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स्या. क. टीका-हिन्धी विवेचन ]
[१४७ "व्यञ्जकानां हि वायूनां भिन्नावयवदेशता । जातिभेदश्च तेनैव संस्कारो व्यवतिष्ठते ।।१।। अन्यार्थप्रेरितो वायुर्यथाऽन्यं न करोति च । तथान्यवर्णसंस्कारशक्तो नान्यं करिष्यति ॥२॥ अन्यस्ताफ्यादिसंयोगेर्नान्यो वर्णो यथैव हि । तथा ध्वन्यन्तरोचारो न ध्वन्यन्तकारिभिः ।।३।। तस्मादुत्पत्त्यभिव्यक्त्योः कार्याापत्तितः समः । सामर्थ्य भेदः सर्वत्र स्यात् प्रयत्न-श्विक्षयोः ॥४॥
[ द्रष्टव्य-श्लो० वात्ति० सू० ६ श्लो० ७९ तः ८२ -इति वाच्यम् ।
इन्द्रियसंस्कारिणां व्यञ्जकानां समानदेशसमानेन्द्रियमा प्वर्थेषु प्रतिनियतविषयग्राहकत्वेनेन्द्रियसंस्कारकत्वस्य कचिदप्यदर्शनात् । मरीचि-मेघोदकयोस्तु विषयसंस्कारकत्वमेव, नेन्द्रियसंस्कारकत्वम् , सिक्त पदार्य और भूमि के गन्ध को लिया जा सकता है । तल सिक्त पदार्थ जब तेजस किरणों से सम्पृक्त होता है लब उसके गन्ध का ग्रहण होता है, पयं भूमि जब निदाधान्त में मंघमुक्त जल से सिरत होती है तब उसके गन्ध का ग्रहण होता है और यह दोनों ग्रहण एक दूसरे से विलक्षण होते हैं, उनके विषयभूत गन्धों में वैज्ञात्य होता है. यहाँ व्यञक की व्यवस्था का पार्थक्य स्पष्ट है क्योंकि तैलसिक्त पदार्थ का गन्ध तैजस किरणों से दी व्यक्त होता है मेघ मुक्त जल से नहीं होता । ण्यं भूमि का गन्ध मेन मुक्त जल से ही व्यक्त होता है तेजस किरणों से नहीं होता । गन्ध व्यञ्जक के दृष्टान्त से शब्दव्यञ्जक की व्यवस्था का भी पार्थक्य समझा जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि व्यञ्जक वायु कर्ण के मूल अवषयों में उपस्थित होकर प्रतिनियत वर्ण के ग्रहाणार्थ ही श्रोत्र को संस्कृत करते है.अतः किसी पक वर्ण के ग्रहणार्थ संस्कृत श्रोत्र से अन्य सभी वर्गों के युगपद ग्रहण की आपत्ति नहीं हो सकती । कहा भी गया है कि-" व्यञ्जक घायु कर्ण के विभिन्न अवयवों से सम्बद्ध होते हैं और उन मे श्रोत्र का विभिन्न जातीय संस्कार होता है। शरदोत्पत्ति पक्ष में असे अन्य शब्द के उत्पादनार्थ प्रेरित वायु शश्वान्तर को नहीं उत्पन्न करता उसी प्रकार अन्य वर्ण के ग्रहणाध अपेक्षित संस्कार के जनन में समर्थ वायु वर्णान्तर के ग्रहणार्थ अपेक्षित संस्कार का जनन नहीं कर सकता । एवं असे अन्य वर्ण के उत्पादक तालुआदिवायुसंयोग से वर्णान्तर की उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार अन्य ध्वनि के कारणों से वन्यन्तर की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती। उक्त कारण से कार्यमूलक अर्थापत्ति द्वारा शब्द की उत्पत्ति अथवा अभिव्यक्ति दोनों पक्षों में समस्त शब्दों के प्रति समान रूप से प्रयत्न और विवक्षा का सामर्थ्य भेद सिद्ध होता है।"
[ इन्द्रियसंस्कारजनक व्यञ्जक से पृथक् पृथक् संस्कार अयुक्त-उत्तर ] किन्तु विचार करने पर यह कथन भी उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि इन्द्रिय को संस्कृत करने वाले व्यञ्जकों में यह कहीं भी नहीं देखा गया है कि वे एक इन्द्रिय से ग्रहण योग्य पदार्थों में एक एक अर्थ के ग्रहणार्थ इन्द्रिय में पृथक पृथक एक एक संस्कार उत्पन्न करते हों। गन्ध व्यञ्जक तेजस किरण और मेवमुक्त जाट का जो शान्त दिया गया वह शम्दव्यञ्जक के विषय में नहीं घटित होता क्योंकि उक्त किरण और उक्त जल विषय के संस्कारक हैं, इन्द्रिय के संस्कारक नहीं है क्योंकि उनसे लेल सिक्त पदार्थ और भूमि के अतिशयित गन्ध की भी अभिव्यक्ति होती है। कहने का आशय यह है कि उक्त व्यञ्जकों के सन्निधान से पूर्व उन पदार्थों में प्राण द्वारा जो गन्ध गृहीत होता है वही उनका सन्निधान होने पर अतिशययुक्त गृहीत होने लगता है अतः उनसे ग्राह्य विषय ही संस्कृत होता है ।