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स्या० १० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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यदपि 'कथं वा न तस्करादिभ्यो वस्त्रादेः संगोपनानुसंधानेन संरक्षणानुबन्धिरौद्रध्यानावकाशः' इत्युक्तम् । तदपि न पेशलम् ; जल-ज्वलन-मलिम्लुच-वापदा-हि-विषकण्टकादिभ्यः संरक्षणानुबन्धस्थ शरीरेऽपि समानत्वात् । 'धर्मनिर्वाहाथैः शरीरसंरक्षणानुबन्धः प्रशस्त' इति चेत् १ इदमन्यत्रापि सुवचम् । तदाह भाष्यकार:-[वि. आ. भाष्य-३०५३ ]
"सारक्खणाणुबंधो रोदज्माणं ति ते मई हुज्जा ।
तुलमिणं देहाइसु पसथमिह तं तहेहात्रि ।। १ ॥* इति । 'रौद्रध्यानं कथं प्रशस्ताऽप्रशस्तभेदेन द्विधा विभज्यते ? इति विमर्शपराहत्तस्त्विह गगनमेवालोकेत । 'संरक्षणानुबन्धे सार्थान्वेषणादिलिङ्गचौरादिभ्यो द्वेषः कथं प्रशस्तः स्यात ?' अयमपि वृथा व्यामोहः, 'हन्मि' इत्यादिसक्लेशप्रधानस्य तस्याऽप्रशस्तस्ये निवृत्त्यादिलिङ्गस्य तस्य प्रशस्तत्वात् , 'असंक्लेशेन चौरादिकं द्वेष्मि' इत्यनुभवात । रागः संक्लेशविशुद्धयङ्गनया द्विविधः, द्वेषस्तु संक्लेशकरूपतयेक एव' इति पुनरज्ञानमूला परिभाषा, मोशेच्छाया रागयोनित्वादिब संसारजिहासाया द्वेषयोनित्वात् । 'स्फटिके तापिच्छकुसुमोपरागस्थानीयस्य द्वेषस्याऽशुभैकरूपत्वाद कथं वैविध्यम् ?' इति चेत ? 'जपाकुसुमोपरागस्थानीयस्य रागस्यापि शुभैकरूपत्वात् कथं वैविध्यम् ?' इति पर्यनुयोगे किमुत्तरम् १ । उपाधिविशेषादुपधेयविशेषवदुद्देश्यादिविशेषात् परिणामविशेषस्तूभयत्र तुल्य इति दिग।।
[संरक्षणानुन्धि रौद्रध्यान को अवकाश नहीं ] दिगम्बर की ओर से जो यह प्रश्न किया गया कि-'साधु यदि वस्त्र आदि रखेगा तो उसे उसकी रक्षा को चिन्ता करनी होगी अतः वस्त्रादि धारण के पक्ष में साधु को वस्त्रादि के संरक्षणार्थ किये जानेवाले प्रयास से रौद्रध्यान का अवसर क्यों नहीं होगा?' यह प्रश्न भी समीचीन नहीं है क्योंकि यह प्रश्न शरीर के सम्बन्ध में भी समान है क्योंकि पानी, आम, दानव, वन्यपशु, सांप, विष, कांटा प्रादि से शरीर की रक्षा का प्रयास दिगम्बर को भी करना पडता है, अतः वस्त्रादि के रक्षण को चिन्ता से मुक्त, किन्तु शरीर के रक्षण को चिन्ता से ग्रस्त, दिगम्बर को भी रौनध्यान से पीड़ित होना अपरिहार्य है। यदि यह कहा जाय कि-'शरीररक्षा का यत्न धर्मनिर्वाहफलक होने से रौबध्यान का आपावक नहीं हो सकता'-तो यह बात वस्त्रावि के सम्बन्ध में मो कही जा सकती है, जैसा कि भाष्यकारने कहा है-“संरक्षण का प्रयास रौद्रध्यान है' यदि दिगम्बर को यह मान्य हो तो यह बात वस्त्रादि के समान शरीर के सम्बन्ध में भी माननी होगी, एवं शरीररक्षा का प्रयास यदि प्रशस्त माना जायमा तो वस्त्रादिरक्षा के प्रयास को भी प्रशस्त मानना उचित होगा।"
* संरक्षणानुबन्धो रौद्रध्यानमिति ते मतिर्भवेत् । तुल्यमिदं देहादिषु प्रशस्तमिह तत् तथेहापि ॥१॥ १. रोद्रध्यानान की उग्रतम कक्षा ।