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[ शास्त्रवा० स्त० १०/२५-२५ एतदेवाह-नित्यत्वाऽपौरुषेयत्वादि आदिनाऽतीन्द्रियार्थाभिधायकत्वादिग्रहः, अस्ति क्रिश्चिदलौकिकम्=लोकातीतम्, तत्रवेदे यतश्चैवम् , अतः अस्मात् कारणात्, अन्यत्रापि पदार्थादौ, विदुषः असाधारणधर्मज्ञस्य, शक्का न निवर्तते-'कि लौकिकपदार्थतुल्य एवास्यार्थः, किंवा विलक्षणः, नित्यत्वादिः ! इति ॥२३॥
म चैतन्निवृत्त्युपायः परस्येत्याहतभिवृत्तौ न चोपायो विनातीन्द्रियवेदिनम् । एवं च कृत्वा साध्वेतत् कीर्तितं धर्मकीर्तिना ||२४५
तभिवृत्ती यथोदिताशङ्कानिवृत्तौ न चोपायोऽन्यः कश्चित् , विनाऽतीन्द्रियवेदिनं प्रमातारम् , शङ्काबीजकर्मदोषराहित्य एब निःशेषशङ्काराहित्यस्य तत्त्यत उपपत्तेः, स च बो नास्ति। एवं च कृत्वा-इदं चाभिल्य साधु-शोभनम् एतत् वक्ष्यमाणम् कीर्तितम् उद्गावितम् धर्मकीर्तिना =धर्मकीर्तिनाम्ना बौद्धाचार्येण ।।२४।। स्वयं रागादिमानार्थं वेत्ति वेदस्य नान्यतः । न वेदयति वेदोऽपि वेदार्थस्य कुतो गतिः॥२५॥
(प० वा. ३-३१८ उत्त० ३१९ पूर्वार्ध:०) तथाहि-स्वयम् अन्यानपेक्षतया रागादिमान् पुरुषः नार्थ वेत्ति निश्चिनोति वेदम्ब,
घेद में कुछ अन्दौकिकता है, वह यह कि पैदिक मतानुसार बदनित्य पयं अपौरुषेय है तथा अतीन्द्रिय अर्थ का बोधक है, अत: वेद के इस असाधारण धर्म को जाननेवाले पुरुष की यह शङ्का कथमपि निवृत्त नहीं हो सकती कि, वैदिक पदार्थ लौकिक पदार्थ के नुल्य ही है अथवा लौकिक पदार्थ से बिलक्षण है : क्योंकि लौकिकपदों से नित्यत्रादि धर्मों द्वारा विलक्षण अर्थ ही वैदिकपदी द्वारा उपस्थित होता है ॥२३॥
२४ वीं कारिका में यह बताया गया है कि वेदार्थ के विषय में उत्थित उक्त शङ्का को निवृत्त करने का कोई उपाय वेदायीरुपयत्ववादी मीमांसक के पास नहीं है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
घेद में वर्णित धर्म-अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का द्रष्टा न मानने पर “वैदिक शब्दों का वही अर्थ है जो लौकिक शब्दों का होता है अथवा कुछ अन्य अर्थ है" इम शङ्का को निवृत्त करने का कोई अन्य उपाय सम्भव नहीं हा सकता, क्योंकि शङ्का के जनक कर्मदोष की निवृत्ति होने पर ही निःशेष शङ्का की निवृत्ति की वास्तव उपपत्ति हो सकती है। कहने का आशय यह है कि धर्म, अधर्म आदि के प्रतिपादक शास्त्र को क्षीणसर्थकर्मा सर्वथानिःशङ्क: पुरुषमूलक मानने पर ही उस के अर्थ के बारे में सम्माधित शङ्काओं का परिहार हो सकता है जो मीमांसक को मान्य नहीं है। इस तथ्य को मनोगत कर के बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति ने वेदप्रामाण्य के विरुद्ध जो दोपोोधन किया है वह सर्वथा शोभन ही है ।।२४।
२५वीं कारिका में पूर्वकारिका में संकेतित धर्मकीर्ति के दोषोद्भाबन को प्रदर्शित किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
रागादिग्रस्त मनुष्य अन्य की अपेक्षा किये विना स्वयं वेदार्थ का निश्चय नहीं कर सकता क्योंकि वह स्वभावत: संशयालु होता है, किसी अन्य पुरुष के सहयोग से भी यह यह कार्य