Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 418
________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ ૭ व्यपदेष्टुमशक्यत्वात्, अपोहस्य तद्द्वारेण तद्व्यवस्था सिद्धेः' इति तदपि लिङ्गादीनां वस्तुधर्मत्वे शोभते, न तु स्वतन्त्रेच्छाविरचित संकेतशालित्वेन काल्पनिकरवे । वस्तुत्वे च लिस्यैकत्र तटाख्ये वस्तुनि लिङ्गत्रययोगात् त्रैरूप्येण सदा शबलप्रतिपत्तिप्रसङ्गः । विवक्षावशादेकरूपपतिपत्त्युपगमे च तस्याव्यात्मक वस्तुविषयताया अनुपपत्तिः, तदा कारशून्यत्वात् चक्षुर्विज्ञानस्येव शब्दविषयतायाः । यन्तु 'संस्थान स्थिति स्त्री-पुंनपुंसकव्यवस्था' इति तत्र तादिवदन्यत्राप्येवमविशेषेण त्रिलिनतापतेः स्थित्यादिषु खरविषाणादिषु च तदभावेऽपि ' स्थितिः स्थानम्, , संख्या आदि से सम्बद्ध रूप में व्यवहृत नहीं किया जा सकता। क्योंकि जो वस्तु जिस रूप में ज्ञात नहीं है उस रूप में उसका व्यपदेश नहीं होता। अतः व्यक्ति द्वारा अपोह में दिनसंख्या मादि के सम्बन्ध की उपपत्ति नहीं हो सकती - किन्तु यह बात भी तभी समीचीन हो सकती है जब लिङ्ग संख्या आदि वस्तुभूत धर्म हो, न कि स्वतन्त्रेच्छा द्वारा संकेतित होने से काल्पनिक होने पर। और यदि लिङ्ग संख्या आदि को वस्तुभूत धर्म माना जायगा तो तट नाम की एक वस्तु स्त्रीलिङ्ग और पुंलिङ्ग तथा नपुंसक लिङ्ग तीनों का सम्बन्ध होने से तीनों लिङ्गों के साथ उसकी सदैव शबल प्रतीति की आपत्ति होगी। यदि विषक्षा के अनुरोध से एक काल में किसी एक ही लिङ्ग से युक्त तट की प्रतीति मानी जायगी तो जैसे शब्दाकार से शून्य होने के कारण चक्षुर्जन्यज्ञान शब्दविषयक नहीं होता उसी प्रकार लिङ्गत्रय के आकार से शून्य होने के कारण एक लिङ्गमात्र से युक्त तट की प्रतीति लिङ्गत्रय युक्त वस्तु विषयक न हो सकेगी। जबकि तटविषयक सभी प्रतीति तट के लित्रयशाली होने से लिङ्गत्रय युक्त वस्तु विषयक होनी चाहिये ! [ शब्दों के स्त्री-पुं- नपुंसकता का निरसन ] ' इस प्रसङ्ग में यह कहना कि ' स्थिति में स्त्रीलिङ्ग, प्रसव में पुलिङ्ग और संस्थान में नपुंसक लिङ्ग व्यवस्थित है । अतः उनमें और उनके सदृश अन्य पदार्थों में बिलिङ्गता की प्रतीति नहीं हो सकती ठीक नहीं है। क्योंकि तट आदि के समान अन्य अर्थों में भी समान रूप से विलिङ्गता की आपत्ति अनिवार्य है। स्थिति आदि में और खर-धूम आदि में त्रिलिङ्गता का अभाव होने पर भी स्थिति, स्थान और स्वभाव शब्दों से स्थिति में, और अस्वभाष, निरुपाख्य और तुच्छता शब्द से खर-शृङ्ग में लिङ्गमय की प्रतीति देखी भी जाती है। किसी अन्य का यह कहना कि 'स्त्रीत्व आदि भी गोत्र आदि के समान सामान्य विशेष रूप है' ठीक नहीं है। क्योंकि गोरव आदि सामान्यविशेषात्मक पदार्थों में अन्य सामान्यविशेष के अभाव में भी जाति, भाव और सामान्य शब्द स्त्रीत्व आदि की प्रतीति होती हैं। यदि खोत्व आदि भी सामान्यविशेष रूप होते तो गांव आदि में जैसे अन्य सामान्यविशेष नहीं रहता, उसी प्रकार उनमें स्त्रीत्व आदि को भी नहीं रहना चाहिए | [ वैयाकरण मतानुसार जाति में जाति मान्य ] यदि यह कहा जाय कि 'सामान्य में भी सामान्य का होना इष्ट है। क्योंकि वैयाकरण के मत में जाति को अनुगताकार बुद्धि रूप प्रत्यय, अनेक व्यक्तियों में एक रूप से प्रयुक्त होने ३३

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