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[ शास्त्रबार्ता स्त० १० / १८
नामर्थानुमापकः सः परं न क्षयोपशमाऽनिष्पादकतया स्वप्रतिपत्त्यनुकूलः, इन्द्रियव्यापारस्य तद्द्वारेव ज्ञानहेतुत्वात्, अन्यथा व्यभिचारात् । अत एव क्षयोपशमभेदादेव ज्ञानभेदः, न त्विन्द्रियभेदात् | इत्थमेव संभिन्नश्रोतोलब्धिमतां श्रोत्रेणापि रूपग्रहणोपपत्तेः । न चैवं चाक्षुषत्व - श्रावणत्वादिसत्कर्यम्, तस्य जात्यन्तरत्वात् । अत एव च इन्द्रियादिबहिरङ्ग परहेतुकत्वादस्मदा दिचाक्षुषादीनां निश्चयतः परोक्षत्वम्, संशयास्पदत्वाच्च; योगिज्ञानस्य चात्मातिरिक्तानपेक्षत्वात् संशयास्पदत्वाच्च तत्त्वतोऽपरोक्षत्वम् ' इत्यामनन्ति ।
यदप्युक्तम्- (पृ. १६) 'कथं च धर्मादिमाहिज्ञानस्योत्पत्तिः !....' इत्यादि । तदपि न पेशलम्, सर्वज्ञप्रणीतमागममनुसृत्याभ्यासादेव सामर्थ्यंयोगेन तदुत्पत्तेः । न चैवं चक्रकावतारः, अनादित्वात्
देवताओं के संशय की निवृत्ति होती है - तो इस का समाधान यह है कि केवली का मन भी व्यापार अवश्य है पर वह व्यापार प्रानिकों को प्रष्टव्य अर्थ का अनुमापकमात्र होता है, उस व्यापार से केवली प्रश्नकर्ता के जिज्ञास्य का उत्तर दे देता है, किन्तु उसका मनोव्यापार उस के अपने ज्ञान का साधक नहीं होता, क्योंकि उस से क्षीणघातीकर्मा केचली को क्षयोपशम नहीं होता । और हमारे मत से मनोव्यापार क्षयोपशम द्वारा ही ज्ञान का जनक होता है, क्योंकि यदि ऐसा न माना जायगा तो जिन पदार्थों के ज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं होता उन पदार्थों के भी शान की आपत्ति होगी । क्षयोपशम द्वारा ज्ञान का जन्म होने से ही उस के भेद से ज्ञान का भेद होता है, इन्द्रियभेद से नहीं होता।
मनोव्यापार से क्षयोपशम होने पर ज्ञान का जन्म होता है इसीलिये जिन पुरुषों को संभिश्रोतलधि विकसित होती है उन के भोत्र और चक्षु में अन्योन्य शक्ति का मिश्रण हो जाता है. उन्हें श्रोत्र से भी रूप का ग्रहण होता है, में शब्द को सुनकर श्रोत्र में उच्चारणकर्त्ता के रूप को भी देख लेते हैं। ऐसा होने पर भी चाक्षुरत्व और श्रवणत्व में सांक नहीं होता, क्योंकि चक्षु और श्रोत्र आदि इन्द्रियों से उन लब्धिधारीयों को जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह केवल चक्षु एवं केवल श्रोत्र से होनेवाले ज्ञानों से विज्ञातीय होती है, उन में केवल चक्षु की जन्यता का अवच्छेदक चाक्षुषत्व और केवल श्रोत्र की जन्यता का अवच्छेदक श्रावणत्व नहीं रहता, अतः उन के साये की सम्भावना नहीं हो मकती ।
केवली का ज्ञान इन्द्रियादिजन्य नहीं होता और सामान्य मनुष्यों का ज्ञान इन्द्रियादिजन्य होता है, यही कारण है जिस से यह माना जाता है कि सामान्यजनों का चाक्षुष आदि ज्ञान इन्द्रिय आदि आत्मभिन्न बहिरंग हेतुओं से उत्पन्न होने से तथा संशयास्पद होने से निश्चयतः परोक्ष होता है और केवली का ज्ञान आत्मा से भिन्न हेतु की अपेक्षा न करने से पवं संशयास्पद न होने से तत्त्वतः अपरोक्ष होता है ।
[ धर्म-अधर्मादि ग्राहक सर्वज्ञज्ञान का उपपादन ]
सर्वश के विरोध के सन्दर्भ में जो यह कहा गया था (पृ. २७) कि उचित साधन न होने से धर्म, अधर्म आदि के ग्राहक ज्ञान की उत्पत्ति कैसे सम्भव हो सकेगी ? - वह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि सर्वश निर्मित आगम के अनुसार तप आदि के अभ्यास से सामर्थ्ययोग द्वारा धर्म आदि का ग्रहण उत्पन्न हो सकता है । यदि यह कहा जाय कि " ऐसा मानने पर चक्रक दोष होगा, जैसे धर्मादि के ज्ञान के लिये आगमानुसारी अभ्यास अपेक्षित है, और उस के लिये सर्वज्ञ