Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 468
________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] [ ३०७ तथा जानन्नपि हि सिद्धसुखमहिमानमसद्भिरुपमानैः केवल्यपि नोपमातुमीप्टे । इति कथमित्र परेषामदोवाचां गोचरः ! इति स्मर्तव्यम् ॥ ५३ ।। ___ भूयोऽपि परममङ्गलमूतममीप लक्षणमभिष्टौतिअमूर्ताः सर्वभावशास्त्रलोक्योपरिवर्तिनः । क्षीणपङ्गा महात्मानस्ते सदा सुखमासते ।।४।। अमूर्ताः नाम-गोत्रकर्मक्षयाद रूपादिसंनिवेशमयमू तिरहिताः, सर्वभावज्ञाः निरावरणज्ञस्वभावतया सकलपदार्थज्ञातारः, तथा, त्रैलोक्योपरिवर्तिनः ऊर्ध्वगतिस्वभावत्वेन परतो धर्मास्तिकायाद्यनुपमहेण च लोकान्तस्थाः “अलोएपरिहया सिद्धा लोगगम्मि पइदिटया' इत्यागमात् : तथा क्षीणसङ्गाः क्षीणाशेषकर्माणः, अतः एव महात्मानः अष्टगुणयोगिस्वेन सर्वथा शुद्धात्मानः, अबोचाम च-" सम्वहा परमप्पत्तं सिद्धाणं चेव संसिद्धं" । ते-सिद्धाः सदा-निरन्तरम् , सुख एकरूपतयैवाऽव्याकुलम् आसते अवतिष्ठन्ते ।। ते च सिद्धास्तीर्थादिभेदात् सूत्रे पञ्चदशविधाः प्रज्ञप्ताः, तथा च प्रज्ञापनासूत्रम्--"अणन्तरसिद्ध असंसारसमावण्णगजीवपण्णवणा पन्नरसविहा पण्णता तं जहा-तित्थसिद्धा, अतित्थसिद्धा, तित्थगरसिद्धा, अतित्थगरसिद्धा, सयंबुद्धसिद्धा, पत्तेयबुद्धांसद्धा,बुद्धचोहिअसिद्धा, इथीलिङ्गसिद्धा, पुरिसलिङ्ग. सिद्धा, णपुंसगलिशसिद्धा, सलिनसिद्धा अणलिङ्गसिद्धा, गिहिलिक सिद्धा, एगसिद्धा, अणेगसिद्धा" नहीं देख पाता तो वह स्वयं जानता हुआ भी उसका वर्णन करने में समर्थ नहीं; उसी प्रकार सिद्ध सुख की महिमा को जानने वाले केवलशानी सर्वज्ञ भी कोई उपमान न होने से किसी के साथ उसकी उपमा नहीं कर सकतं । यह स्मरणीय है कि सिद्ध सुख पसे लोगों के आग जिन्हें उस असायोगिक सुख का अनुभव नहीं है कैसे वर्णित किया जा सकता है ? ।। ५३॥ ५४ वीं कारिका में सिद्धों के परममङ्गलभूत स्वरूप की पुनः स्तुति की गयी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है । जो पुरुष नाम-गोत्र-कर्म की निवृत्ति होने से रूप आदि के संयोगमय शरीर से रहित होते हैं और वे निराकरण हो शानस्वभावत्राले होने से सम्पूर्ण वस्तुओं के माता होते हैं नशा अर्धगति-स्वभाव होने से पयं आगे गतिप्रयोजक धर्मास्तिकाय का सहकार न रहने से, 'अलोक से प्रतिहत होकर सिद्धात्मा लोक के अग्रभाग में प्रतिष्टित होते हैं: इस आगम के अनुसार लोकान्त में अवस्थित होते हैं। और निःशेप कर्मों के क्षय हो जाने से अष्टगुण युक्त हो पूर्णरूप से शुद्धामा होते हैं । और जिनमें पूर्ण रूप से परमात्मरूपता की सिद्धि बतायी गयी है वे सब सिद्ध हमेशा एकरूप होने से निरन्तर अध्याकुलभाव से सुखपूर्वक विराजमान होते हैं। [सिद्धात्माओं के १५ भेद ] सूत्र में पैसे सिद्धों के तीर्थ सिद्धादि पन्द्रह भेद बताए गये हैं । जैसा कि श्री प्रज्ञापना' स्त्र में कहा गया है कि जो असंसारभावापन्न अनन्तर यानी प्रथम समयोत्पन्न सिद्ध जीव है उनकी प्रशापना पन्द्रह भेदवाली है, जैसे-तीर्थसिद्ध, मतीर्थसिद्ध, तीर्थकरसिद्ध, अतीर्थकरसिद्ध,

Loading...

Page Navigation
1 ... 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497