Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 484
________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] संपादकतया परम्परया मोक्षाङ्गता करप्यते, तदा स्त्रीत्वेनापि पृथगेषा कल्पनीया, गुरुणाप्यक्तीबरवेन वा; लायवमात्रेणागमस्यापवदितुमशक्यत्वात् , परस्यापि स्त्री-क्लीबमोहम्योः कारणविघटक त्वबल एने गौरवसाम्याच्च । न च पुरुषानभिवन्धत्वात् स्त्रीणां न मुक्ति रित्यभिधानीयम् : असिन्द:, भगबज्जनन्यादीन जगद्वन्धविश्रवणात् , आचार्यानभिवन्द्यत्वेन शिष्ये, साधुमात्राशिव द्यत्वेन शो चा व्यभिचारात् , पुरुपानाभवन्द्यत्वस्य मुक्तिवाप्यविन्धवत्वेनाऽप्रयोजकत्वाच । यदि च तदनभिवन्द्यत्वेन तदपेक्षयानुतमगुणत्वाद् न स्त्रीणां मुक्तिरिती यते, तदा तीर्थकृद गुणापेक्षया गणरादेरप्यनुमत्याद् मुक्तिप्रातिर्न भवेत् | अथाऽशेषकर्मक्षयनिबन्धनस्थाध्यवसायस्य गणधरादिपु तीर्थकृदपेक्षया तुरुवत्यादयमदोपः, तदा समानमेतदार्यकास्वपि । यदि च तीर्थस्य भगवदर्भिवन्धत्वात् प्रथमगणधरस्थापि तीर्थशन्दाभिधेयत्वेन भव्यत्वरूप से स्वरूप योग्यता में कोई भापत्ति नहीं है। क्योंकि कभी यदि किसी भत्र्य को मोक्ष की प्राप्ति में बिटम्य होता हैं तो यह उसकी अयोग्यता के कारण नहीं होता, अपितु मोक्ष के इतर कारण के समयधान में दिलम्ब होने के नाते होता है। यदि स्त्री-मोक्ष के विरोधी वर्ग, इस सन्दर्भ में यह कह दि. मनुष्य के समान पुंस्त्व भी शानादि का प्रयोजक होने से परम्पस्या मोक्ष का प्रयोजक है अतः जैसे मोक्ष के उपायभूत शान की प्राप्ति के लिए मनुष्य होना आवश्यक है उसी प्रकार पुरुष होना भी आवश्यक है अत: स्त्री का मोक्ष नहीं हो सकता |' -तो इसके विरोध में बीमोक्षवादी यह कहेगा कि जैसे पुंस्त्वज्ञानप्राप्ति का प्रयोगक है उमी प्रकार स्वतन्त्ररूप से स्त्रीत्र भी शानप्राप्ति का प्रयोजक है । अथवा पुंस्त्र और स्वीत्व को प्रयोजक न मान कर गुरुभून भी किटवभिन्नन्ध को दी ज्ञान प्राप्ति का प्रयाजक मानना उचित है । कबल पुस्त्य को ज्ञानप्राप्ति का प्रयोजक मानने में लाघव होने के आधार पर स्त्रीमोक्ष के प्रतिपादक आगम को याधित करना अशक्य है । इस प्रसङ्ग में फिलवभिन्नत्य को शानप्रापित अथवा मोक्षप्राप्ति के प्रति प्रयोजक मानन में श्रीमोक्ष विरोधियों की ओर से गौरव बताया जाता है, उसका भी कोई औचित्य नहीं है क्योंकि शीमोक्ष विरोधियों को भी स्त्री और फ्लिब में मोक्षप्राप्ति के विघटन के प्रयोजक की कल्पना करने में गौरव अपरिहार्य है, क्योंकि नीत्व-बिलबत्व अन्यतररूप से मोशकारणविघटकत्व मानना पडेगा। [ पुरुप से अनभिवन्धत्व का निरसन ] इस सन्दर्भ में यह भी कहना कि-बियां पुरुषों की अभिवन्दनीय नहीं होती, अतः उनका मोक्ष नहीं होता'- ठीक नहीं है । क्योंकि त्रियों का पुरुषों से अभिवादनीय में होना असिद्ध है । यतः ऐसा सुना जाता है कि भगवान अर्हन् की माता आदि समृच जगत के लिये वन्दनीय है । आचार्यद्वाग अभियन्दनीग न होने, किंवा साधु मात्र द्वारा अभियन्दनीय न होने मात्र से भी स्त्री के मोनाभाय का साधन नहीं हो सकता क्योंकि पहाया हेनु शिष्य में और दूसरा हेतु साधुभात्र की शिक्षा ग्रहण करने वाले नूतन दीक्षितव्यक्ति में मोक्ष का ध्याभचारी है, क्योंकि वे दोनों भी जान चारित्र आदि का प्रकप प्राप्त होने पर मोक्ष भ करते हैं किंतु आचार्यादि के लिये वन्ध नहीं होते । मुख्य बात तो यह है कि पुरुप द्वारा अभिवन्द

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