Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 455
________________ [शाखा स्त० ११ / ३९ केवलिनोऽपि = सर्वज्ञस्यापि क्रियातिशययोगे च शैलेशीकरणाख्यव्यापारोत्कर्षे च मुक्तिः, नान्यदा - शैलेश्या अर्वाक् के लित्वेऽपि सति तत् तस्मात् असौ मुक्तिः, तनिबन्धना=क्रियानिमित्तिकैवेत्यर्थः ॥ ३८ ॥ 7 २९४ ] उभयवादिमतमुपन्यस्यन्नाह फलं ज्ञान - क्रियायोगे सर्वमेवोपपद्यते । तयोरपिं च तद्भावः परमार्थेन नान्यथा ॥ ३९ ॥ सर्वमेव फलं - पुरुष थेरवेन व्यवह्रियमाणम् ज्ञानक्रियायोगे - उभयसमुदाय एवं उपपद्यते, विशिष्टफलमधिकृत्य प्रत्येकं देशोपकारितायाः समुदाये संपूर्णतोपपत्तेः; उक्तं च भाष्यकृता [ ] "वीण सन्वयि सिकता तेल व साहणाभावो । देसोबगारिया जा सा समवायम्मि संपूण्णा ॥ १ ॥ " अथ संपूर्णता फलोपहितहेतुत्वं देशोपकारिता च हेतुत्वमात्रम्, तच न पृथग्-ज्ञानक्रिमयोः परस्परमुक्तदोषात् तथा च कथं समवाये पूर्णता ? इति चेत् ? न, प्रत्येकमपि ज्ञान-क्रिययोद्वयोरस्वय—व्यतिरेकानुविधानाऽविशेषेण हेतुत्वात् असम्यग्ज्ञाने फलव्यभिचारस्य चाऽसम्यक 3 } बाद ही होती है उससे पूर्व नहीं होती । अतः क्रिया ही मुक्ति का साक्षात् कारण है न कि शान मात्र || ३८ | (क्रियावादी पक्ष समाप्त ) [ ज्ञान - क्रिया समुच्चय मुक्तिहेतु उभयवादीमत ] ३९ व कारिका में शान-क्रिया उभयवादी का मत उपन्यस्त किया गया है | कारिका का अर्थं इस प्रकार है पुरुषार्थ शब्द से व्यवहृत होने वाला सम्पूर्ण फल ज्ञान और क्रिया दोनों के योग से प्राप्त होता है, क्यों कि विशिष्ट फल की सिद्धि में ज्ञान और क्रिया प्रत्येक में आंशिक उपकारकता है। और दोनों के समुदाय में सम्पूर्ण उपकारकता है। भाग्यकार ने भी कहा है कि जिस प्रकार सिकता बालू में तेल का सर्वथा अभाव होता है उस प्रकार शानक्रिया प्रत्येक में मुक्तिसाधनता का सर्वथा अभाव नहीं है । किन्तु प्रत्येक में मुक्ति की आंशिक साधनता है जो ज्ञान-क्रिया दोनों के समुदाय में सम्पूर्ण होती है । यदि यह शङ्का की जाय कि सम्पूर्णता का अर्थ है फलोपघायकता रूप हेतुता और देशो पकारिता यानी आंशिक उपकारिता का अर्थ है केवल हेतुता, और वह अलग-अलग ज्ञान और क्रिया में नहीं है। क्योंकि ज्ञान किया दोनों को स्वतन्त्ररूप से कारण मानने में दोप बताया जा चुका है, तो फिर जब पृथक् प्रत्येक में हेतुता नहीं है तो दोनों के समवाय में उसकी पूर्णता कैसे हो सकती है ?' तो यह ठीक नहीं है, क्यों कि प्रत्येक ज्ञान किया दोनों में फ्ल के अन्वयव्यतिरेक के अनुविधान में साम्य होने से दोनों में से प्रत्येक में हेतुता सिद्ध है । यदि यह कहा जाय कि असम्यक ज्ञान में फल का व्यभिचार होने से ज्ञान को हेतु मानना सम्भव नहीं है' तो यह बात असम्यक् क्रिया में भी समान है। और यदि यह कहा जाय कि ' फल को उत्पन्न न करने वाला ज्ञान वास्तविक ज्ञान ही नहीं है तो यह भी कहा जा सकता है कि ' फल को न उत्पन्न करने वाली क्रिया भी वास्तव अर्थ में किया ही नहीं है । यह अभिप्राय कारिका के उत्तरार्ध में प्रकट किया गया है । *

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