Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 466
________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] परमानन्द भावश्वप्रकृष्टस्वास्थ्यलक्षण: तदभावे - निःशेषदुःखाभावे, शाश्वतः = अप्रतिपाती, व्यावाधाभावमं सिद्धः = काम-क्रोध- शीतोष्ण-क्षुत्-पिपासादिव्याकुलतानिवृत्त्युपजातः सिद्धानां सुखमुच्यते । न च तत्र सुखाभावः, विपयसंनिकर्षादिवद् व्याबाधामावस्यापि सुखविशेषहेतुत्वात् काम-क्रोधाद्यभावेऽपि योगिनां सुखसाक्षात्कारसाम्राज्यात् । न च तत्र दुःखाभाव एवं सुखाभिमानः शमादितारतम्येन ततारतम्यानुभवात् । न चाभिमानिकमेव तत् सुखं न मुक्तावनुवर्तितुमुःसहत इति वाच्यम् चुम्बनादिजनिनस येतात जतिरहे तदभिव्यवतेश्च । नापि मानोरधिकत्वादेव तस्य मुक्तावननुवृत्तिः, संहृतसकलविकल्पानामपि तदनुभवात् । वैषयिकत्वं तत्राऽसंभवदुक्तिकमेव, खगादिविषयाणां तदाऽसंविधानात् । नाप्याभा(? भ्या) सिकत्वादेव तस्य मुक्तावननुवृत्तिः । न ह्यनभ्यस्तयोगानां शमसुखसंभवः । न चाभ्यासोऽसकृत्प्रवृद्धिलक्षणो मुक्तौ संभवतीति वाच्यम्, अभ्यासस्य तत्त्वज्ञान इव निरुपमसुखेऽपि प्रतिबन्धकनिवर्तकत येवोपयोगित्वात्, , [ ३०५ हि=निश्चितम् निःशेष दुःखों का अभाव हो जाने पर मनुष्य को प्रकृष्ट स्वास्थ्य स्वरूप परमानन्द प्राप्त होता है । यह परमान्द शाश्वत है, इसकी निवृत्ति कभी नहीं होती और यह काम, कोध, शीत, उष्ण, भूख प्यास आदि की व्याकुलता की निवृत्ति से उत्पन्न होता है । इसे ही सिद्ध आत्माओं का सुख कहा जाता है। मुक्ति में सुख का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि अमुक्तदशा में जैसे विषयेन्द्रियसन्निकर्ष आदि सुख का कारण होता है वैसे ही मुक्तावस्था में काम, कोच आदि बाधाओं का अभाव भी सुख का विशेष हेतु होता है। क्योंकि यह निर्विवाद है कि काम, क्रोध आदि से मुक्त योगियों को सुख के लाक्षात्कार का साम्राज्य प्राप्त होता है । यह नहीं कहा जा सकता कि योगियों को दुःखाभाव में ही सुख का अभिमान होता है' क्योंकि शम-दम आदि के तारतम्य - उत्कर्षक्रम से सुख का तारतम्य - सुख का उत्कर्ष अनुभवसिद्ध है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि ' योगियों को अभिमानिक ही सुख का अनुभव होता है | अतः मुक्ति में उसका अनुवर्तन नहीं हो सकता। क्योंकि योगियों के सुख में चुम्बन आदि से उत्पन्न सुख की अपेक्षा वैलक्षण्य का अनुभव होता है; पत्रं अभिमान का अभाव हो जाने पर ही योगियों को सुख की अभिव्यक्ति होती है। अतः योगि सुख अभिमानिक न होने से मुक्ति में उसकी अनुवृत्ति निर्वाध है । यह भी नहीं कहा जा मकता है कि-' योगी का सुख मनोरयमात्र मूलक है। अतः मुक्ति में उसकी अनुवृत्ति नहीं हो सकती ।' क्योंकि जिन के सम्पूर्ण विकल्पों की समस्त मनोरथों की निवृत्ति हो जाती है। उन्हें भी उस सुख का अनुभव होता है। योगी के सुख को मिलक सुख भी नहीं कहा जा लकता, क्योंकि योगावस्था में योगी को माला आदि विषयों का सनिधान नहीं होता । यह भी नहीं कहा जा सकता कि " योगी का सुख अभ्यासमात्र मूलक होता है । इल लिए मुक्ति में उसकी अनुवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जो योग में अभ्यस्त नहीं होते उन्हें रामजन्य सुख नहीं होता, और अभ्यास पुनः पुनः प्रवृत्ति रूप होने से मुक्ति में उसका सम्भव नहीं है, " क्योंकि अभ्यास जैसे तत्वज्ञान में बाधक तत्त्वनिराकरण करने द्वारा उपयोगी होता है, उसी प्रकार निरुपम सुख में भी वह प्रतिबन्धक का निवर्तक होने से ही उपयोगी है। हेतु तो वस्तुतः प्रतिबन्धक का अभाव ही है । प्रतिबन्धक भी काम, कोव मादि घ्यावा ३९

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