Book Title: Shrutsagar 2014 07 Volume 01 02
Author(s): Kanubhai L Shah
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 33
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 31 जुलाई २०१४ रचना करता त्यारे ज तेओ मुखमां कोइ वस्तु लेता. कहेाय छे के आ नियमने लइने तेणे प्रायः ७०० जेटली स्तुतिओ वगेरेनी रचना करी हती. जिनप्रभरिनी आवी उत्कट प्रभुभक्तिए, फारसी जेवी म्लेच्छभाषाने पण भगवान ऋषभदेवनी स्तुतिद्वारा पवित्र करी तेने जाणे जैनमुनिजना मुखमां प्रवेशवानो, जैन मंदिरोगां बोलवानो, अने जैनग्रंथ भंडारोमां स्थान पामवानो हक्क-परवानो करी आग्यो नहिं तो "न वदेद् यावनी भाषां प्राणैः कंठगतैरपि" आ जातना यापनी भाषा न बोलवा माटे राख्त करी राखेला रूढीपोषक शिष्ट नियमनो भंग करवानो अन्य प्रसंग तो मळवो ज कठिण हतो. खरेखर भाषाविषयक जैन विद्वानोनुं उदार आवरण आखी हिंदुप्रजाने अनुकरण करवा लायक हतुं जेनाचार्योए ब्राह्मणोनी माफक कोईपण भाषानी अवगणना करी नथी तेग ज कोइपण भाषाभाषी मुमुक्षुजनने माटे ज्ञाननां द्वार बंध राख्यां नशी. एल्लुं ज नहिं गण अनेक अति सामान्य भाषाओने पोतानी प्रतिभावाळी कृतिओथी अलंकृत करी, जैनसंतोए उच्च अने प्रगतिशील भाषाओमां स्थान मेळववानी अधिकारिणी बनाची दीधी छे. - वर्तमान आर्यप्रजा हिंदी, गुजराती, मराठी, बंगाळी अन पंजावी वगेरे जे देश भाषाओ द्वारा पोतानो जीवित व्यवहार चलावी रही छे से भाषाओनी मूळ जननी प्राचीन प्राकृतने जो जैन विद्वानोए न पोषी होत तो आजे आपणा निकट-पूर्वजोनी पूज्यवाणीनो भरगावशेष पण आपणे न मेळवी शक्या होत. आपणा पूर्वजोनी मातृभाषाने अगर बनानवानो संपूर्ण श्रेय जैन ग्रंथकारोने ज छे. अस्तु. जेग, प्राचीन वस्तुओंना संग्रह स्थानमा दुर्लभ्य जणाती कोई वस्तु वधारे महत्वनी अने विशेष ध्यान खेचवा लायक होय छे तेम जैन स्तवन, स्तुति, स्तोत्रो, आदिना संग्रहमां आ स्तवन पण वधारे महत्त्वनुं अने विशेष वस्तु जेवुं छे. आ स्तवननुं मूळ पानुं प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजी महाराजना भंडारमांथी मळी आव्युं छे. ए पानुं, जेम एनी अंते लखेलुं छे, पं. लावण्यसमुद्र गणिना शिष्य पं. उदयसमुद्र गणिए लख्ख्युं हतुं पानुं पंचपाटीना रूपमा लखेलुं छे. एटले के बच्चे मूळ स्तवन लखेलुं छे अने आसपास तथा ऊपर नीचे एम चारे बाजुए टीका लखेली छे. For Private and Personal Use Only टीकानी अंते पं. लावण्यसमुद्र गणिनुं ज नाम छे तेथी एम लागे छे के प्रथम मूळ स्तवन पं. लावण्धरामुद्रना शिष्य उदयसमुद्रे लखी लीधुं हतुं अने पछी ते उपर टीका तेमना गुरुए लखी दीधी हती. लख्यानी साल जो के छे नहिं तेथी पं. लावण्यसमुद्रनो समय जाणी शकवानुं वन्धुं नहिं, पण अक्षरानुं वळण अने पानानी स्थिति जोत ते १७मा सैकाथी अर्वाचीन तो नहीं होय तेम लागे छे.

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