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SHRUTSAGAR
JULY .2014 ग्रंथ लिपि नामकरण विषयक अवधारणा :
ग्रंथ लिपि का निर्माण दक्षिण भारत में संस्कृत के ग्रंथ लिखने के लिए हुआ। क्योकि वहाँ प्रचलित तामिळ लिपि में अक्षरों की न्यूनता के कारण संस्कृत भाषा लिखी नहीं जा सकती। प्राचीन तामिळ लिपि में सिर्फ अठारह व्यंजन वर्णों का चलन है, जिनसे तामिळ भाषा का साहित्य तो लिखा जा सकता है लेकिन संस्कृत भाषाबद्ध साहित्य लिखना संभव नहीं। अतः संस्कृत के ग्रंथ लिखने के लिए इस लिपि का आविष्कार हुआ। संभवतः इसी कारण इसे ग्रंथ लिपि (संस्कृत ग्रन्थयों की लिपि) नाम दिया गया। इरा लिपि के अक्षरों का लेखन करते समय एक ग्रन्थि (गांठ) जैसी संरचना बनाकर अक्षर लिखने की परंपर। मिलती है, जिसके कारण भी इसका नाम ग्रंथ लिपि पड़ने की संभावना है। विदित हो कि दक्षिण क्षेत्र के लेखक अपने अक्षरों में सुन्दरता लाने के लिए अक्षर-लेखन में प्रयुक्त होनेवाली लकीरों (खडीपाई एवं पड़ीपाई) को वक्र और मरोडदार बनाते थे। इन लकीरों के आरंभ, मध्य या अन्त में कहीं-कहीं ग्रन्थियाँ भी बनाई जाती थीं। इन्हीं कारणों से इस लिपि के अक्षरों की संरचना ग्रन्थि (गाँठ) के समान बनने लगी और धीरे-धीरे इसके अक्षर अपनी मूल वापी लिपि से भिन्न होते चले गये। ग्रंथ लिपि की विशेषताएँ . * यह लिपि ब्राह्मी तथा अन्य भारतीय लिपियों की तरह वायें से दायें लिखी
जाती है। * ताडपत्रों पर लिखने के लिए यह लिपि सर्वाधिक उपयोगी. सरल और सटीक
लिपि मानी गयी है। * यह लिपि ताडपत्रों पर शिलालेख एवं ताम्रलेख आदि की तरह लोहे की
नुकीली कील द्वारा खोद कर लिखी जाती है। * इस लिपि में शिरोरेखा का चलन नहीं है। विदित हो कि ब्राह्मी तथा गुजराती लिपियाँ भी शिरोरेखा के बिना ही लिखी जाती हैं। लेकिन शारदा, नागरी
आदि लिपियों में शिरोरेखा का चलन है। * इस लिपि में समस्त उच्चारित ध्वनियों के लिए स्वतन्त्र एवं असंदिग्ध चिह्न
विद्यमान हैं। अतः इसे पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि कहा जा सकता है। * इस लिपि में अनुस्वार, अनुनासिक एवं विसर्ग हेतु स्वतन्त्र चिह्न प्रयुक्त हुए
हैं, जो आधुनिक लिपियों में भी यथावत् स्वीकृत हैं। * इस लिपि में व्याकरण-सम्मत उच्चारण स्थानों के अनुसार वर्णों का ध्वन्यात्गक विभाजन है।
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