Book Title: Shrutsagar 2014 07 Volume 01 02
Author(s): Kanubhai L Shah
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 35
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनप्रभसूरिकृत फारसी भाषामां ऋषभदेव स्तवन अल्लाल्लाहि तुराहं कीम्वरु सहियानु तुं मरा ष्वांद ! दुनीयक समेदानइ घुरमारइ बुध चिरा नह्यं ||१|| संस्कृत व्याख्या : अल्लाला हे पूज्य ! तवाहं कर्मकरः । त्वं च पृथिवीपतिर्मम स्वामी | वसुधालोकान् जानासि । हे देव! चिरा कस्मात् अस्मान्न संभालयसि । यतस्त्वं मेदिनीं सर्वागमि वेत्सि, ततो मां दुःखिनं [ कथं ] न वत्सीत्यर्थः । गाथार्थ :- हे पूज्य ! हुं तारो सेवक नोकर छं अने तुं पृथ्वीपति जेवो मारो स्वागी छे. तुं तो जगत्ना बधा लोकोने जाणे छे-ओळखे छे तो पछी मने शा माटे लांबा समयथी संभारत नथी ? येके दोसि जिहार पंच्य शस ल्ल्य हस्त नो य दह । दानिशमंद हकीकत आकिलु तेयसु तुरा दोस्ती ॥२॥ संस्कृत व्याख्या : एको द्वौ त्रयश्चत्वारः पंच षट् सप्त अष्टौ नव दश वा वे एव नरा गुणिनो मध्यस्थाः साधवो येषां त्वदीया मैत्री । कोऽर्थः एको वा द्वौ वा यावत् दश वा त एव गुणिनो येषां त्वय्यनुरागो नापरे । गाथाद्वयं । गाथार्थ :- जगत्मां, एक वे त्रण वार पांच छ सात आट नव के दश जे कांई तारी साथे मैत्री धरावनारा, नरो छे ते ज गुणवान अने साधु पुरुष छे. आनिमानि खतमथु खुदा बिस्ताव किंचि बिवीनि । माहु रोजु सो जामु मुरा ये कुछ दिलु विनिसीनि ||३|| संस्कृत व्याख्या : हे स्वामिन्! अस्मदीयां भक्तिं किंचित् अल्पमात्रां शृणु आलोकय । विज्ञप्तिको शृणु विनयं च विलोकय इत्यर्थः । मासं दिवसं रात्रिं यामं एकमपि मम दिलु हृदये विनसिनी उपविश इत्यर्थः ।। खतमथुर्भक्तिर्यथा आलोवोमसुआरदुः खतमथुर्भक्तिः सुराद्गायनं नृत्यं स्याद्रकुर्नयश्च हथमु रूढिस्तदा काइदा | अन्यायोपि हरामु सोगतिरथो दिव्यादिका जूमला संघातस्य स यातनिहोरक इति स्याद्विक्रयः व्योध्वनी । । * टीप्पणकारे आ पद्य- कोइ कोश ग्रंथमांथी अहिं आपेलुं छे. आभाना शब्दोनो खयाल बराबर नथी आवतो. पण आ पद्य उपरथी ए वात जणाय छे के आगळना बखतमां फारसी अने संस्कृत एम द्विभाषाकोष आपणा विद्वानोए बनाव्या हता. For Private and Personal Use Only

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