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[ शाबबा०ि स्त० १०/६४ किच, अत्यन्तवैजात्ये भगवच्छरीरस्य षष्ठशरीरपरिकल्पनामसंगः, धातुमच्छरीरस्थिति-वृद्धयोः क्षुजनितकायद्यपनायकधातूपचयादिद्वारा, कबलाहारस्य, स्थूलौदारिकस्थिति-वृद्धिसामान्ये स्थूलाहारस्य वा हेतुत्वात् । अवोचाम च- [अ० म० परीक्षा ११६ ]
___“ ओरालियत्तणेणं तह परमोरालिंपिं केवलियो ।
फलाहारावेवखं ठिई च बुद्धिं च पाउणइ ॥ १॥" तस्माद् धूमसामान्ये वहनेरिव विशिष्टोदारिकस्थितिसामान्ये कवलाहारस्य हेतुत्वात् तदभावे चिरतरकाला भगवच्छरीरस्थितिर्न संभवतीति सिद्धम् ।।
सर्वज्ञतादिकं तु घातिकर्मक्षयादुपपद्यते । न च प्रकृताहारेण, तत्कारणेन, तद्वयाएकेन वा सर्वज्ञतादेविरोधः, आहारस्य साक्षात् ज्ञानादिघातकत्वेन बाऽविरोधात् ; तत्कारणस्य क्षुदनीयो
[केवलिदेह में अत्यन्त वैजात्यादि कल्पनाओं का निरसन ] यह भी ध्यान देने योग्य है कि भगवान के शरीर को यदि अन्य सभी शरीरों की अपेक्षा अस्यन्त विजातीय माना जायगा तो छष्ठे प्रकार के भी शरीर की कल्पना करनी होगी, क्योंकि धातुयुक्त शरीर की स्थिति और बुद्धि के प्रति कवलाहार श्रुधाजनित कृशता आदि को दूर करने वाली धातुवृद्धि के द्वारा कारण होता है। अथवा सामान्यतः स्थूलऔदारिक शरीर की स्थिति और वृद्धि में स्थूल आहार कारण होता है। जैसा कि हमने बताया है कि 'देवली का परमोवारिक भी शरीर, औदारिक होने के कारण स्थिति और वृद्धि के लिए कालाहार की अपेक्षा करता है।' इसलिए जैसे धृम सामान्य में अग्नि कारण होने से आ ग्नि के बिना धूम नहीं होता उसीप्रकार विशिष्ट औदारिक शरीर की सामान्यतः स्थिति में कवलाहार कारण होने से कवलाहार के अभाव में अधिक काल तक भगवान के शरीर की स्थिति नहीं हो सकती-यह निर्विवाद सिद्ध है।
[कवलाहार सर्वज्ञतादि का विरोधी नहीं ] सर्वशता आदि जो भगवान में सिद्ध होती है वह घातीकर्मों के क्षय से होती है । प्रकृतकषलाहार, उस के कारण अथवा उस के किसी ध्यापक अन्य धर्म के साथ सर्वज्ञता आदि का कोई विरोध नहीं है क्योंकि आहार न तो सर्वशता का साक्षात् विरोधी है और न शान आदि के घातक होने द्वारा सर्वज्ञता का विरोधी है। आहार का कारण क्षुदवेदनीय के उदय आदि का भी सर्वक्षता आदि के साथ कोई विरोध नहीं है। मोह आदि में आधार की कारण है। अत एव केवली में मोह आदि न होने से आहार न होने की बात नहीं की जा सकती। चिरकाल तक औदारिक शरीर की स्थिति जो कि आहार का कार्य है उस का भी सकता आदि के साथ विरोध नहीं है। प्रमाद आहार का कार्य नहीं है किन्तु योग का दुरुपयोग ही उस का कारण है और यह रागद्वेषमूलक है। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि केवली के आहार मानने पर उस में प्रमाद होगा और उस से उस की सर्वशक्षा आदि का घ्याघात होगा। यतः सर्वक्षता आदि के साथ आहार का कोई विरोध नहीं है। इसीलिए प्रभाचन्द्र का १. औदारिकरवेन तथा-परमौदारिकमपि केवलिनः । कवलाहारापेक्षं स्थितिं च धृद्धि च प्रकरोति ॥ १ ॥
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