Book Title: Shrutsagar 2014 07 Volume 01 02
Author(s): Kanubhai L Shah
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 45
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 43 जुलाई - २०१४ • इस लिपि का प्रत्येक अक्षर स्वतन्त्ररूप से एक ही ध्वनि का उच्चारण प्रकट करता है, जो सुगम और पूर्णरूप से वैज्ञानिक है। * इस लिपि के अक्षरों का आकार सगान है व शलाका प्रविधि से टंकित करने का विधान मिलता है। : अक्षरों की बनावट ग्रन्थि के आकार की है। प्रत्येक अक्षर में एक सूक्ष्म ग्रन्थि बनाकर लिखने की परंपरा है। • इस लिपि के अक्षर लेखन की दृष्टि से सरल माने गये हैं, जिन्हें ताडपत्रों पर गतिपूर्वक लिखा जा सकता है। • इस लिपि के समरत अक्षर सलंग सगानान्तर और अलग-अलग लिखे जाते हैं। * इस लिपि में अनुरवार को अक्षर के ऊपर न लिखकर उसके सामने लिखा जाता है। ब्राही लिपि में भी यही प्रक्रिया अपनाई गई है। * इस लिपि में 'आ, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ' की मात्राएँ अक्षर के आगे या पीछे समानार लगाई जाती हैं। अर्थात् उपरो) मात्राओं में से कोई भी मात्रा अशः ले ऊपर या नीचे नहीं लगती है। * इस लिपि में संयुक्ताक्षर लेखन हेतु अक्षरों को ऊपर-नीचे लिखने की परंपरा मिलती है । अर्थात संयुक्ताक्षर लिखते समय जिस अक्षर को पहले वोला जाये या जिरा अक्षर को आधा करना हो उसे ऊपर तथा बाद में वोले जानेवाले दूसरे अक्षार को उसके नीचे लिखा जाता है। ब्राही लिपि में भी संयुक्ताक्षर लेखन हेतु यही परंपरा मिलती है। प्राचीन नागरी -लिपिबद्ध पाण्डुलिपियों में भी कुछ संयुकावार इसी प्रकार ऊपर से नीचे की ओर लिखे हुए मिलते हैं। : इस लिपि में रेफ सूचक चिह्न उस अक्षर के नीचे से ऊपर की ओर लगाया जाता है। जबकि दीर्घ 'ई' की मात्रा आधुनिक नगरी लिपि में प्रचलित रेफ की तरह लगती है तथा ह्रस्व इ की मात्रा आधुनिक नागरी में प्रचलित दीर्घ 'ई की मात्रा की तरह लगती है। * इस लिपि का ज्ञान हिंदुरतान में प्रचलित अन्य प्राचीन लिपियों को सरलतापूर्वक सीखने-पढने एवं ऐतिहासिक तथ्यों को समझने में अतीव सहायक सिद्ध होता है। * इस लिपि में लिखित ग्रंथसंपदा को शुद्ध पाठ की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि यह लिपि कागज पर लिखने की परंपरा से प्राचीन है तथा इसमें पाठान्तर की संभावना कम रहती है। For Private and Personal Use Only

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