Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 453
________________ २९२ ] [शात्रवार्त्ता० त०] १६/३६ रत्नवाणिज्यादौ, अल्पक्रिया अपि = अल्पव्यापारा अपि, विशिष्टफल योगेन = उत्कृष्टधनप्राप्त्या, सुखिनः 'दृश्यन्ते' इति योगः, न तु क्रियापकर्षादिष्कृष्ट फलभाजो भवन्ति । धर्मक्रियामाश्रित्यागमेऽप्युक्तम् [ "जं अन्नाणी कग्मं खबेइ बहुआहिं वासकोडीहि । तं नाणी तिहि गुत्तो खवेइ ऊसासमिरोणं ॥ १॥" ||३३॥ प्रधानमपि पुरुषार्थमङ्गीकृत्य ज्ञानमेव साक्षादुपयोगीत्याह केवलज्ञानभावे च मुक्तिरप्यन्यथा न यत् । क्रियावतोऽपि यत्नेन तस्माज्ज्ञानादसौ मता । ३४ || केवलज्ञानभावे च = केवलज्ञानोत्पादे च मुक्तिरपि भवति । अन्यथा केवलज्ञानानुत्पादे क्रियाबतोऽपि यत्नेन=प्रयासेन यत् यस्मात् न भवति तम्मात् कारणात् अमौ-मुक्तिः ज्ञानाद मता, न तु क्रियात इति ।। ३४ ।। कियाचादिमतमुपन्यस्यन्नाह क्रियैव फलदा पुंसां न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ।। ३५ ।। क्रियैव प्रवृत्तिलक्षणा फलदा पुंसां = फलार्थिनाम् न ज्ञानं फलदं मतम् यतः =यस्मात्, स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् = स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञानमात्रात्, सुखितो भवेत्, किन्तु स्त्रीभक्ष्यभोगेणैवेति ॥३५॥ क्रियाभावे ज्ञानोत्कर्पस्याप्यपयोजकत्वमाह क्रियाहीना लोके दृश्यन्ते ज्ञानिनोऽपि हि । कृपायतनमन्येषां सुखसंपद्विवर्जिताः || ३६ || क्रियाहीनाश्च = व्यापारविरहिताश्च यत् = यस्मात् लोके - जगति ज्ञानिनोऽप्यालस्योपहताः, हि-निश्चितम् सुखेन अन्तरानन्देन संपदा च लक्ष्म्या विवर्जिताः, अत एवान्येषां पश्यतां प्राणिनाम्, कृपायतनं करुणाभाजनम्, दृश्यन्ते ।। ३६ ।। ३४ वीं कारिका में यह बताया गया है कि पुरुषार्थ के प्रधान होने पर भी मुक्ति में ज्ञान ही साक्षात उपयोगी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है केवलज्ञान की उत्पत्ति के अनन्तर ही मुक्ति होती है । केवलधान की उत्पत्ति के पूवं मुकि कदापि नहीं होती । यत्नपूर्वक पर्याप्त क्रियाशील होने पर भी केवलज्ञान के अभाव में मुक्ति का लाभ नहीं होता । अतः किया में नहीं किंतु ज्ञान से ही मुक्ति होने का पक्ष मानना चाहिए || ३ || ( ज्ञानवादी पक्ष समाप्त ) [क्रिया से ही मोक्ष - क्रियावादी पक्ष ] ३५वीं कारिका में क्रियावाद की उपन्यस्त किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैप्रवृत्तिरूप किया हीं से फल की प्राप्ति होती है, ज्ञान में नहीं। क्योंकि स्पष्ट देखा जाता है कि स्त्री और भोज्यपदार्थ के भोगज्ञान मात्र से मनुष्य सुखी नहीं होता, सुख का अनुभव नहीं कर पाता, अपितु उनकी भोगक्रिया से ही सुखी होता है ॥ ३५ ॥ प्रकार है ३६ वीं कारिका में यह बताया गया है कि क्रिया के अभाव में उत्कृष्ट ज्ञान भी फलप्राप्ति का प्रयोजक नहीं होता । कारिका का अर्थ इस संसार में यह देखा जाता है कि जिन्हें किन्तु वे यदि क्रियाहीन और आलसी है तो कर दूसरों - क्रियाशील धनवानों की करुणा के फलसाधनों का परस उत्कृष्ट ज्ञान होता है आन्तरिक आनन्द एवं लक्ष्मी से डीन हो सहारे ही जीते हैं ॥ ३६ ॥

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