगमरमर का नयनरम्य कलात्मक गुरु मंदिर निर्मित किया गया है. स्फटिक रत्न से निर्मित अनन्तलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामीजी की मनोहर मूर्ते तथा स्फटिक से ही निर्मित गुरु चरण पादुका वास्तव में दर्शनीय हैं.
(३) आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर ( ज्ञानतीर्थ) : विश्व में जैनधर्म एवं भारतीय संस्कृति के विशालतम अद्यतन साधनों से सुसज्ज शोध संस्थान के रूप में अपना स्थान बना चुका यह ज्ञानतीर्थ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की आत्मा है. ज्ञानतीर्थ स्वयं अपने आप में एक लब्धप्रतिष्ठ संस्था है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के अन्तर्गत निम्नलिखित विभाग कार्यरत हैं: (i) देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भांडागार (ii) आर्य सुधर्मास्वामी श्रुतागार ( मुद्रित पुस्तकों का ग्रंथालय ) (iii) आर्यरक्षितसूरि शोधसागर (कम्प्यूटर केन्द्र सहित ) (iv) सम्राट सम्प्रति संग्रहालय : इस कलादीर्घा - म्यूजियम में पुरातत्व - अध्येताओं और जिज्ञासु दर्शकों के लिए प्राचीन भारतीय शिल्प कला परम्परा के गौरवमय दर्शन इस स्थल पर होते हैं. पाषाण व धातु मूर्तियों, ताड़पत्र व कागज पर चित्रित गण्डुलिपियों, लघुचित्र, पट्ट, विज्ञप्तिपत्र, काष्ठ तथा हस्तिदंत से बनी प्राचीन एवं अर्वाचीन अद्वितीय कलाकृतियों तथा अन्यान्य पुरावस्तुओं को बहुत ही आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक ढंग से धार्मिक व सांस्कृतिक गौरव के अनुरूप प्रदर्शित की गई है. (v) शहर शाखा : पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंत एवं श्रावक-श्राविकाओं को स्वाध्याय, चिंतन और मनन हेतु जैनधर्म कि पुस्तकें नजदिक में ही उपलब्ध हो सके इसलिए बहुसंख्य जैन बस्तीवाले अहमदाबाद ( पालडी टोलकनगर ) विस्तार में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की एक शहर शाखा का ई. सं. १९९९ में प्रारंभ किया गया था. जो आज चतुर्विध संघ के श्रुतज्ञान के अध्ययन हेतु निरंतर अपनी सेवाएँ दे रही है.
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
SHRUTSAGAR
80
JULY 2014
(४) आराधना भवन : आराधक यहाँ धर्माराधना कर सकें इसके लिए आराधना भवन का निर्माण किया गया है. प्राकृतिक हवा एवं रोशनी से भरपूर इस आराधना भवन में मुनि भगवंत स्थिरता कर अपनी संयम आराधना के साथ-साथ विशिष्ट ज्ञान भ्यास, ध्यान, स्वाध्याय आदि का योग प्राप्त करते हैं.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ५ ) धर्मशाला : इस तीर्थ में आनेवाले यात्रियों एवं महेमानों को ठहरने के लिए आधुनिक सुविधा संपन्न यात्रिकभवन एवं अतिथिभवन का निर्माण किया गया है. धर्मशाला में वातानुकुलित एवं सामान्य मिलकर ४६ कमरे उपलब्ध हैं.
प्रकृति की गोद में शांत और सुरम्य वातावरण में इस तीर्थ का वर्ष भर में हजारों यात्री लाभ लेते हैं.
(६) भोजनशाला व अल्पाहार गृह : तीर्थ में पधारनेवाले श्रावकों, दर्शनार्थियों, मुमुक्षुओं, विद्वानों एवं यात्रियों की सुविधा हेतु जैन सिद्धान्तों के अनुरूप सात्त्विक उपहार उपलब्ध कराने की विशाल भोजनशाला व अल्पाहार गृह में सुन्दर व्यवस्था है.
-
(७) श्रुत सरिता : इस बुक स्टाल में उचित मूल्य पर उत्कृष्ट जैन साहित्य, आराधना सामग्री, धार्मिक उपकरण, कैसेट्स एवं सी. डी. आदि उपलब्ध किये जाते हैं. यहीं पर एस. टी. डी टेलीफोन बूथ भी है.
विश्वमैत्री धाम बोरीजतीर्थ, गांधीनगर : योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी महाराज की साधनास्थली बोरीजतीर्थ का पुनरुद्धार परम पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा एवं शुभाशीर्वाद से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र संलग्न विश्वमैत्री धाम के तत्त्वावधान में नवनिर्मित १०८ फीट ऊँचे विशालतम महालय में ८१.२५ इंच के पद्मासनस्थ श्री वर्द्धमान स्वामी प्रभु प्रतिष्ठित किये गये हैं. ज्ञातव्य हो कि वर्तमान मन्दिर में इसी स्थान पर जमीन में से निकली भगवान महावीरस्वामी आदि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज द्वारा हुई थी. नवीन मन्दिर स्थापत्य एवं शिल्प दोनों ही दृष्टि से दर्शनीय है. यहाँ पर महिमापुर (पश्चिमबंगाल) में जगत्शेठ श्री माणिकचंदजी द्वारा १८वीं सदी में कसौटी पथ्थर से निर्मित भव्य और ऐतिहासिक जिनालय का पुनरुद्धार किया गया है. वर्तमान में इसे जैनसंघ की ऐतिहासिक धरोहर माना जाता है. निस्संदेह इससे इस तीर्थ परिसर में पूर्व व पश्चिम भारत के जैनशिल्प का अभूतपूर्व संगम हुआ है.
For Private and Personal Use Only
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
190 LLEI.
www.kobatirth.org
For Private and Personal Use Only
809000000 SBA OBTW76 es va
of yooDT 3 Brou Fee 16376616P0LT wa MOTED ON WOU BOON ooooooooo Ko@olas
B adez-RS ET FOX Spor V
IDES TROIDO
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
ताडपत्रमा प्राप्त थता ग्रंथ लिपिमां आलेखायेल अष्टमंगल पूजनविधि
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir TITLE CODE : GUJ MUL 00578. SHRUTSAGAR (MONTHLY), POSTAL AT. GANDHINAGAR. ON 15TH OF EVERY MONTH. PRICE: RS. 15/- DATE OF PUBLICATION JULY-2014 ज्ञानमंदिरना आगामी प्रकाशनो कैलास "SUPટારફી || सनलिखित माहित KAILASA SRUTASAGURA GRASTHASICI बुद्यावादावा इदरिसी गासिवमा विदिमखापरवति। गानामाज्ञियाति व्यवहार पणधर्म સમાધાન JDUTORSHITAL प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्ट कोबा गांधीनगर 322000 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252, फेक्स (079) 23276249 Website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org BOOK-POST / PRINTED MATTER PRINTED, PUBLISHED AND OWNED BY : SHRI MAHAVIR JAIN.ARADHANAKENDRA. PRINTED AT: NAVPRABHAT PRINTING PRESS. 9-PUNAJI INDUSTRIAL ESTATE, DHOBHIGHAT DUDHESHWAR AHMEDABAD-380004 PUBLISHED FROM : SHRI MAHAVIR, JAIN ARADHANAKENDRA. NEW KOBA. TA. & DIST. GANDHINAGAR, PIN: 382007, GUJARAT EDITOR : KANUBHAI LALLUBHAI SHAH, For Private and Personal Use Only