Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 457
________________ [ शासवा० स्त० ११/४४ त्वात् ; साध्यानारम्भिणश्च-व्यर्थकालक्षपणकृतः ततएवः इति हेतोः द्वयम् ज्ञानक्रियोभयम् अन्योन्य संगतम् इतरेतरनान्तरीयकं निश्चयतः ।। ४२ ।। अन्योन्यसंगतिसमर्थकमेव वृद्धव्यपदेशमाह-- अत एवागमनस्य या क्रिया सा क्रियोच्यते । आगमशोऽपि यस्तस्यां यथाशक्ति प्रवर्तते ॥४३॥ अत एव-ज्ञानक्रिययोमिथोऽनुविद्धत्वादेव--आगमज्ञस्य पुंसः या क्रिया सा परमार्थेन क्रियोच्यते, आगमज्ञोऽपि स उच्यते अस्तस्य कथायाम् यथाशक्तिः-स्वसामानुपं वर्तते । अत एवाऽगीतार्थानां स्वच्छन्दविहारिणां मासक्षपणादिकामपि न क्रियामामनन्ति श्रुतवृद्धाः, न वा भग्नचारित्राणां पूर्वपर्यन्तमपि ज्ञानमामनन्ति “णिच्छयणयस्स चरणस्सुवघाए नाण--दसणबहोवि" [ ] इति वचनादिति द्रष्टव्यम् ।। ४३ ॥ उक्तमेव दृष्टान्तेन भावयन्नाहचिन्तामणिस्वरूपज्ञो दौगत्योपहतो नहि । तत्प्राप्त्युपायवैचित्र्ये मुक्त्वान्यत्र प्रवर्तते ॥४४॥ चिन्तामणिर्दारिद्यनाशनो रत्नविशेषस्तत्स्वरूपज्ञः-परमार्थेन तत्स्वरूपज्ञाता दारिधोपहतः सन् तत्प्राप्त्युपायवैचित्र्ये-तल्लाभोपायनानात्वे सति, स्वकृतिसाध्यतासूचनाय वैचित्र्योपादानम् ; नहि असाध्य-(यानी फल से अनुपहित )क्रिया का आरम्भ करने वाले मनुष्य का शान, उक्त कारण से फलानुपहित में हेतुत्य का अभाव होने से वास्तविक दृष्टि से कदापि सम्यक् शान नहीं होता । क्योंकि वह फलोपहित प्रवृत्ति का प्रयोजक नहीं है । और इसी प्रकार साध्य( यानी फल्लोपहित )क्रिया का जो आरम्भ नहीं करता वह व्यर्थ ही कालयापन करता है, उसकी क्रिया भी फलोपचापक न होने से सम्यक क्रिया नहीं होती। इसलिए शान और क्रिया दोनों की ही परस्परमति होती है। निश्चित है की वे एक दूसरे के बिना फलोपधायक नहीं होते ॥ ४२ ॥ ४३वीं कारिका में ज्ञान-क्रिया की परस्पर संगति के समर्थन में वृद्ध श्चन को उपन्यस्त किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है [ज्ञानक्रिया की अन्योन्यसंगति फलसाधक] ज्ञान और क्रिया के परस्परांपेक्षा होने से ही आगमक्ष पुरुष की क्रिया को वास्तविक अर्थ में क्रिया कही जाती है और आममन्न भी उसे ही कही जाती है जो क्रिया में अपने सामयं के अनुसार प्रवृत्त होता है। इसीलिए जो साध अगीतार्थ और स्वच्छन्द्र छन्द रूप से आचरण करने वाले होते हैं उनकी मास पर्यन्त होने वाली उपवास आदि तपश्चर्या को भी आगमन पुरुष क्रिया नहीं मानते । और-जिन साधुओं का चारित्र भग्न हो जाता है उनके नौ नौ पूर्व तक के शान को भी शाम नहीं मानते । क्योंकि आगम वृक्षों का यह वचन है कि चारित्र का उपधात होने पर निश्चय नय के अनुसार-शान और दर्शन का भी उपचात हो जाता है|३|| 'चिन्तामणि' दारिद्रय को दूर करनेवाला एक विशेष रत्न है, उसके स्वरूप का यथार्थहान मिसे होता है यह दारिद्रय से पीडित होने पर उसकी प्राप्ति के प्रयत्न साध्य अनेक उपायों में प्रवृत्त होता है । यह नहीं हो सकता कि उनके भनेक उपायों के मध्य में एक भी

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