Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 469
________________ ३०८ ] शाखवार्ता० स्त० ११/५४ इति । तत्र (१) तीर्थे चतुर्वर्णश्रमणसंघरूपे प्रथमगणधररूपे वोत्पन्ने सति सिद्धास्तीर्थसिद्धाः । (२) तीर्थस्याभावेऽनुत्पत्तिलक्षणे आन्तरालिकव्यवच्छेदलक्षणे वा सति सिद्धा अतीर्थसिद्धा मरुदेव्यादयः, सुविधिस्वाम्याद्यपान्तराले विरज्याप्तमहोदयाश्च । (३) तीर्थकरा अवाप्तजिननामोदयार्जितसमृद्धयः सन्तः सिद्धास्तीर्थकरसिद्धाः । (४) अतीर्थकरा: सामान्यकेवलिनः सन्तः सिद्धा अतीर्थकरसिद्धाः । (५) स्वयमेव बाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव निजजातिस्मरणादिना बुद्धा सन्तः सिद्धाः स्वयंबुद्धसिद्धाः, ते च तीर्थकरा-उतीर्थकरभेदेन द्विविधाः, इह चातीर्थकरैरधिकारः (६) प्रत्येकं बाह्य बृषभादिकारणमभिसमीक्ष्य बुद्धा: सन्तः सिद्धाः प्रत्येकबुद्धसिद्धाः (७) बुद्धगर्वादिमियोंधिता: सन्तः सिद्धा बुद्धबोधितसिद्धाः । (८) स्त्रिया लिङ्ग स्त्रीलिङ्गं स्त्रीत्वस्योपलक्षणमित्यर्थः, तच विधा-घेदः, शरीरनिवृतिः, नेपथ्यं चेति । इह च शरीरनिर्वत्यैवाधिकारो न वेद-नेपथ्याभ्याम्; तयोर्मोक्षानत्वात् । ततस्तस्मिलिले वर्तमानाः सन्तः सिद्धाः स्त्रीलिङ्गसिद्धाः । आह च नन्धध्ययनचूर्णिकृत " इत्याए लिहं इस्थिलिङ्गं, इयाए उवलक्षणं ति बुतं हवह । तं च तिविह-वेदो, सरीरं, णेवस्थं च । इह सरीरणिवत्तीए अहिगारो, ण वेअ-णेवत्थेहि " । (१) तथा, पुलिन्ने पुशरीरनिर्वतिरूप व्यवस्थिताः स्वयंशुद्ध सिद्ध, प्रत्येकबुद्ध सिद्ध, बुद्धबोधितलिशा, स्त्रीलिङ्गमिद्ध, पुरुषलिङ्गसिद्ध, नपुसकलिङ्गसिद्ध, स्थलिङ्गसिद्ध, अन्य लिन सिह, गृहिलिङ्गसिद्ध, एकसिन्द्र और अनेकसिन । (२) तीर्थ' का अर्थ है श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका (1) चारों का संघ अथवा (२) प्रथम गणधर, उनकी स्थापना के बाद सिद्ध होने वाले तीर्थसिद्ध कहे जाते हैं स्थापना के पहले अथवा उसका विच्छेद होने के बाद नूतनतीर्थ स्थापना न होने तक के काल में जो सिद्ध हुऐ चे अतीर्थसिद्ध होते हैं, जैसे कि, तीर्थस्थापना के पूर्व सिद्ध मरूदेधी माता आदि, तथा जो सुविधिनाथ और शीतलस्वामी आदि के अपान्तगल में तीर्थनाश के बाद विरक्त होकर महोदय मोक्ष प्राप्त करते हैं। (३) जो तीर्थकर होते हैं और जिन्हें 'जिन' नाम कई के उदय से अस्ति अष्टप्रतिहार्यादि समृद्धियाँ प्राप्त होती हैं ऐसे सिद्ध होने वालों को तीर्थकर सिद्ध कहा जाता है । (४) जो तीर्थकर नहीं होते किन्तु सामान्य केली हुए सिद्ध होते हैं ऐसे तीथमिझों को अतीर्थकर सिद्ध कहा जाता है। (4) जो बाबकारण के विना स्वयं ही जातिस्मरण आदि ज्ञान से बोध सम्पन्न होकर सिद्धि में जाते है ऐसे सिद्धी की म्नमवुव मिद का जाना है। समयबुद्ध सिद्ध दो प्रकार के होते है, तीर्थकर और अतीधकर। प्रकृत भेद में अतीर्थकर सिद्ध ग्राह्य है । (६) वृषभ आदि बाय प्रत्येक कारण के अभियीक्षण से जो बोध सम्पन्न हो कर सिद्ध होते हैं उन्हें प्रत्येक सिद्ध कहा जाता है । (७) खुदत्व को प्राप्त गुरु आदि मे बोध प्राम कर के सिद्ध होने वालों को बुद्विघोधित सिद्ध कहा जाता है। (८) स्त्रीलिङ्ग का अश्श है, स्त्रीत्व का शापक। इसके तीन भेद है-वेद, शरीर की निधृत्ति-रचना और नेपथ्य-परिधान । प्रकृत में शरीर निषेत्ति मात्र से ही अभिप्राय है, वेद और नेपथ्य से नहीं। क्यों कि वे दोनों मोक्ष के अङ्ग नहीं है। शरीर की नित्ति रूप स्रोलिङ्ग में रहते हुए जो सिद्ध होते हैं उन सिखों को खीलिङ्ग सिद्ध कहा जाता है। नदी अध्ययन ऋणिकार ने कहा भी है, स्त्रीलिङ्ग का अर्थ है खी का लिङ्ग-स्त्रीत्व का ज्ञापक चिड़। वह विविध है-धेद, शरीर और परिधान 1 मोक्ष के सन्दर्भ में यहाँ शरीर ही या है,

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