Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 449
________________ २८८] [ शास्त्रबार्सा० स० ११/२८ अपि च, अन्यविवक्षायामन्यशब्ददर्शनाद् विवक्षाविशेषसूचकत्वमपि कथं शब्दानाम् ! । 'सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचति' इति न्याथात् शब्दविशेषाणां तद् न विरुध्यत इति वेत् ! तहि येनैव प्रतिबन्धेन शब्दविशेषो विवक्षाविशेषसूचकस्तत एवार्थविशेषप्रतिपादकः कि नाभ्युपगम्यते ! । 'विवक्षया सह तदुत्पत्तिरेव प्रतिबन्धोऽर्थन सह पुनरियमसमविनी' ति चेत् ? न, तथापि विवक्षाया वचनेऽर्थप्रतिपादनरूपेष्टसाधनताज्ञानं विनाऽसंभवाद, विवक्षोपसर्जनतयाऽर्थप्रतिपादकत्वस्य च शुकादिबचने व्यभिचारात् , कल्पितार्थप्रतिपादकत्वे च सत्याऽसत्यविभागाभावाल्लोकयात्रोस्टेदात् , शब्दजनितार्थप्रतिबिम्बे बहिरर्थविषयता यास्ताविकत्वकल्पनाया एवौचित्यादिति दिग ॥२८॥ लिए माता का प्रवर्तक न हो सकेगा । दूसरी बात यह है कि यदि शदजन्य विकल्प को अर्थ विवक्षा की अनुमितिरूप माना जायगा तो उसके अनुमिति भिन्नत्व और शाब्दबुद्धिव रूप से होने वाले 'नानुमिनोमि किन्तु शाददयामि' • अनुमान नहीं किन्तु शाब्दबोध कर रहा हूँ। इस अनुभव की अनुपपत्ति होगी। साथ ही यह भी विचारणीय है कि शब्द अर्थविशेष की विवक्षा का अनुमापक भी कैसे होगा, क्योंकि अन्य अर्थ की विवक्षा में भी अन्य शब्द का प्रयोग देखा जाता है । जैसे-कोई मनुष्य किसी अर्थ की विषक्षा करता है किन्तु उस अर्थ के बोधक शब्द की जानकारी न होने से भ्रमवश अन्य अर्थ के बोधक शब्द का प्रयोग कर देता है। यदि यह कहा जाय कि-" सुविवेचित कार्य कारण का व्यभिचारी नहीं होता, अर्थात् कार्याभास की जिस से व्यावृत्ति हो सके ऐसे सुविधेक से निश्चित हुआ कार्य कारण का व्यभिचारी नहीं होता । ऐसे सुविवेक से जो शब्दविशेष निश्चित होता है यह अर्थविषक्षा का ध्यभिचारी नहीं होता 1 इसलिये शब्दषिशेष विवक्षा का समक( अनुमापक) होने में कोई विरोध "तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जिस व्यानि से शम्दविशेष विवनाविशेष का अनुमापक होग उसी से उसको अर्थ विशेष का बोधक माना जा सकता है। यदि यह कहा जाय कि-'अर्थ की विद्यक्षा से शब्द उत्पन्न होता है अतः विवक्षा में शब्द की उत्पत्ति लक्षण च्याप्ति है। किन्तु अर्थ के साथ यह व्याप्ति असम्भव है । यतः शब्द की उत्पत्ति अर्थ से नहीं होती तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि शब्द में अर्थ प्रतिपादन रूप इष्ट की साधनता के ज्ञान के बिना विवक्षा नहीं होती । अतः शब्द में अर्थ प्रतिपादकता आवश्यक होने से विवक्षा के उपसर्जन रूप में शब्द से अर्थ की आनुमानिक प्रतिपत्ति मानना असङ्गत है और दूसरी बात यह है कि शब्द विवक्षा के उपसर्जन रूप में अर्थ का प्रतिपादक मानने में शुक आदि के शब्द में व्यभिचार है । क्योंकि शुक आदि को अर्थ की विवक्षा न होने पर भी उनके नाम उच्चारित शहद अर्थ की प्रतिपत्ति होती है। यह भी शातव्य है कि शम्द को यदि कल्पत अर्थ का बोधक माना जायगा तो शब्दों में सत्य-असत्य का विभाग न हो सकने से शब्धिमूलक लोक. प्रवृत्ति का उच्छेद हो जायगा । उक बातों को दृष्टि में रखते हुए यही उचित प्रतीत होता है कि शब्दजन्य अर्थ प्रतिबिम्ब (अर्थ बोध में) बानार्थ विषयकत्व को कल्पित न मान कर उसे ताविक ही माना जाय यह अच्छा है ॥ २८ ॥ __२९ वीं कारिका में ‘अवस्तु शब्दवाच्य है' इस यौद्ध मत में अन्य दोष का प्रदर्शन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है

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