Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 403
________________ २४२ ] [शामधार्ता० स्त. १५/८ न चकेनानुगामिना विना बहुप्वेका अतिर्न नियोक्तु शक्येति वक्तव्यम् , इच्छामात्रपतिबद्धत्वात् शब्दानामर्थप्रतिनियमस्य । स्यादेतद्-मा भुत् पर्यायत्वमेषाम् अर्थाभेदस्य कल्पितत्त्वात् । सामान्य-विशेषवाचिस्व व्यवस्था तु विना सामान्यविशेषाभ्यां कथमेषामिति । मेवम् बहेल्पविषयतत्सकेतानुसारतः सामान्यविशेषधावियाऽविरोधात् , क्ष-धवादिशब्दानामवृक्षाऽधवादिव्यवच्छेदमात्रानुस्यूतार्थप्रतिबिम्बजनकत्वात् । यदपि “विनाऽपोश्वस्याधारस्य या भेदं नापोह भेदः, सदभेदश्च न वस्तुभूतं सामान्यमन्तरेण, इति किमपोहेन ? ' इति; तदपि न, कल्पनयैव व्यावृत्तीनां भेदात् , तत्राऽपोह्यादिभेदस्याऽतन्त्र. स्वात् । परमार्थतस्त्वनादिविकल्पवासना(ज)न्यविविक्तवस्तुसंकेतादेनिमिताद् विकल्पानामेव भेदाभ्युपगमात् । सकती है ? और सत्य बात यह है कि परमार्थ से भिन्न या अभिन्न कोई भी शब्दवाच्य यस्तु है ही नहीं तो फिर वाधकरूप में अभिमत शब्दों में पर्यायता या अपर्यायता की बात ही कहाँ ? पहले ही कर दिया है कि स्वलक्षण या जातिरूप एक या अनेक कोई शब्दवाच्य नहीं है । [सामान्य विशेषवाची शब्द भेद की उपपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'अनेक व्यक्तियों में अनुगत एक रूप माने बिना अनेक व्यक्तियों में पक शब्द के प्रयोग को नियमित नहीं किया जा सकता । अतः अनुगतरूप को मानना मायश्यक है' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अर्थ में शब्द का नियमन इच्छा मात्र मूलक है, बस्तुमूलक नहीं है। अतः अनुगतरूप के अभाष में भी नियत अर्थों में नियत शब्दों का नियमन इच्छा द्वारा सम्भव होने से अनुगतरूप की कोई आवश्यकता नहीं होती। यदि यह कहा जाय कि- ठीक है कि सामान्य विशेषवाची उक्त शब्दों में पर्यायता की आपत्ति भिन्नअभिन्न घस्तुभूत अर्थों के न होने के कारण नहीं हो सकती, किन्तु गो, शावलेय आदि शब्दों में सामान्य आर विशेष के वाच्यत्व की व्यवस्था सामान्य और विशेष के अभाव में कैसे हो सकती है ? अत: सामान्य और विशेष स्वरूप वस्तु का अस्तित्व मानना आवश्यक है' -तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अधिक और अल्प विषय और उनके संकेत से उक्त व्यवस्था सम्भव है। जिस शब्द का संकेत अधिक विषयक होगा यह सामान्यधाची और जिस शब्द का संकेत अल्प विषयक होगा वह विशेष चाची कहा जा सकता है, क्योंकि वृक्ष, धय आदि शब्द अवृक्षध्यावृत्त पत्रं अघवव्यावृत्त अर्थ-प्रतिबिम्ब के जनक होते हैं। घव-खदिरादि अवृक्षव्यावृस अर्थ प्रतिबिम्बों में सकेतित हाने से 'वृक्ष' शब्द सामान्यवाची और केवल अधषच्यावृत्ति अर्थ में संकेतित होने से 'धव' शब्द विशेषाचा होता है। [ अपोहभेद-अपोह्य भेद के लिये सामान्य अनावश्यक ] इसी सन्दर्भ में जो यह बात कही जाती है कि-'अपोहनीय आधार के भेद के बिना अपोहभेव नहीं हो सकता और अपोहनीय आधार का भेद वस्तुभूत सामान्य के बिना नहीं हो सकता। अतः जब अपोहनीय भाधार के भेव के लिए वस्तुभूत सामान्य मानना आवश्यक है तब अपोह की क्या आवश्यकता है ?' -वह भी ठीक नहीं है क्योंकि भग्य व्यावृत्तिरूप पोह

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