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न च
स्वप्रयोज्यातिशयितचारित्रसंबन्धेन च ज्ञानादेरपि स्वेतरसकलकारणसमवधानव्याप्यसमवधानकत्वं निर्वाधमिति वाच्यम् स्वतस्तथात्वस्य विशेषार्थत्वात् इत्यमिमन्यते, तदा 'ज्ञानमेव विशिष्यते, तादृशक्रियाजनकत्वात् । न च स्वापेक्षया तस्यातिशयोऽस्तु न तु स्वकार्यापेक्षयेति वाच्यम्, "दासेण मे "० इत्यादिन्यायाद स्वकार्यस्यापि स्वकार्यत्वाऽविशेषात् कार्यद्वैविध्येन तस्य द्विधातिशयात् स्वकार्यनिष्ठातिशयस्य परम्परया स्वनिष्ठत्वाच्च । यथा हि मृत्तिकाऽपान्तरालवर्तिपिण्डादिकार्य जनयन्ती घटं प्रति न मुख्यतां जहाति तथा ज्ञानमप्यान्तरालिक संवरं जनयद् न मोक्षं प्रति तथा इति ज्ञाननयस्मयप्रसरोऽपि कथं निवारणीयः ? ! तस्मात् तुल्यवत्समुच्चयेनैव ज्ञान-क्रिये आदरणीये इति । अधिकं परीक्षायाम् || ४८|| तदेवमुपदर्शितं शास्त्रसम्यक्त्वम् ||
स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसंबन्धेन
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दण्डादेरपि
अथ प्राग् वक्ष्यमाणत्वेन प्रतिज्ञातमुक्तेर्मृत्यादिवर्जितत्वमुपपादयतिमृत्यादिवर्जिता चेह मुक्ति: कर्मपरिक्षयात् । नाकर्मणः क्वचिञ्जन्म यथोक्तं पूर्ववरिभिः ||४९||
तो इसके सामने यह भी माना जा सकता है कि ऐसी स्थिति में षष्टगुण स्थान में क्रिया का जनक होने से चतुर्थगुण स्थानीय ज्ञान एवं चतुर्दशगुण स्थानीय परमचारित्र कर जनक होने से त्रयोदशगुण स्थानीय केवलज्ञान ही उक्त क्रियाओं की अपेक्षा विशिष्ट है। क्योंकि यह ज्ञान यथोक्त समवधानवाली क्रिया का उत्पादक है। यदि यह कहा जाय कि ज्ञान में क्रिया की अपेक्षा जो वैशिष्ट्य अतिशय दिखाया वह रूप की अपेक्षा यानी साक्षात् नहीं है किन्तु स्वजन्य क्रिया पर अवलस्थित है । जब कि किया में स्व की अपेक्षा अतिशय रहता है और वही है।' तो यह ठीक नहीं क्योंकि- 'अपने गुलाम से खरिदा हुआ गर्दभ अपना ही होता है। इस रीति से ज्ञानजन्य क्रिया से उत्पन्न कार्य भी ज्ञान का ही कार्य निर्वाधरूप से माना जा सकता है, क्योंकि ज्ञान के दो कार्य हुए, इसलिये उसमें अतिशय भी दो प्रकार का रहेगा और ज्ञान के कार्य में रहा हुआ भी आखिर परम्परा से ज्ञान का ही मानना होगा । जैसे मृत्तिका, घट के पूर्व पिण्ड आदि अवान्तर कार्यों का जनक होने पर भी घट के प्रति अपनी मुख्य कारणता का परित्याग नहीं करती, उसी प्रकार ज्ञान मोक्ष के पूर्व नंबर का जनक होने पर भी मोक्ष के प्रति अपनी मुख्यता का परित्याग नहीं करता । इस प्रकार क्रियायादी के सामने ज्ञान को मोक्ष का मुख्य हेतु मानने का ज्ञान नयवादी के अभिमान का भी निवारण नहीं किया जा सकता । अतः ज्ञान नयवादी और क्रिया नयवादी दोनों का मोक्ष के प्रति ज्ञान की मुख्य हेतुता एवं क्रिया की मुख्य हेतुता के प्रतिपादन संगत करने के लिए यही उचित है कि ज्ञान और क्रिया के समुच्चय को मोक्ष का हेतु माना जाय । इस विषय में इससे अधिक ज्ञातथ्य का अवलोकन अध्यात्ममत परीक्षा ग्रन्थ में करना चाहिए। उत्तरीति से शास्त्र के सम्यक्त्व का प्रदर्शन सम्पन्न समझना चाहिए || १८ || | समुच्चयवाद समाप्त ]
मोक्ष मृत्यु आदि से रहित उपन्यस्त किया गया है । अर्थ इस
[कर्म विना जन्मादि नहीं होते ]
होता है, इस पूर्व प्रतिज्ञात अर्थ को ४९ श्री कारिका में प्रकार है