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स्या. क. टीका-हिन्दीविषेचन ]
[ १७९ त्रैवर्णिकानां कर्तुः स्मरणमस्तीति चेत् ? न, आगमान्तरे व्यभिचारात् । न हि तत्रापि तत्कर्ता न स्मरणयोग्यः, न वा स्मर्यत इति । न चायं नियमः 'अनुष्ठातारोऽभिप्रेतार्थानुष्ठानसमये तत्कतस्मिनुस्मृत्यैव प्रवर्तन्ते' इति । न हि पाणिन्यादिपणीतव्याकरणप्रतिपादितशाब्दव्यवहारानुष्ठानसमये तदनुष्ठातारोऽवश्यं व्याकरणप्रणेतारं पाणिन्याविकमनुस्मृत्यैव प्रवर्तन्त इति दृष्टम् , निश्चिततत्समयानां कर्तस्मरणव्यतिरेकेणाप्यविलम्बितं 'भवति आदिम्मधुशब्दप्रयोगव्यवहारदर्शनात् । अनाप्तोक्तत्वशका च प्राशसंशयपर्यवसायिनी न प्रतिवन्धिका । प्रतिबन्धिका चेत् तदाप्तोक्तत्वज्ञानमात्रं मृग्यम्, न तु तद्विशेषोक्तत्वज्ञानमपीति न किञ्चदेतत् ॥ ४२ ॥ सप्रकार हो सकता है कि यदि वेद का कोई कर्ता होता तो अग्निहोत्र आदि कर्मों के अनुष्ठान में प्रथम होने वाले पुरुषों को उस का स्मरण अवश्य होता। क्योंकि यह नियम है कि जिन कर्मों का फल कर्ता को स्वयं दृष्ट नहीं होता, उन कर्मों में कर्ता की प्रवृत्ति उन कर्मों की कर्तव्यता बताने वाले पुरुष के स्मरण से होती है । जैसे, जिस बालक को जिस कर्म का फल स्वयं शात नहीं होता, फिर भी पिता या गुरु के उपदेश से उस में प्रवृत्त होता है तो प्रवृत्त होने के समय उसे यह स्मरण अवश्य होता है कि पिता ने या गुरुजी ने इस कर्म को करने का उपदेश दिया है। किन्तु वेदार्थ का अनुष्ठान करने वाले विद्वान वणिकों को भी घेद कर्ता का स्मरण नहीं होता है । अतः वेद के कर्ता का अस्तित्व होने पर उक्त रीति से उस के स्मरण का आपादान हो सकने से वेद में स्मरणयोग्य कर्तृकत्व तथा स्मर्यमाणकर्तृकत्वाभाव रहने से उस में उक्त विशिष्ट हेतु विद्यमान है। इसलिए उस हेतु से बेद में अपौरुषेयत्व का अनुमान होने में कोई बाधा नहीं है"
-तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि उक्त हेतु अम्य के आगम में अपौरुषेयत्व का ट्यभि. चारी है। यत: यह बात नहीं है कि अन्य आगम का कर्ता स्मरणयोग्य नहीं है अथवा मस्मर्यमाण नहीं है। अत एवं उस में स्मरण योग्य कर्तृकत्त्य तथा अस्मय॑माण कर्तृकाष दोनों के होने से पवं अपौरुषेयत्व न होने से उस में उक्त हेतु में अपौरुषेयत्व का व्यभिचार स्पष्ट है ।
[ उपदेशकर्ता के स्मरणपूर्वक प्रवृत्ति का नियम असिद्ध ] आगमान्तर में व्यभिचार के अतिरिक्त बेद में उस की स्वरूपासिद्धि भी है क्योंकि जिस रीति से वेद में स्मरणयोग्य फर्तकत्व की उपपत्ति की गयी है उस रीति के निराधार होने से वेद में स्मरणयोग्यकर्तृकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । आशय यह है कि वेद में स्मरणयोग्यकर्तृकत्व की सिद्धि इस नियम के आधार पर की गयी है कि 'कर्मानुष्ठान में प्रवृत्त होने वाले पुरुष कर्मानुष्ठान के उपदेशकर्ता का स्मरण करके ही कर्मानुष्ठान में प्रवन होते हैं।' किन्तु यह नियम असिद्ध है क्योंकि यह नहीं देखा जाता कि पाणिनि आदि द्वारा रचित व्याकरण द्वारा निष्पन्न शब्दों का व्यवहार करने वाले पुरुष उन शब्दों का व्यवहार करने के समय उन शब्दों का अनुशासन करने वाले व्याकरण के रचयिता पाणिनि आदि का स्मरण अवश्य करते हों। अपिसु देखा यह जाता है कि जिन पुरुषों को जिन शब्दों की निष्पत्ति के नियम ज्ञात होते हैं ये उन नियमों के निर्देशकर्ता का स्मरण किए बिना ही 'भवति' आदि साधु शब्दों का प्रयोग बिना विलम्ब करते हैं।