Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 445
________________ २८४] [शानवा० स्त० १४/९६ अपि च , एवं सामानाधिकरण्यादिव्यवहारोऽप्युच्छिद्येत , प्रवृत्तिनिमित्तद्वयवत एकस्य बहिर्भतस्थ धर्मिणोऽभावात् । न च मिन्नप्रवृत्तिनिमित्तोपरक्तकवाकारविकल्पादेव सामानाधिकरण्यव्यवहारोपपतिः, एकात्मवादिनाऽनेकाकारकविकल्पस्याभ्युपगन्तुमशक्यत्वात् । न चाऽतात्विकमनेकत्वमिति न दोषः, एकत्वस्य तात्विकत्वेऽविनिगमात् ; ज्ञानात्मन्यविद्यमानस्य चानेक(त्व)स्य स्वसंवेदनेनाऽपरिच्छेदप्रसक्तेः; परिच्छेदे वाऽविद्यमानाकारग्राहित्वेनाऽप्रत्यक्षत्वासङ्गात् , सदऽसतोरेकत्वाऽनेकत्वयोनितादात्म्यविरोधेनाऽतदाकारज्ञानवेदने साकारवादक्षतेश्च । एतद्भयाज्ज्ञानवैचित्र्योपगमे च बहिरवैचित्र्येण क्रिमपराद्धम् ? ! विवेचिततरं चतत्, इति नेदानी प्रयासः । अपि च. शब्दार्थाऽपोहयोजन्य-- जनकभावरूपवाच्य-वाचकभावाभ्युपगम आकाङ्क्षादिज्ञानात् प्रागेव शाब्दीप्रसङ्गः । ‘पदार्थोंपस्थितिस्थानीयतिचिम्ने आकांक्षाचनपेक्षायामपि शान्दस्थानीयप्रतिबिम्बे नियमतस्तदपेक्षणाद् नाय प्रसा' इति चेन् ? न, क्षणिकस्य शब्दस्य तदपेक्षाऽयोगात् । अनन्तरोत्पन्नशब्दाकारक्षणे स्वक्षणसंयोगरूपापेक्षायोगे च हेदुधर्मस्य कार्य संक्रमात् शाब्दे नियमत आकाङ्कादिभानापत्तेः, निरंशस्यांशेनाऽपेक्षाऽयोगात् । निमित्त के आधारभूत तक बाह्य नीलकमलस्वरूप धर्मी का होना अनिवार्य है। किन्तु अपोदवादी के मत में बोधभिन्न कोई धम्तु ही है नहीं, अत: वह व्यवहार कैसे हो सकेगा? ! [भिन्न भिन्न प्रवृत्ति निमित्त वाले दो माम मिलकर पकार्थवाचक बन जाय इसी को सामानाधिकरण्य कहा जाता है जो बोगादतपक्ष में उक्त रीति से घट नहीं सकता। यदि यह कहा जाय कि- "भिन्न भिन्न प्रवृत्ति निमित्त से युक्त एक धोकार विकल्प से सामानाधिकरण्य की उपपत्ति हो सकती है। आशय यह है कि दी प्रवृत्ति निमित्त के आश्रयभूत बाह्यवस्तु का सद्भाय न होने पर भी दो भिन्न प्रवृत्ति निमित्तों को ग्रहण करने वाली गक धोकार विकल्प बुद्धि तो हो सकती है । फिर उन दोनों के माध्यम से सामानाधिकरण्य के व्यवहार में कोई बाधा नहीं हो सकती " 1ो यह दीक नहीं है। क्योंकि एकान्तबादी के मत में अनेकाकार एक विकल्प भी स्वीकार्य नहीं है। यदि यह कहा जाय कि कान्तावाद में भी 'अतात्विक अनेकत्व मानने में कोई दोप नहीं है' तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'अनेकत्व अताविक है और पकत्व तात्त्विक है' इसमें कोई बिनिगमक नदी है'. प्रत्युत शानस्वरूप में यदि अनेकाकारता विद्यमान न होगी तो स्वसम्वेदी शान से उसका परिच्छेद । बोध ) भी न हो सकेगा। और यदि परिच्छेद होगा तो अविद्यमान का प्राहक होने से वह प्रत्यक्षात्मक ज्ञान न रह जायगा । क्योंकि प्रत्यक्षज्ञान विद्यमान का ही प्राहक होता है। दूसरी बात यह भी है कि आप के पक्ष में यम: एकच और अनेकत्व क्रम से सत् और असन् रूप है, अतः उसमें ज्ञान का तादात्म्य नहीं हो सकता , और जब वह ज्ञान का आकार न होगा तो शान साकार होता है। इस सिद्धान्त की हानि हो जायगी । और उक्तमय से यदि शाम में स्वभावत: वैचित्र्य माना जायगा तो बाघ अर्थ के वेचिश्य का क्या अपर ओ उसे स्वीकार न किया जाय ! इस विषय का विवेचन पहले किया जा चुका है। अतर इस सम्बध में यहां कुछ अधिक नहीं कहना है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497