Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 461
________________ ३००] [शासवार्ता. स्त० ११/५८ विभागादावेव हेतुत्वेन तां विनाऽऽकाशादावपि कार्यान्तरान्युपगमादिति चेत् ? न, पुरुषार्थे वनिताद्याकर्षणे परिजपनरूपमानसव्यापाराख्याया अप्यन्तःक्रियाया हेतुत्वात् , ततन्मन्त्रसंकेतोपनिबद्धदेवताप्रेरणजन्यत्वाच्च तस्य तदाह- [वि. अ. भा. ११४११ " तो त कत्तो, भन्नइ त समयणिबद्धदेवओबहियं । किरियाफलं चिय जो न णाणमित्तोवओगस्सा ॥१॥" स्थादेतत् ज्ञान परिषद एवोपक्षीणं न मुक्तिप्रासावुपयुध्यत इति । मैवम् , ज्ञान-क्रिययोः शिविकावाहकपुरुषवदेवस्वभावेनाऽसहकारित्वेऽपि नयन चरणयोरिव स्वभावभेदेन सहकारिवाभिधानात्, तयोद्वारि-द्वारिभावेनैव हेतुत्वोपपत्तेः । 'तथा सति प्रवचनमातृज्ञानातिरिक्तश्रुतानुपयोगः स्यादिति चेत् ! न स्वातन्त्र्येण श्रुतस्यापि ध्यानादिमानसक्रियाद्वारकस्येवोपयोगात् ; अन्यथा द्रव्यश्रुतत्वापत्तेः । स्यादेत-ज्ञानस्य परम्परया हेतुत्वादन्नपक्ताविन्धनादेरिय गौणं हेतुत्वम् : " पारंपरप्पसिद्धी दसण-नाणेहिं होइ चरणस्स । पारंपरपसिद्धी जह होइ तहन्नपाणाण ॥१॥" है । यदि यह कहा जाय कि-विहीन में प्रकाश रूमान का जनकता असङ्गत है -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि क्रिया संयोग-धिभाग आदि कार्यों का ही हैतु है । अतएव क्रिया के न होने पर भी आकाश में सन्द आदि अन्य कार्यों की कारणता मानी जाती है।'किन्तु उक्त शा ठीक नहीं है। क्योकि स्त्री आदि के आकर्षणरूप पुरुष के ए फल में मानस जप आतरिक क्रिया हेत है. साथ ही जप मन्य में सङ्केतित देवता को प्रेरणारूप क्रिया भी हेतु है। कहा भी गया है कि-[क्रिया के बिना भी मन्त्र से फल प्राप्त होता है ] तो यह कैसे उत्तर-मन्त्र में सतिति देवता द्वारा सम्पादित होने से क्रिया का ही फल है। शान मात्र के उपयोग का फल नहीं हैं। [ज्ञान-क्रिया में अन्योन्य नेत्र-चरणवत् सहकारिता] ___ यदि यह कहा जाय कि-"शान मुक्ति-उपाय का निश्चय कर के ही उपक्षीण होता है । मुनि प्राप्ति में उसका उपयोग नहीं है" -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह कहा गया है कि ज्ञान और क्रिया शिबिकावाही पुरुषों के समान, यद्यपि समान रूप से मुक्तिप्राप्ति में एक दूसरे के सहकारी नहीं है। फिर भी नेत्र और चरण के समान भिन्न स्वभाव से सरकारी है । अतः उन दोनों में द्वार-द्वारीभाव से ही मुक्ति हेतुता की उपपत्ति होती है। यदि यह कहा माय कि- “ज्ञान और क्रिया को द्वार-द्वारी रूप में हेतुता मानने पर अष्ट प्रवचनमाता से अतिरिक्त श्रम का उपयोग न हो सकेगा, क्योंकि फलसिद्धि के सम्पादन में उससे अधिक ज्ञान द्वारा नहीं हैं'-तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि स्वतन्त्ररूप से श्रुतहान भी ध्यान आदि मागत क्रिया के द्वारा ही फलसिद्धि में उपयोगी होता है। यदि ऐसा न माना जायगा तो उसे द्रव्यश्रुतरूपता की आपत्ति होगी । शङ्का होती है कि-"शान को परम्परया हेतु मानने पर पाक-क्रिया में ईधन आदि के समान बह गौण हेतु होगा। मागम में भी कहा गया है कि-'ज्ञान और दर्शन के क्रिया धारक होने से उनमें पारम्परिक कारणता की सिद्धि उसी प्रकार होती है जैसे अन्नपान की अन्य किसी फलसिद्धि के प्रति प्रारम्भिक कारणता सिद्धि होती है ।' अभिप्राय यह हुआ कि जैसे अन्न और पान के बिना मनुष्य किसी काम को सम्पन्न नहीं कर सकता, अतपव

Loading...

Page Navigation
1 ... 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497