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स्या. क. टीका-हिन्दीविदेखन ]
[ २७९
एतदेव विशिष्य भावयति--- अन्यथा दाहसंबन्धादाई दग्धोऽभिमन्यते । अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः संप्रतीयते ॥२४॥
अन्यथा स्पष्टत्वेन, दाहसंबन्धात्-द्वाहेन्द्रियोगात् टाई दग्धः पुरुषोऽभिमन्यते एकलोली. भावेन साक्षास्कुरुते; अन्यथा अस्पष्टतथा, दाशब्देन श्रुतेन दाहार्थः संप्रतीयते-बिकल्पगोचरीक्रियते, अतोऽनुभवसिद्धमेवेन्द्रिय-शब्दार्थयोस्तुन्छाऽतुच्छत्वमिति भावः ।।२४।।
__यथैतस्योक्तस्य न बाधकत्वं तथाह-- इन्द्रियग्राह्यतोऽन्योऽपि वाच्योऽसौ न च दाहकत् । तथाप्रतीतितो भेदाभेदसिद्धथैव तत्स्थितेः॥२५॥
इन्द्रियग्राह्यतः इन्द्रियग्राह्याद् धर्मात् अन्योऽपि वाच्यो धर्मः, अपिशब्दावनन्योऽपि, अतो युक्तमिदं यत्--' शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते' इति, तदभिधेयधर्मस्य कथश्चित् ततो भेदात् , अन्यथा प्रतीतिभेदानुपपत्तेः । न च शब्दार्थ नेक्षत एव, कश्चित् तद्माखानुविद्वस्यैव शब्दात् प्रतीतेः, यथाक्षयोपशमं तथानुभवादिति । सथा, असौ दाहशब्दवाच्यो धर्मः, न च दाहकृत्-न च दाहकरणशीलः, चशब्दाद् नाऽदाहकच्च, अतोऽयुक्तमिदं (युक्तमिदं)यदुक्तम्-'अन्यथा
२४ घी कारिका में पूर्वकारिकोक्त अर्थ को सुस्पष्ट किया गया है, कारिका का अर्थ इस प्रकार है।
जब किसी मनुष्य की इन्द्रिय को दाह ( अग्नि के साथ सम्बन्ध ) होता है तब वह दग्ध पुरुष दाह का एकलोलीभाव से साक्षात्कार करता है किन्तु जब वह दाह शरुद को केवल सुनता है तब उसे दाह के अर्थ का विकल्पात्मक बोध मात्र ही होता है । इससे स्पष्ट है कि इन्द्रियग्राम्य अर्ध सत्य और शब्द वेच अर्थ असत्य होता है। ॥२४||
२५ थीं कारिका में पूर्वकारिकोक्त दृश्य और विकरुप्य के भेद को घस्तु की अनेकान्तरूपता का अबाधक बताया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
[ भेदाभेद की सिद्धि से पूर्व-आशंका का निरसन ] शब्दयाच्य धर्म, इन्द्रियग्राह्य धर्म से कथञ्चित् अन्य भी है और कथश्चित अनन्य भी है। इसलिए यह कथन की-“ नेत्रहीन व्यक्ति को शब्द से अर्थ का बोध होता है किन्तु नेत्र से अर्थ का दर्शन नहीं होता" -यह ठीक ही है. क्योंकि इन्द्रियग्राह्य अर्थ का अभिधेय धर्म, इन्द्रियग्राम धर्म से कश्चित भिन्न है । अत: अभिधेय धर्म के रूप में नेत्र द्वारा अर्थ का अग्रहण ठीक ही है । यदि अभिधेय धर्म और इन्ध्रियग्राह्य धर्म में भेद न होगा तो शब्द जन्य प्रतीति और इन्द्रियजन्य प्रतीति में भेद ही न बन सकेगा । "नेत्रहीन ध्यक्ति शब्दार्थ का किसी भी रूप में ईक्षण ही नहीं करता" -यह समझना ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रियग्राह्य धर्म ले कथञ्चित् अनुविद्ध ही अर्थ का शब्द से बोध होता है । ज्ञानावर के क्षयोपशम के तारतम्य से इन्द्रियग्राम्य और शदबोध्य धर्म की प्रतीति अनुभव सिद्ध है । शब्दवाच्य धर्म दाह का कारण भी नहीं होता और दाह का अकारण भी नहीं होता अपितु कचित् उभयात्मक होता है । इसलिए यह कहना