Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 477
________________ ३१६] शाखषार्ता. स्त० ११/५४ __ अथाणुगतधारिणी श्राविकापि साध्वी' इत्येवं व्यपदिश्यत इति न दोष इति चेत् ! हन्त ! तर्हि केवल सम्यक्त्वधारिण्येव श्राविकाव्यपदेशमासादयेत् , एवं च श्रावकेपि तथा द्वैविध्यप्रसङ्गेन पञ्चविधः संघः प्रसन्येत । अथ वेषधारिणी श्राविका ‘साध्वी' इति व्यपदिश्यते, श्रावकस्तु तथाभूतस्तत्त्वतो यतिरेवेति चातुर्विध व्यवतिष्ठत इति चेत् ? नून गुणं विना वेषधारणे विडम्वकचेप्दैव सा । एतेन ' एकोनषष्टिरेव जीबा यथा त्रिप्टिशलाका पुरुषा व्यपदिश्यते तथा त्रिविंधोऽपि संघो विवक्षावशाच्चतुर्विधो व्यपदिश्यते' इति निरस्तम् , विवक्षावीजाभावात् । स्यादेतत्संभवतु नाम चारित्रलेशः स्त्रीणाम् ग्रहलादिमाः सावीत्र्यपदेशमासादयेयुः, न तु मोक्षहेतुस्तस्यकोंऽपि तासु संभवी । मेवम् , स्त्रीत्वेन समं सायकवस्त्र वि.सिद्धेः, तप शैलेश्यबस्न्यापरम [ संघ की चतुर्विधता के उच्छेद की आपत्ति अपरिहार्य] यह भी नहीं कहा जा सकता कि-अणुव्रत के धारण करने वाली श्राधिका भी माध्वी कही जाती है. अतः साध्वी के रूप से उसका ग्रहण करने पर चानुवर्णमध की व्य संघ की व्यवस्था नए होने का दोष नहीं हो सकता। -क्योंकि इस प्रकार विचार करने पर यह भी स्थिति उत्पन्न हो सकती है कि केवल सम्यकत्र को धारण करने वाली स्त्री ही श्राविका कही जाय, और इमी प्रकार ( श्राविका के समान) श्रायक्रों में भी अणुव्रतधारी एवं कंवल सम्यकाव धारी रूप से वैविध्य हो जाने से चतुर्विधमंघ के स्थान में पञ्चविध संघ की प्रसक्ति हो जायेगी। इस प्रसङ्ग में यदि यह कहा जाय कि - " साध्यी जसा घेष धारण करने वाली श्राविका ही साध्वी है, और श्रावक यदि माधु वेषधारी हो तो यह यति-साधुवर्ग में समाविष्ट होगा, अतः श्रावक में द्वविध्य न होने से सब के चतुर्विध होने की व्यवस्था अनुगण रह सकती है," -तो इस कथन के सम्बन्ध में यही कहना पर्याप्त है कि गुण के विना केवल वेष धारण करना विडम्बनाकारी की चेष्टा मात्र है । अतः वेषधारण मात्र से न कोई श्राविका साध्वी कही जा सकती है और न श्रावक 'यनि-साधु ही कहा जा सकता है। इस सन्दर्भ में क्षपणको की ओर से जो यह कहा जाता है फि- “एक कम माठ ही जीव जैसे विवक्षा से शलाकापुरुष की गिनती में तीन सहित साठ शलाका पुरुष कहे जाते हैं उसी प्रकार साधु, धावक और श्राविका यह विविध सच ही विणक्षा से चतुर्विध कहा जाता है। अतः धास्तव अर्थ में साध्वी का अस्तित्व न मानने पर संघ के चातुविंध्य की हानि किंवा उक्तरूप से श्राविका और श्रावक में वैविध्य होने से संघ के पञ्चविधत्व की आपत्ति का उभावन नहीं हो सकता,-" वह निरस्त हो जाता है, क्योंकि त्रिविध संघ की चतुर्विध रूप में विवक्षा का कोई बीज नहीं है। [स्त्रीत्व चारित्रोत्कर्ष का विरोधी नहीं] यदि यह कहा जाय कि- 'स्त्रियों में चारित्र के मर्वथा अभाव की सिद्धि दुःशक होने से यदि उनमें चारित्र माना भी जाय तो यह स्वल्प मात्रा में ही मान्य होगा । जिसके आधार पर उन्हें साध्वी कहना सम्भव हो सकेगा; किन्तु मोक्ष के लिए मिस उत्कृष्ट चरित्र की अपेक्षा है वह खो में न होने से स्त्रो का मोक्ष नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि खोस्य के साथ चारित्र के उत्कर्ष का विरोध अप्तिद्ध है, क्योंकि चारित्र का उत्कर्ष शैलेशी अवस्था के मन्तिम समय में होने से यह रन नहीं होता, जिससे स्त्रीत्व के साथ उसके विरोध की सिद्धि

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