Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 454
________________ स्था. क. टीका-हिन्दी षिवेचन ] [२९३ उपचयमाहक्रियोपेताश्च तद्योगाददग्रफलभावतः। मूर्खा अपि हि भूयांसो विपश्चित्स्वामिनोऽनघाः ।।३।। क्रियोपेताश्व व्यापारप्रवाणाश्च, तद्योगात्=क्रियासामथ्र्याद, उदग्रफलभावत: बिशिष्टफलसिद्धेः, मुर्खा अपि हि सन्तो भूयांस ईश्वराः, विपश्चित्स्वामिनः पण्डिताधिपतयः अनघाः अपापा: दृश्यन्ते । ततः फलसिद्धावतन्त्रं ज्ञानम् । आगमेऽपि क्रियाया एव प्राधान्यमुक्तम् ; तथाहि “ सुबहुँ पि सुअमहीअं किं काही चरणविप्पहीणस्स | अंधस्स जह पलिता दीवसयसहस्सकोडी वि! ।। १ ॥" तश्रा" नाणं सविसर्याणअयं न नाणमित्तेण कजनिष्फत्ती । मम्गण दिळंतो होइ सचेट्ठो अचेठो य॥१।। आउज्जनकुसला वि नट्टिआ तं जणं ण तोसेइ । जोगं अर्जुजमाणा णिदं खेयं च सा लहइ ॥२॥ इय नाणलिंगसहिओ काइअजोगं ण जुजइ जो उ। न लहइ स मुक्खसुक्खं लहइ अणिदं सपवस्त्राओ।।३।। जाणतो वि य तरि काइअजोगं ण जुंजई जो उ । सो बुड्डइ सोपणं एवं नाणी चरणहीणो ॥४॥" इत्यादि ।। ३७ ॥ यदप्युक्तम्-'ज्ञानोत्कदेव मुक्तिः, न क्रियोत्कर्षात् ' इति; तत् प्रतिविधित्सुशहक्रियातिशययोग च मुक्ति कलिनोऽपि हि नान्यदा केवलित्वेऽपि तदसौ तन्निबन्धना ॥ ३८ ॥ ३७ श्री कारिका में क्रियापक्ष की ही पुष्टि की गयी है। अर्थ इस प्रकार है जो मनुष्य क्रियाशील हो कर व्यापार में लगे रहते हैं, वे मृन होते हुए भी अपनी क्रिया के प्रभाव से प्रचुर सम्पत्ति का लाभ कर विद्वानों के भी स्वामी होते हैं। उन की आर्थिक सहायता से ही विद्वानों का जीवन-पावन होता है। और वे अपनी क्रियाशीलता से अजित धन से विद्वानों के निष्पाप सहायक होते है। इसलिए निदिचन है, कि ज्ञान फन्दप्राप्ति का अप्रयोजक है । शास्त्र में भी क्रिया प्राधान्य दिखाया है, जग्ने शास्त्रों के अत्यधिक अध्ययन से क्रियाहीन को क्या लाभ होगा ? दीप की प्रज्यलित मैकडों शिखाये भी अन्धे के लिप बेकार होती हैं । शान अपने विषय में ही नियत रहता है, शानमात्र से फल की सिद्धि नहीं होती। गतिशील और गतिहीन मार्ग इस में दृष्टान्त हैं। गतिशील मार्गक्ष गन्तव्यस्थान पर पहुंचता है किन्तु गतिहीन मार्गश जहाँ का तहाँ ही बैठा रह जाता है। वाच और नृत्य में कुशल भी नर्तकी कायिक व्यापार का प्रयोग न करने पर लोगों को मन्तुष्ट नहीं कर पाती, निन्द्रा और खंद मात्र ही उस के हाथ लगता हैं। इसलिए शानलक्षण से सम्पन्न होने पर भी जो मनुष्य शारीरिक क्रिया नहीं करता वह मोक्ष का सुख नहीं प्राप्त कर-पाता, अपितु अपने ही पक्ष के लोगों से निन्दा ही प्राप्त करता है। जैसे तैरना जानते हुए भी मनुष्य यदि पानी में हाथ-पैर नहीं चलाता तो वह प्रवाह में इन जाता हैं, उसी प्रकार कियाहीन ज्ञानीपुरुष मंसार में दृध जाता है ।। ३८ ॥ ३८ वीं कारिका में इस कथन का खण्डन किया गया है कि क्रिया के उत्कर्ष से मुक्ति नहीं होती किन्तु शान के उत्कर्ष से ही होती है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है केवलशान का लाभ हो जाने पर भी सवंश को मुक्ति की प्राप्ति शैलेशी-करण की क्रिया के

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