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स्या. क.टीका-हिन्दीविवेचन ]
[ २७१ परमार्थकतानत्वेऽपि वस्त्वेकगोचरत्वेऽपि शब्दानामुक्तदोषोपवर्णनम् दर्शनान्तरभेदिषु प्रधानादिष्वप्रवृत्त्याद्यभिधानलक्षणम् प्रत्याख्यातं हि-निराकृतमेच; इति एतत् सम्पग्-माध्यस्थ्येन विचिन्त्यताम्, प्रधानादिपदानां प्रवृत्तिनिमित्तवैकल्ये गवादिपदानां तदापादनस्याऽयुक्तत्वात् , अत्यन्त मिथो भेदात् ॥ १७ ॥
एतदेव स्पष्टयतिअन्यदोषो यदन्यस्य युक्तियुक्तो न जातुचित् । व्यक्तावणे न बुद्धानां भिक्ष्वादि शबरादिवत् ।१८।
अन्यदोपः अर्थान्तरभूतवस्तुदोषः, यद्यस्मात् , अन्यस्य अर्थान्तरस्य न युक्तियुक्तः न प्रमाणोएपन्नः, जातुचित् कदाचित् । प्रतिवस्तूपमया द्रढयति-बुद्धानाम् भगवताम् मिक्ष्वादिमिङ्वादिपदम्, शबरादिवत् शबरादिपदवत् , व्यक्तावर्णन व्यक्तो वो येनेति विग्रहादवर्णव्यचकम् न । तथा च शबरादिभिक्ष्वादिपदानां जातिभेदादवर्णव्यञ्जकाऽव्यञ्जकत्ववत् प्रधान-गवादिपदानामपि प्रवृचिनिमित्तवैकल्याऽवैकल्ये नायुक्ते इति भावः । न चैवं प्रधानाद्यर्थाऽसत्त्वात् तत्र प्रधानादि
शब्दप्रवृत्ति न हो सकेगी-इत्यादि. यह सुतरां निरस्त हो जाता है, यह बात तटस्थ दृष्टि से विभावनीय है। इस सन्दर्भ में यह कहना भी कि जैसे अन्य दर्शन स्वीकृत प्रकृति मादि अर्थ में प्रधान आदि शवों के प्रवृत्तिनिमित्त का अभाव है, उसीप्रकार गो आदि अर्थों में गो आदि पदों के भी प्रवृत्ति निमित्त के अभाव की आपत्ति होगी, असङ्गत है क्योंकि प्रधान आदि और गो आदि शब्दों में परस्पर भेद है ॥ १७ ॥
[प्रधान और गो आदि पद में वलक्षण्य ] १८वीं कारिका में उक्त अर्थ को ही स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार हैएक अर्थ में जो दोप होता है अन्य अर्थ में भी उस दोष का होना कदापि प्रमाणोपपन्न नहीं हो सकता। यह बात इस प्रतिवस्तुपमा से पुत्र होती हैं कि शवर आदि पद अवर्ण व्यञ्जक होने पर भी भगवान बुद्ध के लिए प्रयुक्त भिक्षु आदि पद असे अवर्णव्यञ्जक नहीं होता उसी प्रकार पक अर्थ के दोषयुक्त होने से अन्य अर्थ दोपयुक्त नहीं हो सकता। कहने का आशय यह है कि जैसे शबर आदि पद में अवर्णव्यनकता और मिश्नु आदि पद में उसका अभाव होना अयुफ नहीं है. उमीप्रकार प्रधान आदि शायद में प्रवृत्तिनिमिस का अभाष और गो आदि पद में प्रवृत्ति निमित्त का सदभाव भी अयुक्त नहीं है ।
यदि यह कहा जाय कि-'प्रधान आदि अर्थों के असत्य होने से उनमें प्रधान आदि पद की शक्ति सम्भव न होने के कारण प्रधान आदि पद से प्रधान आदि अर्थ का बोध न हो सकेगा' -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि मृषाभाषणद्रव्य की धगणा से उत्पन्न होने वाले शब्दों में उन शब्दों की प्रवृत्ति की जतिका शक्ति मानने में कोई विरोध नहीं है।
यदि यह कहा जाय कि- प्रधान आदि पद से उत्पन्न होने वाला विकल्पज्ञान यदि प्रधानत्य आदि से विशिष्ठ अखण्ड अर्थ को विषय करेगा तो अमख्याति की आपत्ति दोगी' -तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि किसी भी विकल्पज्ञान में अखण्ड एक विषयकत्व का