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स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
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[ २६१ यच्च पचति' इत्यनिषिद्धं तु स्वरूपेणावतिष्ठते 37 [ लो० ० वा० अपो० ४० १४० ] इत्युच्यते तत्र स्ववचनन्यायात एव एवकारेणान्यरूपनिषेधस्यैवोपदर्शनात् । यदपि " पचति 'इत्यादौ पूर्वापरी मृतावयवक्रियात्वरूपस्य साध्यत्वस्य अभूद् भविष्यति' इत्यादौ च भूतादिकालविशेषस्य प्रतीतिरपोहवादे न स्यात्, अपोहस्य निष्पन्नत्वात् ' इत्युच्यते तदपि न, निरुपाख्ये वाह्यवस्तुस्वारोपेण निवृत्ति का बोध नहीं होता । अतः अपोह की कल्पना व्यापक नहीं हो सकती । अर्थात् सभी शब्दों से अपोह होता है यदर्ती वन' किन्तु यह ठीक नहीं है. क्योंकि शब्द का प्रयोग जिज्ञासित अर्थ में होता है। अतः उससे अभीष्ट अर्थ की प्रतीति शब्दसामर्थ्य से होती है अनभीष्ट का निषेध तो उत्सर्गतः होता है, क्योंकि अभीष्ट की प्रतीति अनभीष्ट की निवृत्ति के साथ ही सम्भव होती है। शब्द से अर्थप्रतीति की इस व्यवस्था के अनुसार तत्वसंग्रहकारने यह कहा है कि-' पचति' इत्यादि तिङन्त स्थल में केवल यही प्रतीति नहीं होती कि अमुक व्यक्ति पाक सम्पन्न कर रहा है, अपितु यह भी प्रतीति होती है कि अमुक व्यक्ति निष्क्रिय नहीं है, और न भोजन ही कर रहा है तथा न खेल ही रहा है । ' इससे स्पष्ट है कि 'पचति' से निष्क्रियता, भोजन किया. क्रीडा आदि की निवृत्ति के योध के साथ पाकक्रिया के कर्तृत्य का बोध होता है ।
यदि यह कहा जाय कि निषेध बोधक शब्द के बिना पचति मात्र का प्रयोग करने पर किसी निषेध की प्रतीति नहीं होती अपितु पचति' शब्द का अर्थ अपने स्वरूप मात्र से ही अवगत होता है तो यह कथन अपने ही वचन के व्याघात दोष से ग्रस्त हो जाता है ।
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इस अवधारण गर्भित कथन से अतः उससे अन्य निवृत्ति का बोध न स्पष्ट ही 'स्व' का व्याघातक है ।
अन्य स्वरूप के निषेध' की होकर 'पति' शब्दार्थ के
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क्योंकि ' स्वरूप मात्र से ही अवगति हो ही जाती है। स्वरूप मात्र का प्रतिपादन
[ साध्यत्वादि की उपपत्ति ]
इस सन्दर्भ में एक यह भी दोष दिया जाता है कि अपोह को शब्दार्थ मानने पर 'पचति' शब्द से पाक में पूर्वोत्तर भागपत्र कियात्व रूप साध्यत्व की प्रतीति नहीं हो सकती, एवं 'अभूत् ' शब्द से भूतकाल तथा 'भविष्यति' शब्द से अनागत काल की प्रतीति नहीं होगी। क्योंकि कमिक किया समुदाय, भूतकाल एवं अनागतकाल अनिष्पन्न होता है और भदोह निष्पन्न होता है। अतः अपोह को शब्दार्थ मानने पर शब्द से अनिष्पन्न के बोध की उपपत्ति नहीं हो सकती ' किन्तु यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि अपोह अवस्तु है, अतः उसमें बाच वस्तुत्व का आरोप होने से निष्पन्नस्य का जैसे आरोप होता है, उसीप्रकार उसमें साध्यत्व, भूतत्व एवं अनागतत्व आदि का भी आरोप निर्वाध रूप से हो सकता है। ऐसा मानने पर यह आपत्ति नहीं हो सकती कि ' अवस्तु में वाध वस्तुष के आरोप से अन्य धर्मों का आरोप मानने पर साध्य में सिद्धत्य का, सिद्ध में साध्यस्व का अतीत में अनागतत्य का और अनागत में अतीतत्व का आरोप भी प्रसक्त होगा। क्योंकि इन अर्थों की प्रतीति के लिए जो शब्द शास्त्र में नियम माने गये हैं वे अवस्तु में भी इन अर्थों की प्रतीति में अपेक्षित है। अतः जैसे वस्तुबादी के मत में साम्य आदि में सिद्धत्व आदि का बोध नहीं होता उसीप्रकार अवस्तुवादी के मत में भी साध्य आदि रूप से प्रतीति योग्य अत्रस्तु में सिद्धत्व आदि की भी प्रतीति नहीं हो सकती ।